भाग्य से पुण्य और यश-सम्मान

Sunday, Mar 01, 2015 - 03:23 PM (IST)

उव्र्या कोऽपि महीधरो लघुतरो दोभ्र्या धृतो लीलया, तेन त्वं दिवि भूतले च सततं गोवर्धनो गीयसे।
त्वां त्रैलोक्यधरं वहामि कुचयोरग्रेण तद्गण्यते।किं या केश भाषणेन बहुना पुण्यैर्यशो लभ्यते।।


अर्थ : श्री कृष्ण को उलाहना देती हुई गोपी कहती है कि हे कन्हैया ! तुमने एक बार गोवर्धन नामक पर्वत को क्या उठा लिया कि तुम इस लोक में ही नहीं, परलोक में भी गोवर्धनधारी के रूप में प्रसिद्ध हो गए, परंतु आश्चर्य तो इस बात का है कि मैं तीनों लोकों के स्वामी अर्थात तुम्हें अपने हृदय पर धारण किए रहती हूं और रात-दिन मैं तुम्हारी  चिंता करती हूं, पर मुझे कोई त्रिलोकधारी जैसी पदवी नहीं होती ।।19।।

भावार्थ : भाव यह है कि यश-सम्मान तो पुण्य और भाग्य से ही प्राप्त होता है। 

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