भारत की स्वास्थ्य नीति पर किसका नियंत्रण? सीओपी11 की चर्चा से विदेशी दखलंदाजी पर उठे सवाल
punjabkesari.in Thursday, May 01, 2025 - 03:01 PM (IST)

चंडीगढ़। जैसे-जैसे भारत वैश्विक मंच पर अपनी भूमिका मजबूत कर रहा है, घरेलू नीतियों खासकर स्वास्थ्य नीति पर विदेशी हस्तक्षेप को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है। कृषि से लेकर डिजिटल नियमों तक, भारत ने हमेशा वैश्विक नियमों को अपनी ज़रूरतों के अनुसार ढालने की कोशिश की है। ऐसे में, वर्ष के अंत में होने वाले डब्ल्यूएचओ फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल (एफसीटीसी) के सीओपी11 सम्मेलन की तैयारी करते समय, इस सोच को वैश्विक स्वास्थ्य नीति में भी स्थान देना बेहद ज़रूरी हो गया है।
चिंता की बात यह है कि अब एफसीटीसी की प्रक्रिया पूरी तरह वैज्ञानिक तथ्यों या वैश्विक सहमति पर आधारित नहीं रह गई है। इसके बजाय, कुछ प्रभावशाली अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ), जिन्हें निजी परोपकारी फंड से भारी वित्तीय सहायता मिलती है, इस प्रक्रिया पर जरूरत से ज्यादा प्रभाव डाल रहे हैं। उनकी नीतियां कई बार ऐसे नियम तय करती हैं, जो न तो आम जनता की राय से गुजरती हैं, न ही किसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करती हैं।
इसका असर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में साफ दिख रहा है। पाकिस्तान में स्टेट बैंक ने दो एनजीओ — कैंपेन फॉर टोबैको-फ्री किड्स और वाइटल स्ट्रैटेजीज़ — के बैंक खाते बंद कर दिए, क्योंकि वे बिना वैध पंजीकरण के कार्यरत थे। ये संगठन ब्लूमबर्ग की फंडिंग से चलते थे। फिलीपींस में सांसदों ने चेतावनी दी कि विदेशी फंड प्राप्त समूह देश की नियामक संस्थाओं को प्रभावित कर रहे हैं। भारत में, दिल्ली सरकार ने एक ब्लूमबर्ग समर्थित एनजीओ को विदेशी फंडिंग का ब्योरा न देने पर निलंबित कर दिया, जिससे पारदर्शिता और कानून के पालन को लेकर गंभीर सवाल उठे हैं।
ये घटनाएं कुछ अहम सवाल खड़े करती हैं — सार्वजनिक स्वास्थ्य के नाम पर असल में किसके हित साधे जा रहे हैं? नीतियों के निर्धारण में किसके आंकड़े इस्तेमाल हो रहे हैं? और क्या भारत जैसे देशों की राय वास्तव में सुनी जा रही है, या उनसे सिर्फ नियमों का पालन करवाया जा रहा है?
तंबाकू नियमन का विषय इन सबमें सबसे गंभीर है। भारत में तंबाकू का प्रभाव बहुत व्यापक है — 30 करोड़ से अधिक लोग इसका सेवन करते हैं और हर साल करीब 13.5 लाख लोग तंबाकू जनित बीमारियों से मौत के शिकार होते हैं। इस स्थिति में त्वरित कार्रवाई ज़रूरी है, लेकिन नियम ऐसे होने चाहिए जो भारत की उपभोग की आदतों, सामाजिक-आर्थिक हालात और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए बनाए जाएं।
इंटीग्रेटेड हार्म रिडक्शन से जुड़े रेज़िडेंट सीनियर फेलो जेफ्री स्मिथ ने हाल ही में एक शोधपत्र में लिखा, “यह एक कड़वी सच्चाई है कि मौजूदा तंबाकू नीतियां लोगों को तंबाकू छोड़ने के लक्ष्य को पूरा करने में विफल रही हैं।”
इसके उलट, वैश्विक नीति ढांचे अधिकतर सभी तरह के तंबाकू उत्पादों पर पूर्ण प्रतिबंध की वकालत करते हैं — जिसमें वे नए विकल्प भी शामिल हैं जो धूम्रपान या चबाने वाले तंबाकू के नुकसान को कम करने में सहायक हो सकते हैं। जबकि बीड़ी और स्मोकलेस टोबैको जैसे अधिक हानिकारक उत्पादों पर ध्यान अपेक्षाकृत कम दिया जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि नीतियां न तो जोखिम की गंभीरता के अनुरूप होती हैं और न ही ज़मीनी सच्चाई से मेल खाती हैं।
दुनिया के कई देश अब इस सोच पर पुनर्विचार कर रहे हैं। स्वीडन, इंडोनेशिया, मलेशिया और यूएई जैसे देश ऐसे नियामकीय मॉडल को अपना रहे हैं जो नवाचार, उपभोक्ता जागरूकता और बेहतर अनुपालन के जरिए नुकसान को कम करने पर केंद्रित हैं। लेकिन भारत अभी भी एक सख्त रुख अपनाए हुए है, जो आंकड़ों से ज्यादा वैश्विक दबाव से संचालित लगता है।
स्मिथ कहते हैं, “अगर तंबाकू उपयोगकर्ताओं को बेहतर विकल्प उपलब्ध कराने वाली नीतियां नहीं बनाई गईं, तो भारत में तंबाकू से होने वाले स्वास्थ्य जोखिमों को कम करना बेहद मुश्किल होगा।”
सीओपी11 जैसे वैश्विक मंच पर भारत के पास न सिर्फ एक अहम मौका है, बल्कि एक बड़ी ज़िम्मेदारी भी है कि वह एफसीटीसी प्रक्रिया में भरोसा फिर से बहाल करने में भूमिका निभाए। इसके लिए ज़रूरी है कि—
• बातचीत पारदर्शी हो,
• वैश्विक दक्षिण (ग्लोबल साउथ) की आवाज़ को शामिल किया जाए, और
• वैज्ञानिक शोध व व्यावहारिक नियामकीय उपायों को महत्व दिया जाए।
भारत पहले भी असंतुलित वैश्विक नियमों को चुनौती देता रहा है — चाहे वह डिजिटल नीति में डेटा संप्रभुता और उपयोगकर्ता अधिकारों की बात हो या कोविड-19 के दौरान राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के बीच संतुलन बनाने की रणनीति।
अब यही स्पष्ट और दृढ़ दृष्टिकोण भारत को तंबाकू नियंत्रण और स्वास्थ्य नीति में भी अपनाना होगा। अगर डब्ल्यूएचओ एफसीटीसी को आज भी प्रासंगिक रहना है, तो उसे भारत जैसे देशों की वास्तविकताओं को समझना और स्वीकार करना होगा। भारत को अपनी नीतियां भारतीय विज्ञान, भारतीय संस्थानों और भारतीय ज़रूरतों के अनुसार बनानी होंगी। तभी वह अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की बेहतर रक्षा कर सकेगा और वैश्विक जनहित में नेतृत्वकारी भूमिका निभा पाएगा।