तपस्या के माध्यम से नहीं होती भक्ति की प्राप्ति

Wednesday, Jun 29, 2016 - 01:26 PM (IST)

बात उन दिनों की है जब श्रीचैतन्य महाप्रभुजी नवद्वीप में केवल भक्तों के साथ ही श्रीहरिनाम संकीर्तन करते थे। उन सबका मुख्य स्थल श्रीवास पंडित जी का घर ही होता था। बाहरी व्यक्तियों को प्रवेश की ईजाजत नहीं थी। 
 
एक बार सिर्फ दूध पीने वाले दूधाहारी ब्राह्मण ने श्रीवास पंडित से कहा की वह भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभुजी के कीर्तन-विलास को देखना चाहता है। श्रीवास पंडित जी उसे ब्रह्मचारी व सात्त्वीक आहारी जानकर अपने घर में ले आए। 
 
श्रीवास ने उसे एकांत में कहीं पर बिठा दिया, ताकि कोई उसे देख ना पाए। अन्तर्यामी श्रीचैतन्य महाप्रभुजी ब्राह्मण की उपस्थिति को जान गए किंतु कुछ बोले नहीं। भक्तों के आ जाने पर श्रीहरिनाम संकीर्तन प्रारम्भ हुआ। अचानक श्री महाप्रभुजी बोले, "आज कीर्तन में कुछ आनंद नहीं आ रहा। ऐसा लगता है कि किसी बहिर्मुख व्यक्ति ने घर में प्रवेश किया है।" 
 
श्री महाप्रभु जी की बात सुनकर, भयभीत भाव से श्रीवास पंडित जी बोले, "एक दूधाहारी ब्राह्मचारी द्वारा आपके नृत्य-कीर्तन के दर्शन करने के लिए आग्रह करने पर उसकी तपस्या और आर्ति को देखकर मैंने उसे घर में स्थान दिया है।" 
 
श्री महाप्रभु जी ने श्रीवास पंडित जी को समझाते हुए कहा कि श्रीकृष्ण में शरणागति के अतिरिक्त दूध पीने इत्यादि विभिन्न तपस्या के माध्यम से श्री कृष्ण भक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। अतः उसे यहां से बाहर कर दो। 
 
दूधाहारी ब्राह्मण ने भी सुना और वह श्री महाप्रभु जी के शरणागत हो गया। श्री महाप्रभु, जो स्वयं श्रीकृष्ण हैं, ने उसकी शरणागति के भाव को देखकर उस पर कृपा की और तपस्या आदि की दाम्भिकता का दिखावा करने के लिए निषेध कर दिया। 
 
श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
bhakti.vichar.vishnu@gmail.com 
Advertising