शुभ फलदायक गणेश उत्सव का आरंभ कब और कैसे हुआ?

Tuesday, Sep 15, 2015 - 01:14 PM (IST)

अष्टसिद्धि दायक गणपति सुख-समृद्धि, यश-एेश्वर्य, वैभव, संकट नाशक, शत्रु नाशक, रिद्धि-सिद्धि दायक, ऋणहर्ता, विद्या-बुद्धि-ज्ञान तथा विवेक के प्रतीक माने जाते हैं। शिव पुराण के अनुसार गणेशावतार भाद्रपद के कृष्णपक्ष की चतुर्थी के दिवस पर हुआ था। शिव- पार्वती ने उन्हें अपनी परिक्रमा लगाने से प्रसन्न होकर सर्वप्रथम पूजे जाने का आशीष दिया था जो आज भी प्रचलित एवं मान्य है और सभी देवी-देवताआें के पूजन से पूर्व इनकी पूजा की जाती है।

राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत छत्रपति शिवाजी ने गणेशोत्सव को देश की राष्ट्रीयता, धर्म ,संस्कृति व इतिहास से जोड़ कर एक महान योगदान दिया। गणेश जी पेशवाआें के कुल देवता थे, अत: उन्होंने इन्हें राष्ट्र देवता का स्वरूप दे दिया। लगभग 1800 से 1900 के मध्य यह आयोजन केवल हिन्दूवादी परिवारों तक सीमित रह गया। ब्रिटिश काल में यह परंपरा और धीमी तथा फीकी होती चली गई। लोग अपने घरों में ही गणेश जी की आराधना या छोटा-मोटा उत्सव मना लेते। उन दिनों गणेश प्रतिमा के विसर्जन की भी कोई प्रथा नहीं थी।

सन् 1893 के आसपास बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में सार्वजनिक तौर पर गणेशोत्सव का आयोजन किया। यह आयोजन आगे चलकर एक सांस्कृतिक आंदोलन बन गया। आजादी की लड़ाई में इस उत्सव की विशेष भूमिका रही जिसने सारे राष्ट्र को देशभक्ति के एक सूत्र में पिरोने का काम किया। जनता इसी उत्सव के बहाने एकत्रित होती और राष्ट्र हित में सोचती। वर्तमान में गणेश पूजा का आयोजन भारत के अनेक भागों में 10 दिवसीय समारोह बन चुका है। 

देश भर के भक्तों में गणेशोत्सव एक नई उमंग व स्फूर्ति का संचार करता है। अंतिम दिन गणेश प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है। 

उस समय यह सामूहिक घोष किया जाता है-

गणपति बप्पा मोरिया,घीमा लड्डू चोरिया!

पुडचा वरसी लौकरिया, बप्पा मोरिया, बप्पा मोरिया रे!!

अर्थात :  हे! पिता गणपति! अलविदा। जो घी निर्मित लड्डू खाते हैं। अगले वर्ष तू जल्दी लौटना। गणेश पिता विदा हो!  

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