कौन-सा ''ज्ञान'' हमें सभी दुखों से ''मुक्ति'' दिला सकता है

Thursday, Dec 09, 2021 - 04:52 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
हम देखते हैं कि अविद्या माया के कारण जीव भव कूप अर्थात अपनी रची हुई कल्पित सृष्टि के जाल में फंस जाता है और जन्म-जन्मांतर दुथ भोगता रहता है। यह तो उसकी वर्तमान समस्या है, उसका रोग है। अब इससे मुक्त होने का उपाय खोजना चाहिए, यदि अविद्या या अज्ञान के कारण कोई समस्या उत्पन्न होती है तो उसका समाधान ज्ञान ही हो सकता है। ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई साधन कारगर होता नहीं दिखाई देता है। अतः हमारे विचारा का अगला बिंदू ज्ञान ही होना चाहिए। 

जन-साधारण पढ़े लिखे व्यक्ति को ज्ञानी मानता बै किंतु हम देखते हैं कि ऐसे ज्ञानी व्यक्ति, वकील, डाक्टर इंजीनियर यहां तक कि स्वर्ण पदक विजेता प्राध्यापक भी दुखी हैं। समस्त सुख सुविधाओं के साधन जुटा कर भी वे सब दुखी हैं इसलिए यह देखना होगा कि वह कौन सा ज्ञान है जो मनुष्या को दुखों से निवृत्त कर देता है। 

श्री राम जी एक पंक्ति में इस प्रकार कहते हैं: 

ज्ञान मान जहां एकज्ञ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही।। 

बस यही ज्ञान है जो हमें दुखों से छुड़ा सकता है। यहां ज्ञान का वर्णन दो रूपों में किया गया है। एक तो अभिमान का न रह जाना ज्ञान है और ज्ञान की दृष्टि में सर्वत्र एक ब्रह्म ही दिखाई देना चाहिए, अन्य कुछ नहीं। यही ज्ञान के दो वास्तविक लक्षण हैं। 

सामान्यत: माना जाता है कि जहां ज्ञान हो वहां अज्ञान नहीं होता है किंतु यहां कहते हैं कि अभिमान न होना ही ज्ञान है। जो ज्ञान अभिमान को बढ़ाने वाला है वह अज्ञान ही है। यदि विश्वविद्यालय की उच्च शिक्षा पाकर किसी का अभिमान बढ़ जाए, तो इसका अर्थ यह है कि उसका ज्ञान नहीं बढ़ अज्ञान ही बढ़ा है। अंतः ज्ञान की जो परिभाषा अभिमान से छुटकारा दिलाती है, वहीं अभिमान को बढ़ाने वाले लौकिक ज्ञान को अपनी परिधि से बाहर निकाल देती है।  उच्च शिक्षा की अभिमान नहीं बढ़ाती, वरन् अन्य बहुत सी वस्तुएं भी अभिमान बढ़ाती हैं। भगवान शंकराचार्य की एक पंक्ति इस प्रकार है 'मा कुरु धन, जन, यौवन गर्वम्।' 

इससे ज्ञात होता है कि अभिमान के 3 मुख्य कारण धन, जन और अपना युवा शरीर है। बहुत से कारखानों का स्वामित्व, भवन, वाहन तथा इंद्रिय सुखों के अन्य साधन अभिमान उत्पन्न करते हैं। किसी भी प्रकार भी भौतिक वस्तुओं का संग्रह धन का अभिमान है। हम उन जड़ वस्तुओं को अपना कहते हैं और अभिमान करते हैं।  इसी प्रकार हम जिन व्यक्तितयों को अपना कहते हैं, उनसे अभिमान उत्पन्न होता है। अपना बड़ा परिवार, धनी और उच्च पदस्थ मित्र, अपने प्रशंसक, भक्त और अनुयायी जन अभिमान उत्पन्न करते हैं। अपनी कहलाने वाले चेतन प्राणी धन और जन की श्रेणी में आते हैं। अपना शरीर 'मैं' प्रतीत होता है और यह भी अभिमान उत्पन्न करता है। 

सच्चा ज्ञानी मनुष्य बालकर की भांति सरल, निश्चल और निष्कपट हो जाता है। किसी प्रकार का हठवाद न करना ही ज्ञान का फल है। -स्वामी तेजोमयानंद
 

Jyoti

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