कैसे खुश रहें हर परिस्थिति में

punjabkesari.in Saturday, Jan 28, 2023 - 04:59 AM (IST)

मनुष्य की खुशी उसकी मानसिक अवस्था पर निर्भर है। यदि मानसिक अवस्था सकारात्मक हो तो लगभग हर स्थिति में मनुष्य प्रसन्न रह सकता है। मन की अवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय मन के नियंत्रण पर निर्भर करती है। मनुष्य को जीवन के प्रारंभ में एक बुनियादी निर्णय करना चाहिए कि उसे जीवन मालिक बन कर जीना है या गुलाम बन कर। 

भारतीय वेदांत के अनुसार हम केवल शरीर नहीं हैं न ही मन हैं-हम इस शरीर से पहले भी थे और उसके बाद भी रहेंगे। हम उस परम सत्ता परमात्मा का अंश आत्मा हैं। यह विचार मनुष्य को एक ऊंचे आत्मविश्वास से भरे आध्यात्मिक धरातल पर ले जाता है। 

मुझे तीन बार जेल जाने का सौभाग्य मिला। जीवन में लगभग 2 वर्ष 4 मास जेल में रहा। जेल के कैदियों से लम्बी बातचीत करता रहता था। लगभग 90 प्रतिशत कैदियों का यह कहना था कि जब वे अपराध करने लगे थे तो एक क्षण के लिए विचार आया कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूं परन्तु फिर मन के आवेश में अपराध कर दिया। 

गीता का प्रमुख उपदेश है कि मनुष्य कर्म कर सकता है फल प्रभु के हाथ में है। हम केवल कर्म करें-फल की इच्छा न करें। ओशो ने इसको बहुत बढिय़ा तरीके से परिभाषित किया है। उन्होंने कहा कि मनुष्य कत्र्तव्य का पालन करे उसके बाद जो भी फल मिलता है उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर हंसते-मुस्कुराते स्वीकार करे। यह बहुत कठिन है परन्तु बहुत महत्वपूर्ण है। प्रयत्न करें तो यह जीवन का वरदान सिद्ध हो सकता है। 

सौभाग्य से जीवन के प्रारंभ में मुझे भगवद् गीता और विवेकानंद को पढऩे का सौभाग्य मिला। उसी अनुसार जीने का प्रयत्न भी किया। 1975 में आपातकाल में 19 महीने नाहन की जेल में बंद कर दिया गया। जेल में आते ही बहुत परेशानी-हमने कोई अपराध नहीं किया, क्यों पकड़ा, कब छोड़ेंगे। मेरी धर्मपत्नी सरकारी नौकरी में थी। एल.टी.सी. पर भारत भ्रमण की योजना बनाई थी, बच्चे सामान बांध रहे थे। 

मैं केवल एक दिन के लिए पालमपुर से शिमला गया। जेल में कुछ दिन परेशानी में बीते, फिर एकदम गीता का विचार आया-जैसे तैसे किसी से गीता मंगवाई, पढ़ी और कुछ मित्रों से बात की और फिर आंखें बंद करके कहा -हे प्रभु तुम्हारी यही इच्छा है तो मुझे स्वीकार है जब तक चाहें जेल में रखें। मानसिक स्थिति बदली-कुछ अच्छे मित्र मिल गए और फिर 19 मास की जेल मेरे लिए एक आश्रम बन गई।  योग, प्राणायाम किया, स्वास्थ्य बनाया, पूरा वेदांत पढ़ा-स्वाध्याय किया और जेल की उस कोठरी में रहते हुए 3 पुस्तकें लिखीं।

अंग्रेज की अदालत में भगत सिंह पर मुकद्दमा चल रहा था। उन्हें पता था फांसी की सजा होगी। परन्तु भगत सिंह बड़ी मस्ती में खड़े कार्रवाई को सुन रहे थे। किसी बात पर उन्हें हंसी आई। वे खिलखिला कर हंस पड़े। सरकारी वकील ने कहा-जज महोदय अपराधी ने इस प्रकार हंस कर अदालत का अपमान किया है। सबसे पहले उसे सजा दी जाए। 

