जानें, किस व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता

Thursday, Oct 08, 2015 - 10:59 AM (IST)

गुरु वशिष्ठ जी ने जीवनमुक्त पुरुष के निम्रलिखित लक्षण बताए हैं :
 
ज्ञान जिनका एकमात्र लक्ष्य है और जो निरंतर आत्मज्ञान के विषय में चिंतन करते रहते हैं। जिनके मुख की कांति न तो सुख में बढ़ती है और न दुख में क्षीण होती है तथा जो परिस्थिति के अनुरूप रहता है। जो सुषुप्ति में रहते हुए भी जगा हुआ है, जिसके लिए कोई जाग्रत अवस्था नहीं और जिसका ज्ञान वासनाओं से मुक्त है। जो बाह्य दृष्टि से राग-द्वेष और भय आदि से युक्त व्यक्ति के समान व्यवहार करते हुए भी आंतरिक दृष्टि से सदैव आकाश के समान शुद्ध रहता है। कर्म करते हुए अथवा कर्म न करते हुए जिसमें कर्ता का भाव नहीं रहता और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती।
 
जिस से संसार को डर नहीं लगता और जो स्वयं संसार से नहीं डरता। जो हर्ष, असहिष्णुता और भय से मुक्त है। तात्पर्य यह है कि जीवनमुक्त पुरुष का शरीर में रहते हुए भी शरीर से तादात्म्य नहीं रह जाता। तनाव व बोझ देने वाले संसार में असंगत परिस्थितियां जिस प्रकार हम सबके जीवन में हैं, वैसे ही उनके जीवन में भी रहती हैं, परंतु वे उससे प्रभावित नहीं होते। कभी-कभी बाह्य रूप से वे बंधनग्रस्त भी प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन आंतरिक रूप से वे सदैव र्निलप्त और र्निवकारी बने रहते हैं। गुरु वशिष्ठ कहते हैं कि जीवन मुक्त पुरुष का जब शरीर छूटता है, तो वह नि:स्पंद वायु के समान ‘विदेहमुक्ति’ की स्थिति में प्रवेश कर जाता है। हवा जब तेज गति से बहने लगती है तब उसे हम आंधी का नाम दे देते हैं। आंधी की तेजी जब कम हो जाती है, तब वह पुन: शांत हवा के रूप में बहने लगती है। गुरु वशिष्ठ समझते हैं कि शांत वायु की तरह ही जीवनमुक्त पुरुष देह का अंत होने पर विदेह मुक्ति की स्थिति को प्राप्त कर लेता है।
 
जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति इन दोनों पदों का प्रयोग देह के प्रसंग में ही होता है। ज्ञानी पुरुष जीवित रहते हुए ही शरीर से तादात्म्य का त्याग कर देता है। इसलिए देहांत होने पर भी उसकी मुक्तावस्था अविकल रूप से बनी रहती है। अज्ञान अनादि है और बंधन का कारण है। बुद्धिमान पुरुष अज्ञान को दूर करके इस जीवन में ही मुक्त हो जाता है। अज्ञान का अभिव्यक्त रूप है ‘इच्छाएं।’ इच्छाएं कर्मों को, व्यष्टि जीवनभाव को और वासनाओं आदि को प्रेरित करती हैं। ये ही हमारे पुनर्जन्म का कारण बनती हैं। अज्ञान और उसके परिणामों को दूर करके जिसने अपने सच्चे स्वभाव को समझ लिया है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। आत्मस्वरूप में ज्ञान निष्ठा प्राप्त हो जाने के बाद फिर कभी अज्ञान या बंधन नहीं होता।
 
मुण्डकोपनिषद् में ऋषि कहते हैं :
कामान्य : कामयते मन्यमान:
स कामभिर्जायते तत्र तत्र
पर्याप्त कामस्य कृतात्मनस्त्वि
हैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामा:।।3.2.2.।।
 
जिसके मन में ऐंद्रिक सुखों के  इच्छाएं रहती हैं, वह उन इच्छाओं के कारण बार-बार जन्म लेता है, किन्तु जो आप्तकाम है, कृतकृत्य है, प्रबुद्ध है, उसका पुनर्जन्म कभी नहीं होता, क्योंकि उसकी समस्त इच्छाएं यहीं समाप्त हो जाती हैं।
 

                                                                                                                                                  —स्वामी तेजोमयानंद 

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