-क्या डब्‍लूएचओ की प्रासंगिकता प्रमुख सदस्यों के बाहर निकलने से खत्म हो रही है? क्या भारत अपनी स्थिति पर दोबारा विचार करेगा?

punjabkesari.in Sunday, Apr 20, 2025 - 10:48 AM (IST)

चंडीगढ़। दुनिया भर में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्‍लूएचओ) के भरोसे का फिर से मूल्‍यांकन किया जा रहा है। इस संस्था से अलग होने के संयुक्त राज्य अमेरिका के फैसले ने इसे एक महत्वपूर्ण मोड़ पर ला खड़ा किया है। इसके चलते अर्जेंटीना, हंगरी और रूस जैसे देशों को डब्‍लूएचओ के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया है। आलोचकों का कहना है कि डब्‍लूएचओ अब एक तटस्थ स्वास्थ्य संगठन के रूप में काम नहीं कर रहा है, बल्कि कुछ शक्तिशाली दानदाताओं और बाहरी हितधारकों की कठपुतली मात्र बन गया है।

यह स्थिति एक बड़ी समस्या की ओर इशारा कर रही है : वह है एक ऐसी वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली जो अक्सर जरूरतमंद देश की वास्तविक जरूरतों को दरकिनार कर देती है, सही जरूरत के मुताबिक नीति निर्धारण नहीं करती तथा व्यावहारिक परिणामों की तुलना में विचारधारा को अधिक महत्व देती है। भारत जैसे देश के लिए,  जहां 1.4 अरब लोग अलग-अलग तरह की स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, इस तरह की नीतियां एक बड़ी बाधा हैं। भारत के पास अपनी राह खुद तय करने का एक बेहतर ट्रैक रिकॉर्ड है। एचआईवी/एड्स संकट के दौरान भारत किफायती जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराने के लिए बहुराष्ट्रीय दबाव के खिलाफ मजबूती से खड़ा रहा और इन दवाओं तक वैश्विक पहुंच को फिर से परिभाषित किया। भारत का पोलियो अभियान देश की अपनी जरूरत के मुताबिक किए गए नवाचार और सामुदायिक नेतृत्व वाली पहुंच के कारण सफल हुआ, न कि बाहर से थोपे गए तरीकों के कारण। इसी तरह कोविड-19 महामारी के दौरान, भारत ने न केवल अपना खुद का डिजिटल टीकाकरण प्लेटफ़ॉर्म (CoWIN) विकसित किया, बल्कि वैक्सीन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए TRIPS छूट के लिए वैश्विक मांग का भी नेतृत्व किया। ये सिर्फ़ स्वास्थ्य संबंधी सफलता की कहानियां नहीं हैं, बल्कि ये स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक देश की संप्रभुता के लिए ब्लूप्रिंट हैं।

तम्बाकू नियंत्रण के मामले में इस बात को और अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है, जहां वैश्विक नीति काफी हद तक दानदाताओं की इच्छा पर आधारित हो गई है। अमेरिका के बाहर निकलने के बाद, बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन और ब्लूमबर्ग फिलैंथ्रोपीज दुनियाभर में तंबाकू नियंत्रण के सबसे बड़े वित्तपोषक के रूप में उभरे हैं, यहां तक कि इन्होंने चीन जैसे प्रमुख सरकारी दानदाता को भी पीछे छोड़ दिया है।  गेट्स फाउंडेशन ने 2005 से अब तक 616 मिलियन डॉलर और ब्लूमबर्ग फिलैंथ्रोपीज ने 1.58 बिलियन डॉलर का योगदान दिया है। भारत की तम्बाकू नीति से यह पता चलता है कि यह वैश्विक असंतुलन वास्तव में किस प्रकार अपना असर दिखा रहा है। 267 मिलियन से अधिक तम्बाकू के आदी लोगों के साथ, जिनमें से कई धुंआरहित या दूसरे अनौपचारिक उत्पादों का प्रयोग करते हैं, भारत दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे विविधता भरी तम्बाकू उपयोगकर्ता आबादी वाले देशों में से एक है। इस जटिल स्थिति के बावजूद, पिछले दशक में भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के तंबाकू नियंत्रण के लिए बने फ्रेमवर्क कन्वेंशन (FCTC) के अंतर्गत अनेक ऐसी नीतियां अपनाई हैं जो अक्सर भारत की अपनी स्थानीय जरूरतों के बजाय बाहरी हितों से प्रभावित होती हैं। इसके नतीजे काफी निराशाजनक रहे हैं। एक तरफ भारत तम्बाकू पर लागू करों से सालाना 76,000 करोड़ रुपये से अधिक कमाता है,  वहीं, 2024-25 में धूम्रपान छोड़ने के लिए केवल 5 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। यह इस समस्या के आकार और इससे निपटने के लिए किए जा रहे प्रयास के बीच एक बड़े अंतर को दर्शाता है। स्थिति यह है कि नियमों को ठीक से लागू नहीं किया जाता, सपोर्ट सिस्टम अविकसित हैं तथा कम जोखिम वाले विकल्पों को अपनाया नहीं जाता - भले ही उनके पक्ष में वैज्ञानिक प्रमाण बढ़ रहे हों। नीतियों और परिणामों के बीच यह अंतर एक बड़ा सवाल खड़ा करती है: वह है, क्या वैश्विक तंबाकू नियंत्रण ढांचे भारत के सार्वजनिक स्वास्थ्य लक्ष्यों को पर्याप्त रूप से पूरा कर रहे हैं - या केवल एक एक ऐसे मानक को लागू कर रहे हैं जो कुछ लोगों को फायदा पहुंचाता है और जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करता है?

