रामायण में कहा गया है, ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’

punjabkesari.in Saturday, Nov 16, 2024 - 10:46 AM (IST)

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भाग्यशाली हैं हम लोग, हमारा जन्म ऐसे देश में हुआ है, जिसे देवभूमि के नाम से पुकारा जाता है। देवभूमि का अर्थ होता है वह स्थान, जहां देवता वास करते हैं, हमारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। हम जीवन को नए अर्थों के साथ देखने लगते हैं। जिस प्रकार पुष्प अपनी सुगंधि चारों ओर बिखेरते हैं, उसी प्रकार सद्गुरु भी अपने विचारों और भावनाओं के अनुरूप प्रदूषण से भरे कण बाहर फैंकते रहते हैं। उत्कृष्ट विचार और उदात् भावनाओं वाले सद्गुरु चूंकि स्वयं पवित्र होते हैं, अत: उनके आसपास का क्षेत्र भी पवित्र होने लगता है। सद्गुरु ऊर्जा का बहुत बड़ा ट्रांसफार्मर होते हैं। उन्हें यह ऊर्जा तप और कल्याणकारी विचारों से मिलती है। महर्षि व्यास ने कहा था कि ‘आत्मा’ की शुद्धि सद्गुरु के साथ तीव्रता से होती है।

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सामान्यत: हमारा हृदय अनेक अंधविश्वासों, मान्यताओं और ग्रंथियों का समूह है। हमारे विचार मन की इन्हीं उलझनों में फंसे रहते हैं। इनसे मुक्ति पाने के लिए हमें सद्गुरु श्रेष्ठ संत की आवश्यकता होती है। सद्गुरु के वचन और भावनाएं हमारे मन को जड़ता और कुवृत्तियों से मुक्त करने में सहायक होती है। ऐसे लोगों की संगति से जहां हमारे भीतर शुभ विचारों का प्रवाह बढ़ता है, वहीं प्राचीन जड़ और विषम संस्कारों से मुक्ति भी मिल जाती है। इस प्रकार हमारा मन शुद्ध व अंत:करण शीतल हो जाता है।

कहा गया है ‘संग सत्सु विधीयताम’ अर्थात सदा सज्जनों का सत्संग करो। तुलसीदास ने स्वास्थ्याय की महिमा का गुणगान करते हुए लिखा है कि किस प्रकार श्रेष्ठ पुरुषों की संगति और स्वाध्याय से हमारे चित्त की अवस्थता आनंदमय हो जाती है।

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एक घड़ी, आधी घड़ी, आधी से पुन: आध। तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध॥

सद्गुरु सत्संग के माध्यम से हमें अच्छे विचार और पुनीत कर्तव्य प्रदान करता है। आज जिसे देखो उपदेश दे रहा है। यह करो, वह करो, यह न करो, वह न करो क्या उन्होंने कभी इन उपदेशों पर अमल किया है?

रामायण में कहा है- ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’। उपदेश देना सरल है उन पर चलना कठिन है।

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Content Writer

Niyati Bhandari

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