गर्भस्थ शिशु भी होते हैं बोन फ्रैचर के शिकार

punjabkesari.in Monday, Jun 08, 2020 - 11:20 AM (IST)

चंडीगढ़ (अर्चना सेठी): गर्भस्थ शिशु भी फ्रैक्चर का शिकार हो जाते हैं। मां के गर्भ में कई बच्चों की हड्डियां बुरी तरह से टूट जाती हैं। ऐसे बच्चों की टूटी हड्डियों की अगर गर्भावस्‍था में पहचान हो जाए तो, ऐसे बच्चों के जन्म लेते ही ऐसे इंजैक्शन दिए जा सकते हैं जो हड्डियों कौ कमजोरी को कम सकते हैं । पी.जी. आई. के शिशु रोग विभाग की वंशानुगत रोगों से लड़ने वाली विंग काकहना है कि बच्चों की फ्रैक्चर हड्डियों के लिए जीन्स जिम्मेदार होते हैं।

 

ऐसी कई जीन्स की पहचान की गई जो गर्भस्थ हे की हड्डियों को फ्रैक्चर कर देती है। पैदा होने के बाद ऐसे बच्चे घर से बाहर भी नहीं निकल\ पाते।हल्का से छूने पर ही उनकी हड्डियां टूट जाती हैं ।पी.जी. आई. में 40 के करीब उत्तरी भारत के ऐसे बच्चे ट्रीटमैंट ले रहे हैं, जिनकी हड्डियां लगातार फ्रैक्चर होती रहती हैं। सिर्फ इतना ही नहीं 5 के करीब ऐसे गर्भस्थ शिशुओं की भी 'पी.जी.आई. ने पहचान की है, जिनकी माँ की गर्भ में ही हड्डियां फ्रैक्चर हो गई थीं।

 

फ्रैक्चर  हड्डियों वाले बच्चों का कद रह जाता है छोटा
पी.जी.आई. के शिशु रोग विभाग की जैनेटिक एसपर्ट प्रो. इनूषा पानिग्राही का कहना है कि कुछ बच्चे ओसटियोजैनेसिस इंपरफैटा के शिकार हो जाते हैं। पहले ऐसे बच्चे लगातार हड्डियां टूटने के बाद इलाज के लिए पी.जी.आई. आते थे। 

 

ऐसे बच्चों की हाइट चार फुट से ज्यादा बढ़ नहीं पाती परंतु अब ऐसे बच्चों की मां के गर्भ में ही पहचान करना शुरू कर दी गई है, पाया है कि मां के गर्भ में भी बच्चों की हड्डियां फ्रैचर हो जाती हैं। अगर ऐसे बच्चों की जानकारी गर्भावस्था के 12 से 16 सप्ताह के बीच मिल जाए तो अबॉर्शन करवा दिया जाता है परंतु अगर गर्भ के 20 सप्ताह के बाद ऐसे विकार का पता चले तो ऐसे बच्चे को जन्म देना ही पड़ता है। 

 

नियमित तौर पर इंजैशन देना पड़ते हैं
जन्म के बाद बच्चे के फ्रैचर कम करने के लिए उसे नियमित तौर पर इंजैशन देना पड़ते हैं। अगर ऐसे बच्चों को नियमित तौर पर इलाज ना मिले तो बीमारी बहुत गंभीर हो जाती है। मां बच्चे को गोद में उठाएगी तो बच्चे की हड्डियां टूट जाएंगी। बच्चे को पालने के लिए गोद में उठाना भी जरूरी है लेकिन अगर हड्डियां टूटने लगेंगी तो बच्चे को पालना भी चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। 

 

प्रो. पानिग्राही का कहना है कि गर्भस्थ शिशु के अल्ट्रासाऊंड के बाद बच्चे के जैनेटिक टैस्ट कर विकार देने वाले जीन की पहचान भी कर ली जाती है। प्रो. इनूषा पानिग्राही का कहना है कि ऐसे कुछ बच्चों का रिब केज (फेफड़ों को सुरक्षा देने वाली हड्डियां) टूट जाता है, टांग और बाजू की हड्डियां टूट जाती हैं। ऐसी बीमारी के लिए 80 प्रतिशत बच्चे जहां जींस के विकार से ग्रस्त होते हैं तो 20 प्रतिशत बच्चों में जीन्स विकार के साथ विटामिन डी की कमी भी होती है।


दूसरे बच्चे में भी 32 प्रतिशत विकार का रहता है खतरा
प्रो. इनूषा का कहना है कि ऐसे बच्चों की मांओं को संबंधित जीन विकार की पहचान करना बहुत जरूरी है योंकि पहले ऐसे विकार के साथ जन्म लेने वाले बच्चे के दूसरे भाई या बहन के इसी विकार से ग्रस्त होने की 32 प्रतिशत संभावना होती है। पी.जी.आई. ने ऐसे 10 के करीब बच्चों की गर्भावस्था में पहचान करने के बाद उनके जन्म को रोका है लेकिन जो बच्चे इस विकार के साथ पैदा हुए हैं उनका इलाज भी पी.जी.आई. के पास है और जल्द ही पी.जी.आई. में ऐसे गर्भस्थ शिशुओं का इलाज करने के लिए ट्रायल भी किए जाएंगे। गर्भस्थ शिशु में ऐसे विकारों के लिए डब्ल्यू .एन.टी. 1, सी.आर. पैप, जन्म के बाद ऐसे विकारों के लिए कोलैजन जीन डिफैट जिम्मेदार होते हैं।


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pooja verma

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