परम्परा: गुरु पूर्णिमा के समृद्ध इतिहास का आरंभ कब और कैसे हुआ

Tuesday, Jul 19, 2016 - 08:39 AM (IST)

मानव मात्र के लिए ज्ञान का द्वार खोलने वाले वेद व्यास 
व्यास पूर्णिमा जिसे गुरु पूर्णिमा भी कहा जाता है, का पावन पर्व हमारी संस्कृति और सभ्यता, हमारे धर्म, जीवन और सिद्धांत, इन सबकी प्रेरणा और प्रकाश के स्रोत के उदय का पर्व है। इसी दिन लगभग 5000 वर्ष पहले भगवान अपने अंश से कृष्ण द्वैपायन के रूप में प्रकट हुए। भगवान पराशर के पुत्र कृष्ण द्वैपायन जिन्हें हम सभी वेदव्यास जी के नाम से जानते हैं, आज के ही दिन उनका आविर्भाव हुआ था इसीलिए आज की तिथि को व्यास पूर्णिमा कहते हैं। व्यास पूर्णिमा का अभिप्राय है भगवान व्यासदेव जी के जन्म की पूर्णिमा।  
 
द्वापर के अंत में जब मनुष्य की बुद्धि निर्बल और क्षीण होने लगती है, कुण्ठित होने लगती है व तमोगुण की वृद्धि होने लगती है तो भगवान अंशावतार से किसी रूप में प्रकट होते हैं। 
 
इस युग के व्यास का नाम कृष्ण द्वैपायन है। वह व्यास पराशर के पुत्र थे। इससे पहले के व्यास पराशर स्वयं थे और उनके रचित ग्रंथ आज भी उपलब्ध हैं। इस द्वापर के व्यास का नाम कृष्ण था, द्वैपायन उन्हें इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह गंगा और यमुना के द्वीप में जन्मे थे। कृष्ण उन्हें इसलिए कहते थे क्योंकि वह श्याम रंग के थे। गुरु तत्व तो परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित है। भगवान व्यासदेव वेद-शास्त्र के जब ज्ञाता हुए तो उन्होंने वेद शास्त्र को व्यवस्थित कर उनका विभाजन किया और ब्रह्मसूत्र, महाभारत और पुराणों की रचना कर जब पूर्ण वेद के ज्ञान को विश्व में प्रतिष्ठित किया जिससे उनकी संज्ञा जगत गुरु की हुई। ‘जगत गुरु’ शब्द का प्रयोग व्यास के लिए सुशोभित होता है तथा उन्हीं के लिए सार्थक है।  
 
व्यासदेव ने उन्हीं वैदिक मंत्रों का अपने श्लोकों में अक्षरश: अनुवाद करके, इतिहास और पुराण में उनका परावर्तन कर मानव मात्र के लिए ज्ञान का द्वार खोल दिया। अपनी रचना महाभारत को उन्होंने पंचम वेद कहा अर्थात यह पांचवां वेद है और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जो पंचम वेद में नहीं है वह दुनिया में आपको कहीं नहीं मिलेगा और जो दुनिया में कहीं भी ज्ञान है वह इस ग्रंथ में आपको मिलेगा। गीता उन्हीं की रचना है। वेद के अक्षरश: कई मंत्र आपको गीता में मिल जाएंगे।  
 
हमारे जितने अवतार हुए हैं उन समस्त अवतारों को विश्व में प्रकाशित करने वाला अवतार व्यासदेव जी का ही है। यदि व्यासदेव जी की भागवत न हो तो कृष्ण को कौन जाने, यदि व्यासदेव जी की महाभारत न हो तो कृष्ण की गीता को कौन जाने? व्यासदेव जी के पुराण न हों तो मनुष्य को ज्ञान-विज्ञान का स्रोत कहां से मिले? इसलिए ऐसा महापुरुष दूसरा कोई नहीं हुआ। 
 
भगवान कृष्ण ने तो गीता का उपदेश बोलचाल की भाषा में दिया था। ये श्लोक नहीं कहे थे जो आज हम गीता में पढ़ते हैं। भगवान की वाणी को 700 श्लोकों में आबद्ध कर यह स्तुत्य कार्य व्यासदेव जी ने ही किया है।  
 
आज चारों वेदों के कुछ अंश जो हमें मिलते हैं वह भी व्यासदेव जी की ही देन हैं। ‘महाभारत’ के अंत में विष्णुपुराण में हम पढ़ते हैं कि वेद के मंत्र उस समय लुप्त हो गए थे तो व्यासदेव ने वेद के मंत्र जो मिले और जो उपलब्ध नहीं थे ध्यानस्थ होकर समाधि अवस्था में उन्हें ग्रहण करके संकलित किया। 
 
वैदिक साहित्य और गीता व्यासदेव जी की देन है इसलिए व्यासदेव जी का कथन है कि ‘एतद धर्म सनातनम्’ यह जो धर्म मैं प्रतिष्ठित कर रहा हूं वह सनातन सत्य है। क्योंकि नित्य तत्वों को उन्होंने अनुसंधान किया और उसे प्रतिष्ठित किया। अनुसंधानकर्ता तो व्यासदेव जी हैं लेकिन उस धर्म के निर्माता व्यासदेव नहीं हैं। वह तो शाश्वत हैं। जैसे सूर्य में ताप शाश्वत है, वायु में गति शाश्वत है इसी प्रकार जो प्रकृति के और जीवन के शाश्वत नियम हैं, उनको व्यासदेव जी ने प्रतिष्ठित किया है। अन्य जितने ऋषि हुए उनकी बातों को व्यासदेव जी ने अपने ग्रंथों में व्यवस्थित किया।  
 
आज के पावन दिवस पर उस महापुरुष के चरणों में नतमस्तक होते हुए उनके दिखाए हुए उस दिव्य पथ पर आगे बढऩे की प्रेरणा प्राप्त करें और अपने-अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करें। उन्होंने यह परम्परा चलाई कि उनका जन्म दिन उनके रूप में न मना कर विद्वानों की पूजा, गुरुओं की पूजा व जो ज्ञान-विज्ञान से युक्त हों उनकी पूजा के रूप में मनाया जाए इसलिए आज तक यह परम्परा चली आ रही है।
 
—ब्रह्मर्षि विश्वात्मा बावरा (ब्रह्मलीन) 

प्रस्तुति : ब्रह्मऋता परिव्राजिका 

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