दिमाग की नस फटने पर नहीं करनी पड़ेगी ओपन सर्जरी

Tuesday, Oct 10, 2017 - 09:49 AM (IST)

चंडीगढ़ (रवि): एनरिज्म में मरीज के दिमाग की नसें कमजोर होकर फूल जाती हैं जिसकी वजह से नसें फट जाती है। इन मरीजों का इलाज अब तक ओपन सर्जरी के सहारे ही किया जा रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से पी.जी.आई. में इन मरीजों का इलाज एक नई तकनीक के जरिए किया जा रहा है। पी.जी.आई. न्यूरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष डा. विवेक लाल की मानें तो एंडोवैस्कुलर तकनीक न सिर्फ इन मरीजों को अच्छा इलाज दे रही है, बल्कि इस तकनीक ने ओपन सर्जरी के दौरान होने वाले रिस्क फैक्टर्स को भी कम कर दिया है। 

 

डा. लाल की मानें 30 से 40 वर्ष पहले पी.जी.आई. समेत दुनिया भर में एनरिज्म का इलाज ओपन सर्जरी से किया जा रहा है। जिसमें दिमाग की हड्डी को हटाकर डैमेज नस पर एक क्लिप लगाया जाता है जो इसका एक स्टैंडर्ट ट्रीटमैंट है। लेकिन एंडोवैस्कुलर टैक्नीक में उसी तरह काम किया जाता है जैसे कि हार्ट में स्टंटिंग के दौरान किया जाता है। इसमें बिना बड़े कट लगाए तारों की मदद से दिमाग की नसों तक पहुंचा जाता है। 


 

90 प्रतिशत नस फटने के बाद पहुंचते हैं अस्पताल 
एनरिज्म एक जन्मजात होने वाली है जिसमें उम्र के साथ-साथ व्यक्ति की दिमाग में मौजूद नसें कमजोर होने लगती है। 50 से 70 वर्ष की उम्र के लोगों में यह आमतौर पर पाई जाती है। लेकिन बहुत से मामलों में बच्चों में भी यह बीमारी देखने को मिलती है। कई रिसर्च में यह भी सामने आया है कि जन्मजात इस बीमारी में स्मोकिंग व ब्लड प्रैशर इसके रिस्क फैक्टर को बढ़ा देते हैं। इस बीमारी की सबसे खतरनाक बात यह है कि जब तक व्यक्ति की नस नहीं फट जाती तब तक इस बीमारी का पता नहीं चलता है। 

 

इस बीमारी के शुरूआती लक्षण नहीं है लेकिन जब नस फट जाती है तो बहुत ही गंभीर सिर दर्द होता है जिसमें कई बार मरीज बेहोश व उल्लिया होने लगती है। डाक्टर्स की मानें तो बाहर के देशों में 30 की उम्र की बाद लोग स्क्रीङ्क्षनग (एम.आर.आई.) करवाते रहते हैं जिसके कारण नस फटने से पहले उनका ट्रीटमैंट शुरू हो जाता है। वहीं भारत में 90 प्रतिशत मरीजों की नस फटने के बाद ही इलाज किया जाता है। 30 प्रतिशत लोग अस्पताल तक ही नहीं पहुंच पाते हैं, जिसके कारण 60 से 70 प्रतिशत मरीज ही बच पाते हैं।

 

कम रिस्क फैक्टर
नॉर्थ में एम्स व पी.जी.आई. दो ऐसे अस्पताल है जहां मरीजों को यह ट्रीटमैंट मिल रहा है। डा. लाल की मानें तो भले ही एम्स में भी यह टैक्नीक मौजूद है लेकिन पी.जी.आई. एम्स से ज्यादा सर्जरी कर चुका है। पिछले वर्ष पी.जी.आई. ने 150 के करीब मरीजों को एंडोवैस्कुलर के जरिए इलाज दिया था। जबकि एम्स में इसका आंकड़ा 80 से 90 मरीजों का है। डा. लाल की मानें तो पहले डाक्टर्स के पास ऑप्शन नहीं था जिसकी वजह से उन्हें ओपन सर्जरी ही करनी पड़ती थी। 

 

लेकिन अब डाक्टरों के पास एक अच्छा व सफल विकल्प भी मौजूद है। दुनिया भर में जो इक्यूपमैंट इस सर्जरी में इस्तेमाल हो रहे हैं वह सारे पी.जी.आई. में भी इस्तेमाल किए जा रहे हैं। डा. लाल की मानें तो इस तकनीक की सबसे अच्छी बात यह है कि इसने ओपन सर्जरी के दौरान होने वाले रिस्क फैक्टर्स को कम कर दिया है। ओपन सर्जरी में जहां मरीजों को रिकवरी के लिए 15 से 20 दिन का वक्त लगता है। वहीं इस तकनीक ने मरीजों का अस्पताल में स्टे कम कर दिया है। मरीज को 3 से 5 दिन बाद ऑप्रेशन के बाद डिस्चार्ज किया जा सकता है। 

 

पी.जी.आई. व कई दूसरे अस्पतालों की रिसर्च में भी सामने आया है कि ओपन सर्जरी में जहां रिस्क फैक्टर 30 प्रतिशत तक रहता है। वहीं इस नई तकनीक में रिस्क फैक्टर कम करके 10 प्रतिशत तक कर दिया है। लोगों को इस ट्रीटमैंट के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। अगर इसमें आने वाले खर्च की बात करें तो जहां ओपन सर्जरी में 1 लाख रुपए तक का खर्च आता है तो वहीं एंडोवैस्कुलर ट्रीटमैंट में 4 से 5 लाख रुपए तक का खर्च होता है। 


 

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