माता कौशल्या के साथ रावण ने किया ऐसा व्यवहार, जानें रहस्य

punjabkesari.in Monday, Sep 14, 2015 - 04:53 PM (IST)

दक्षिण कोसल राज ने अपनी पुत्री का विवाह अयोध्या के युवराज दशरथ से सुनिश्चित किया। अचानक एक दिन राजकुमारी कौशल्या राजभवन से अदृश्य हो गई। उधर अयोध्या से महाराज अज प्रस्थान कर चुके थे। वह सदल-बल सरयू नदी के मार्ग से नौका द्वारा कोसल की यात्रा कर रहे थे। 
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अकस्मात भयानक आंधी आई। बहुत सी नौकाएं डूब गईं। महाराज ने देखा कि युवराज जिस नौका से चल रहे थे उसका पता नहीं है। वास्तव में रावण ने जब अपने भाग्य पर विचार किया तब उसे पता चला कि दशरथ और कौशल्या के द्वारा उत्पन्न पुत्र उसका वध करेगा। इसलिए उसने कौशल्या का हरण करके और उन्हें पेटिका में बंद करके दक्षिण सागर में अपने एक परिचित महामत्स्य को दे दिया था। 
 
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महामत्स्य पेटिका को अपने मुख में रखता था। अकस्मात दूसरे महामत्स्य ने उस पर आक्रमण किया। इसलिए मत्स्य ने वह पेटिका गंगा सागर के किनारे भूमि पर छोड़ दी। भीतर से कौशल्या जी पेटिका खोलकर बाहर आ गईं। संयोग से दशरथ जी भी बहते हुए वहीं पहुंचे। वहीं उनका कौशल्या जी से साक्षात्कार हुआ।  परस्पर परिचय के बाद उन्होंने अग्रि प्रज्वलित करके कौशल्या जी से विवाह कर लिया और अयोध्या लौट आए। आरंभ से ही कौशल्या जी धार्मिक थीं। वह निरंतर भगवान की पूजा करती थीं, अनेक व्रत रखती थीं और नित्य ब्राह्मणों को दान देती थीं।
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महाराज दशरथ ने अनेक विवाह किए। सबसे छोटी महारानी कैकेयी ने उन्हें अत्यधिक आकर्षित किया। महर्षि वसिष्ठ के आदेश से शृंगी ऋषि आमंत्रित हुए। पुत्रेष्टि यज्ञ में प्रकट होकर अग्रि देव ने चरु प्रदान किया। चरु का आधा भाग कौशल्या जी को प्राप्त हुआ। पातिव्रत्य, धर्म, साधुसेवा, भगवदाराधना सब एक साथ सफल हुई। भगवान राम ने माता कौशल्या की गोद को विश्व के लिए वंदनीय बना दिया। भगवान की विश्व मोहिनी मूर्त के दर्शन से उनके सारे कष्ट परमानंद में बदल गए।
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‘‘मेरा राम आज युवराज होगा।’’ माता कौशल्या का हृदय यह सोचकर प्रसन्नता से उछल रहा था। उन्होंने पूरी रात भगवान की आराधना में व्यतीत की। प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में उठकर वह भगवान की पूजा में लग गईं। पूजा के बाद उन्होंने पुष्पाञ्जलि अर्पित कर भगवान को प्रणाम किया। इसी समय रघुनाथ ने आकर माता के चरणों में मस्तक झुकाया। कौशल्या जी ने श्री राम को उठाकर हृदय से लगाया और कहा, ‘‘बेटा! कुछ कलेऊ तो कर लो। अभिषेक में अभी बहुत विलम्ब होगा।’’
 
‘‘मेरा अभिषेक तो हो गया मां! पिता जी ने मुझे चौदह वर्ष के लिए वन का राज्य दिया है।’’ श्री राम ने कहा।
 
राम! तुम परिहास तो नहीं कर रहे हो? महाराज तुम्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते हैं। किस अपराध से उन्होंने तुम्हें वन दिया है? मैं तुम्हें आदेश देती हूं कि तुम वन नहीं जाओगे, क्योंकि माता पिता से दस गुणा बड़ी है परंतु यदि इसमें छोटी माता कैकेयी की भी इच्छा सम्मिलित है तो वन का राज्य तुम्हारे लिए सैंकड़ों अयोध्या के राज्य से भी बढ़कर है।’’ माता कौशल्या ने हृदय पर पत्थर रख कर राघवेंद्र को वन जाने का आदेश दिया। उनके दुख का कोई पार नहीं था।
 
‘‘कौशल्या! मैं तुम्हारा अपराधी हूं, अपने पति को क्षमा कर दो।’’ महाराज दशरथ ने करुण स्वर में कहा।
 
‘‘मेरे देव मुझे क्षमा करें।’’ पति के दीन वचन सुन कर कौशल्या जी उनके चरणों में गिर पड़ीं और बोली, ‘‘स्वामी दीनतापूर्वक जिस स्त्री की प्रार्थना करता है, उस स्त्री के धर्म का नाश होता है। पति ही स्त्री के लिए लोक और परलोक का एकमात्र स्वामी है।’’
 
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इस तरह कौशल्या जी ने महाराज को अनेक प्रकार से सांत्वना दी। श्री राम के वियोग में महाराज दशरथ ने शरीर त्याग दिया। माता कौशल्या सती होना चाहती थीं किन्तु श्री भरत के स्नेह ने उन्हें रोक दिया। चौदह वर्ष का समय एक-एक पल युग की भांति बीत गया। श्री राम आए। आज भी वह मां के लिए शिशु ही तो थे। 


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