श्री कृष्ण के अभिन्न सखा की खास बातें, आखिर क्यों करते थे भगवान उससे इतना प्रेम

Wednesday, Jun 01, 2016 - 01:22 PM (IST)

इंद्र के अंश से उत्पन्न महावीर अर्जुन वीरता, स्फूर्ति, तेज एवं शस्त्र-संचालन में अप्रतिम थे। पृथ्वी का भार हरण करने तथा अत्याचारियों को दंड देने के लिए साक्षात भगवान नर-नारायण ने ही श्री कृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतार लिया था। यद्यपि समस्त पांडव श्री कृष्ण के भक्त थे, किन्तु अर्जुन तो भगवान श्याम सुंदर के अभिन्न सखा तथा उनके प्राण ही थे। 

 

वीरवर अर्जुन ने अकेले ही द्रुपद को परास्त करके तथा उन्हें लाकर गुरु द्रोणाचार्य के चरणों में डाल दिया। इस प्रकार गुरु की इच्छानुसार गुरु दक्षिणा चुकाकर इन्होंने संसार को अपने अद्भुत युद्ध कौशल का प्रथम परिचय दिया। अपने तप और पराक्रम से इन्होंने भगवान शंकर को प्रसन्न करके पाशुपतास्त्र प्राप्त किया। दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर इन्हें अपने-अपने दिव्यास्त्र दिए। देवराज इंद्र के बुलाने पर वे स्वर्ग गए तथा अनेक देव-विरोधी शत्रुओं का दमन किया। स्वर्ग की सर्वश्रेष्ठ अप्सरा उर्वशी के प्रस्ताव को ठुकरा कर इन्होंने अद्भुत इंद्रिय संयम का परिचय दिया। अंत में उर्वशी ने रुष्ट होकर इनको एक वर्ष तक नपुंसक रहने का शाप दिया।

 

महाभारत के युद्ध में रण-निमंत्रण के अवसर पर भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा कि ‘‘एक ओर मेरी नारायणी सेना रहेगी तथा दूसरी ओर मैं नि:शस्त्र होकर स्वयं रहूंगा। भले ही आप पहले आए हैं किन्तु मैंने अर्जुन को पहले देखा है। वैसे भी ये आपसे आयु में छोटे हैं अत: इन्हें मांगने का अवसर पहले मिलना चाहिए।’’ 

 

भगवान के इस कथन पर अर्जुन ने कहा, ‘‘प्रभु मैं तो केवल आपको चाहता हूं। आपको छोड़कर मुझे तीनों लोकों का राज भी नहीं चाहिए। आप शस्त्र लें या न लें पांडवों के एकमात्र आश्रय तो आप ही हैं।’’

 

अर्जुन की इसी भक्ति और निर्भरता ने भगवान श्री कृष्ण को उनका सारथी बनने पर विवश कर दिया। यही कारण है कि तत्ववेत्ता ऋषियों को छोड़कर श्री कृष्ण ने केवल अर्जुन को ही गीता के महान ज्ञान का उपदेश दिया। महाभारत के युद्ध में दयामय श्री कृष्ण माता की भांति इनकी सुरक्षा करते रहे।

 

महाभारत के युद्ध में छ: महारथियों ने मिलकर अन्यायपूर्वक अभिमन्यु का वध कर डाला। अभिमन्यु की मृत्यु का मुख्य कारण जयद्रथ को जानकर दूसरे दिन सूर्यास्त से पूर्व अर्जुन ने उसका वध करने का प्रण किया। वध न कर पाने पर स्वयं अग्नि में आत्मदाह करने की उन्होंने दूसरी प्रतिज्ञा भी की। 

 

भक्त के प्राण की रक्षा का दायित्व तो स्वयं भगवान का है। दूसरे दिन घोर संग्राम हुआ। श्री कृष्ण को अर्जुन के प्राण रक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी। सायंकाल श्री हरि ने सूर्य को ढक कर अंधकार कर दिया। सूर्यास्त हुआ जानकर अर्जुन चिता में बैठने के लिए तैयार हो गए। अंत में जयद्रथ भी अपने सहयोगियों के साथ अर्जुन को चिढ़ाने के लिए आ गया। 

 

अचानक श्री कृष्ण ने अंधकार दूर कर दिया । सूर्य पश्चिम दिशा में चमक उठा। भगवान ने कहा, ‘‘अर्जुन अब शीघ्रता करो! दुराचारी जयद्रथ का सिर काट लो, किन्तु ध्यान रहे वह जमीन पर न गिरने पाए क्योंकि इसके पिता ने भगवान शिव से वरदान मांगा है कि जयद्रथ के सिर को जमीन पर गिराने वाले के सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे।’’

 

अर्जुन ने बाण के द्वारा जयद्रथ का मस्तक काट कर उसे संध्योपासन करते हुए उसके पिता की ही अंजलि में गिरा दिया। फलत: पिता-पुत्र दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हुए। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण की कृपा से अनेक विपत्तियों से पांडवों की रक्षा हुई और अंत में युद्ध में उन्हें विजय भी मिली। वस्तुत: अर्जुन और श्री कृष्ण अभिन्न हैं। जहां धर्म है, वहां श्री कृष्ण हैं और जहां श्री कृष्ण हैं वहीं विजय है। 

Advertising