जब हम ध्यान करते हैं तो ध्यान हमारे भीतर उतरता है

Sunday, Apr 26, 2015 - 10:07 AM (IST)

जब हम ध्यान करते हैं तो अपने भीतर को समझने के प्रयास पर होते हैं । वहां तथ्य नहीं होते बल्कि अनुभव ही होते हैं । वहां खोज नहीं बस एक शांति होती है । ध्यान, निस्तब्ध और सुनसान मार्ग पर इस तरह उतरता है जैसे पहाडिय़ों पर सौम्य वर्षा । यह इसी तरह सहज और प्राकृतिक रूप से आता है जैसे रात । वहां किसी तरह का प्रयास या केंद्रीकरण या विक्षेप विकर्षण पर किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं होता । वहां पर कोई भी आज्ञा या नकल नहीं होती । न किसी तरह का नकार होता है न स्वीकार, न ही ध्यान में स्मृति की निरंतरता होती है । 

मस्तिष्क अपने परिवेश के प्रति जागरूक रहता है पर बिना किसी प्रतिक्रिया के शांत रहता है, बिना किसी दखलअंदाजी के, वह जागता तो है पर प्रतिक्रियाहीन होता है । वहां नितांत शांति स्तब्धता होती है पर शब्द विचारों के साथ धुंधले पड़ जाते हैं । वहां अनूठी और निराली ऊर्जा होती है, उसे कोई भी नाम दें, वह जो भी हो उसका महत्व नहीं है, वह गहनतापूर्वक सक्रिय होती है बिना किसी लक्ष्य और उद्देश्य के । वह सृजित होता है बिना कैनवास और संगमरमर के, बिना कुछ तराशे या तोड़े ।

वह मानव मस्तिष्क की चीज नहीं होती, न अभिव्यक्ति की, अगर अभिव्यक्त हो और उसका क्षरण हो जाए । उस तक नहीं पहुंचा जा सकता, उसका वर्गीकरण नहीं किया जा सकता । विचार और भाव या एहसास उसको जानने-समझने के साधन नहीं हो सकते । वह किसी भी चीज से पूर्णतया असंबद्ध है और अपने ही असीम विस्तार और अनन्तता में अकेली ही रहती है । उस अंधेरे मार्ग पर चलना, वहां पर असंभवता का आनंद होता है, न कि उपलब्धि का । वहां पहुंच, सफलता और ऐसी ही अन्यान्य बचकानी मांगों और प्रतिक्रियाओं का अभाव होता है । होता है तो बस असंभव, असंभवता, असंभाव्य का अकेलापन ।

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