सब चुप हो गए। भगत सिंह बोले जज महोदय, इससे पहले कि आप निर्णय दे मैं आप से एक सवाल का जवाब चाहूंगा। अदालत में मौन छा गया। सब भगत सिंह की ओर देखने लगे।  भगत सिंह अपना हाथ ऊंचा उठा कर कहने लगे-जज महोदय आज मैं आपकी अदालत में हंस रहा हूं तो सरकारी वकील आपसे मेरी शिकायत कर रहे हैं परन्तु कल जब मैं फांसी के तख्ते पर चढ़ कर इसी प्रकार हंसूंगा तो कौन किसे शिकायत करेगा। अदालत में मौन छा गया। ऐसा लगा कि समय भी ठहर गया हो। किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। मैंने उन युवा मित्रों से कहा-यदि हमारे भारत का भगत सिंह फांसी के फंदे पर चढ़ कर भी मुस्कुरा सकता है तो हम जीवन की छोटी बड़ी विफलताओं पर हार क्यों मानते हैं-मुस्कुराने की कोशिश क्यों नहीं करते। खुशी के और भी बड़े कारण हो सकते हैं। हम जीवन में लेना ही नहीं सीखें, देना भी सीखें-समाज के लिए जीना भी सीखें। किसी दीन-दुखी की आंखों के आंसू पोंछने की कोशिश करें-बहुत बड़ी खुशी मिलेगी। 

मन:स्थिति सकारात्मक हो तथा अपने सिद्धांतों के अनुसार जीवन जीने का आग्रह हो तो जीवन की किसी भी स्थिति में हम खुश रह सकते हैं। मैं 1980 में मुख्यमंत्री था। देश की परिस्थिति बदली। कांग्रेस फिर से आई-हिमाचल में दलबदल होने लगा। मुझ पर दबाव पड़ा। जैसे-तैसे सरकार बचाई जाए। मैंने निर्णय किया-दलबदल और छल-कपट से सरकार नहीं बचाऊंगा। बहुत से विधायक पार्टी छोड़ गए। बहुमत थोड़ा रह गया। एक दिन एक मंत्री और कुछ मित्र सोलन के एक बड़े उद्योगपति को लेकर मेरे पास आए और कहने लगे कि 8 विधायक हमारी पार्टी में आने को तैयार है इन्होंने पूरा प्रबंध कर लिया है।

उद्योगपति कहने लगे अधिक नहीं केवल 20 लाख में काम हो जाएगा। आप चिन्ता न करें। मैं सब चुपचाप सुनता रहा। मित्र ने पूछा कि आप सरकार बचाना नहीं चाहते, मुख्यमंत्री नहीं रहना चाहते।  मैंने कहा-रहना चाहता हूं लेकिन इस प्रकार नहीं। लम्बी बातचीत के बाद मैंने अंत में कहा-मैं जिंदा मांस का व्यापारी नहीं हूं। मित्र परेशान हुए, हैरान हुए और नाराज होकर चले गए।  दूसरे दिन हमारी पार्टी अल्पमत में आ गई। मैं सीधा राज्यपाल के पास गया और त्याग पत्र दे दिया। शिमला में शोर मच गया, घर वापस पहुंचा कुछ मंत्री और पत्रकार इकट्ठे हो गए। एक पत्रकार ने पूछा-त्यागपत्र दे दिया अब क्या करोगे। मैंने मुस्कुरा कर उत्तर दिया अब मैं सीधा सिनेमा देखने जा रहा हूं। सब हैरान परेशान कहने लगे यह मजाक क्यों कर रहे हो। मैंने कहा वो देखो टिकट आ गए हैं आप मेरे साथ चल सकते हो। कुछ मंत्रियों के साथ मैं रिज में सिनेमा हाल में चला गया। देखने वाले हैरान परेशान थे।  

मालरोड पर दुकान करने वाले मेरे एक प्रिय मित्र रोते हुए सिनेमा हाल में चले आए। मैंने कहा था-देखो हमने शानदार तरीके से चुनाव लड़ा, शान से सरकार चलाई, बहुमत नहीं रहा तो शान से त्यागपत्र देकर शान के साथ सिनेमा देखने आ गया। दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी। प्रात:काल ही दिल्ली से श्री अडवानी जी ने फोन पर कहा-शाबाश बहुत मजा आ गया -कौन सी पिक्चर थी-मैंने भी हंसते हुए उत्तर दिया ‘जुगनू’ देखी-मुझे भी बहुत मजा आया। 

42 साल पहले उस दिन को याद करता हूं तो आज भी गर्व और खुशी से झूम उठता हूं। मुझे याद है मुख्यमंत्री न रहने का न तब मुझे कोई मलाल था न आज कोई दुख है। मैंने कत्र्तव्य का पालन किया। सिद्धांतों से समझौता नहीं किया-उसके बाद जो भी मिला उसे मुस्कुराते हुए स्वीकार किया और त्यागपत्र देकर सीधा सिनेमा देखने पहुंच गया।-शांता कुमार (पूर्व मुख्यमंत्री हि.प्र. और पूर्व केन्द्रीय मंत्री)


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