अनजाने में आप इस मीठे विष का सेवन तो नहीं कर रहे, भविष्य में झेलना पड़ेगा दुख

Saturday, Feb 13, 2016 - 12:16 PM (IST)

किसी गांव में एक संन्यासी आया। राजा ने प्रशंसा सुनी तो वह दर्शन करने आया। उसने कहा, ‘‘महाराज, कुछ दिन के लिए आप मेरे महल में चलें।’’ 

 
संन्यासी ने कहा, ‘‘महलों में मुझे सोने की गंध आती है। मैं वहां नहीं रह पाऊंगा।’’
 
राजा बोला, ‘‘कैसी बात करते हैं। सोने की गंध कहां है। लोग सोने का नाम लेते ही उस ओर दौड़ पड़ते हैं। आप उससे दूर जाना चाहते हैं। मुझे तो आज तक गंध नहीं आई।’’ 
 
 
संन्यासी ने कहा, ‘‘चलो मेरे साथ।’’
 
 
संन्यासी राजा को जूता बनाने वालों की बस्ती में ले गया। राजा को चमड़े की दुर्गंध सताने लगी। राजा ने कहा, ‘‘महाराज, कहां ले आए आप। बड़ी दुर्गंध आ रही है।’’ 
 
 
संन्यासी बोला, ‘‘कैसी दुर्गंध, आप बड़ी विचित्र बात कर रहे हैं। इस घर के मालिक से पूछें।’’ घर का स्वामी आया। संन्यासी ने पूछा, ‘‘अरे, तुम्हें यहां दुर्गंध नहीं आती।’’ घर के स्वामी ने कहा, ‘‘नहीं, दुर्गंध है कहां। मुझे यहां रहते 50 वर्ष हो गए। कभी दुर्गंध की अनुभूति नहीं हुई।’’
 
 
संन्यासी राजा को लेकर महल में आ गया। वह राजा से बोला, ‘‘महाराज, आपको वहां चमड़े की दुर्गंध आ रही थी। वहां रहने वालों को उसका अनुभव 
ही नहीं हो रहा था। इसी प्रकार यहां आपके महलों में मुझे सोने की गंध आती है, आपको उसका अनुभव ही नहीं होता।’’ 
 
 
जो जिसमें रचा-बसा है वह वैसा ही हो जाता है। जीवन को सफल और सार्थक 
बनाने के लिए संतुलन और समता की साधना जरूरी होती है। समता साधना का आवश्यक अंग है। समता का भाव मन के कोमल परिणामों पर आधारित है और इसके लिए अनाग्रह की जरूरत है।
 
 
असत-पुरुष विद्या, दान, वैभव और कुल पाकर अभिमान से उन्मत हो जाते हैं लेकिन समता का साधक व्यक्ति उक्त मदों से सर्वथा अलिप्त रहता है। जब मनुष्य थोड़ा जानता है तब सर्वज्ञ होने का अभिमान करता है लेकिन जब वह उच्चकोटि के विद्वानों के पास कुछ और सीखता है तब शास्त्र ज्ञान की समुद्र-गंभीरता और अपनी अंग की लघुता देखकर गर्व रहित हो जाता है। अभिमान एवं आग्रह की लकड़ी निकाल देने पर मृदुता की विभूति प्राप्त होती है।
Advertising