प्रोफेसर डॉ कॉन्‍सटैनटिनोस फर्सालिनोस, कार्डियोलॉजिस्‍ट और सबसे ज्‍यादा कोट किए जाने वाले हार्म रिडक्‍शन शोधकर्ता  ने कहा, "आज भी दुनिया में 1.2 बिलियन धूम्रपान करने वाले हैं और भारत और ब्राज़ील जैसे बड़े देश जोखिम घटाने की रणनीति में शामिल होने के अवसर से वंचित हैं। धूम्रपान करने वालों को कम हानिकारक विकल्पों के उनके अधिकार से वंचित करना एक गंभीर मुद्दा है। इसका विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि विज्ञान बिल्कुल स्पष्ट है। इससे कई नैतिक सवाल उठते हैं कि धूम्रपान करने वालों को वह क्यों नहीं दिया जाता जिसकी उन्हें ज़रूरत है और जिसके वे हकदार हैं।"

भारत एक आत्मनिर्भर देश की परिकल्पना को साकार करने की ओर आगे बढ़ रहा है।  इस आत्मनिर्भरता को सार्वजनिक स्वास्थ्य नीति के विकास तक आगे बढ़ाया जाना चाहिए। इसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य से जुड़ी प्राथमिकताओं को तय करने में ग्लोबल साउथ का प्रतिनिधित्व करने के लिए अधिक मजबूत आवाज उठाने की वकालत करना, अधिक लचीले और संदर्भों से जुड़े कार्यान्वयन एजेंडा को प्रोत्साहित करना शामिल है। भारत को यह मांग करनी चाहिए कि वैश्विक वित्तपोषण सिस्टम, राष्ट्रीय विशेषज्ञता और जरूरतों को नजरअंदाज करने के बजाय  उनका पूरक बने। इसके अलावा, विशेष रूप से तम्बाकू निवारण, हानि में कमी और सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देने जैसे घरेलू सार्वजनिक स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर में सार्थक निवेश करना चाहिए। इस प्रयास में भारतीय उद्योग जगत, अनुसंधान संस्थानों, नागरिक समाज और सरकारी स्वास्थ्य प्रणालियों का भी सहयोग लिया जाना चाहिए ताकि भारत की वास्तविक जरूरतों पर आधारित सचेत और स्‍थायी समाधान तैयार किए जा सके।

इस समय दुनिया और भारत भी एक ऐसे चौराहे पर हैं, जहां से उनको अपने रास्ते चुनने हैं। यहां सवाल बहुपक्षीय मंच से दूर होने का नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी नेतृत्वकारी भूमिका निभाने का सवाल है जो बेहतर ढंग से दर्शाता है कि हम कौन हैं और हमें क्या चाहिए। यदि वैश्विक मंचों को वास्तव में ग्लोबल साउथ की सेवा करनी है, तो उन्हें उन लोगों द्वारा आकार दिया जाना चाहिए जो इसमें रहते हैं और नेतृत्व करते हैं। इस बदलाव की शुरुआत करने के लिए अभी से बेहतर कोई समय नहीं है और भारत से बेहतर कोई देश नहीं है।


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Content Editor

Diksha Raghuwanshi

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