सीएपीएचआरए की चेतावनी: डब्ल्यूएचओ की तंबाकू नियंत्रण नीति भारत के लिए बड़ा खतरा – यह संप्रभुता, आजीविका और जनस्वास्थ्य के अधिकार का संकट है
punjabkesari.in Friday, Jun 27, 2025 - 01:17 PM (IST)

चंडीगढ़। एशिया पैसिफिक टोबैको हार्म रिडक्शन एडवोकेट्स (सीएपीएचआरए) ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की तंबाकू से हानि कम करने के खिलाफ नई नीति को लेकर गंभीर चिंता जताई है। संगठन का कहना है कि यह नीति कई वर्षों के वैज्ञानिक प्रमाणों को नकारती है और भारत जैसे देशों को अत्यधिक नुकसान पहुंचा सकती है, जहां हालात अमीर देशों की तुलना में कहीं अधिक जटिल और संवेदनशील हैं।
भारत, जहां विश्व में सबसे अधिक तंबाकू उपयोगकर्ता हैं, एक विशिष्ट और विविध तंबाकू परिदृश्य से जूझ रहा है। पश्चिमी देशों की तरह केवल सिगरेट तक सीमित न होकर, यहां 20 करोड़ से अधिक लोग धूम्ररहित तंबाकू का उपयोग करते हैं, करोड़ों लोग बीड़ी पीते हैं और लगभग 4.5 करोड़ लोगों की आजीविका इस क्षेत्र से जुड़ी हुई है। इनमें किसान, बीड़ी बनाने वाले, छोटे दुकानदार और ग्रामीण महिलाओं द्वारा संचालित छोटे उद्यम शामिल हैं।
सीएपीएचआरए का मानना है कि यदि उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करते हुए सुरक्षित निकोटीन उत्पादों के निर्माण की दिशा में बदलाव किया जाए, तो न केवल इन करोड़ों आजीविकाओं की रक्षा की जा सकती है, बल्कि दहनशील और नुकसानदेह मौखिक उत्पादों के कारण होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को भी कम किया जा सकता है।
सीएपीएचआरए की कार्यकारी समन्वयक नैन्सी लूकास ने कहा, “यह केवल एक स्वास्थ्य नीति में चूक नहीं है, बल्कि समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लिए एक आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी खतरा है। डब्ल्यूएचओ की यह नई नीति, जो दाताओं के प्रभाव में केवल प्रतिबंधात्मक उपायों को प्राथमिकता देती है, मैनहट्टन या ओस्लो जैसे शहरों में भले ही कारगर हो, लेकिन मुंगेर या मालदा जैसे भारतीय शहरों में यह असमानता को और बढ़ा सकती है और देश की नीति निर्धारण की स्वतंत्रता को कमजोर कर सकती है।”
गौरतलब है कि पहले डब्ल्यूएचओ तंबाकू नियंत्रण के लिए तीन प्रमुख स्तंभों – रोकथाम, निवारण और हानि न्यूनीकरण – के सिद्धांत का समर्थन करता था। उसका अपना टोबैको रेगुलेशन ग्रुप (TobReg) यह मान चुका है कि यदि ई-सिगरेट और हीटेड तंबाकू उत्पादों को सही ढंग से रेगुलेट किया जाए, तो ये उन लोगों के लिए जीवनरक्षक साबित हो सकते हैं जो तंबाकू छोड़ नहीं पा रहे हैं या छोड़ना नहीं चाहते।
हालांकि, हाल के वर्षों में ब्लूमबर्ग फिलैंथ्रॉपीज और गेट्स फाउंडेशन जैसे दानदाताओं के बढ़ते प्रभाव के चलते डब्ल्यूएचओ ने नवाचार-विरोधी और निषेध आधारित एजेंडे की ओर रुख किया है, जिससे वे उपकरण और उपाय कमजोर पड़ रहे हैं जो कभी वैश्विक तंबाकू नियंत्रण में आशा की किरण माने जाते थे।
सीएपीएचआरए का कहना है कि डब्ल्यूएचओ की यह नीति बदलाव एक खतरनाक वैश्विक दोहरे मापदंड को दर्शाता है। जहां जापान और स्वीडन जैसे देशों में वैध और सुरक्षित विकल्पों की वजह से धूम्रपान की दरों में भारी गिरावट आई है, वहीं अब डब्ल्यूएचओ निम्न और मध्यम आय वाले देशों को उन्हीं विकल्पों पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दे रहा है, जिनसे अन्य देश सफलता प्राप्त कर रहे हैं।
यदि डब्ल्यूएचओ की यह नीति वास्तव में विज्ञान और स्वास्थ्य समानता पर आधारित है, तो फिर वह अमेरिका, ब्रिटेन या जापान जैसे उच्च आय वाले देशों में इन विकल्पों को प्रतिबंधित करने में विफल क्यों रहा है? सच्चाई यह है कि उन देशों में ऐसे प्रतिबंध न तो राजनीतिक रूप से संभव हैं, न आर्थिक रूप से व्यावहारिक, और न ही सामाजिक रूप से स्वीकार्य।
ऐसे में सवाल उठता है कि फिर भारत जैसे देशों पर इस तरह की अव्यावहारिक नीतियों को क्यों थोपा जा रहा है, जहां न तो पर्याप्त संसाधन हैं, न ही प्रभावी प्रवर्तन की व्यवस्था, और जहां इनके सामाजिक और आर्थिक दुष्परिणाम कहीं ज़्यादा गंभीर हो सकते हैं?
भारत उन देशों में से है जो ऐसे प्रतिबंधों के अप्रत्याशित परिणामों से निपटने के लिए सबसे कम तैयार हैं। यहां सार्वभौमिक तंबाकू छोड़ने का समर्थन तंत्र सीमित है और सार्वजनिक स्वास्थ्य का ढांचा भी कमजोर है। ऐसे में डब्ल्यूएचओ की यह सिफारिशें न सिर्फ अव्यावहारिक हैं, बल्कि सक्रिय रूप से नुकसानदेह भी हैं।
ऐसी स्थिति में प्रतिबंध लगाने से न केवल अवैध व्यापार को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि कर राजस्व का भी नुकसान होगा, और उपभोक्ता अधिक खतरनाक और अनियंत्रित उत्पादों की ओर जाने को मजबूर हो सकते हैं।
भारत इस समय नवाचार की राह पर है, लेकिन डब्ल्यूएचओ की प्रतिबंधात्मक नीतियाँ इस राह में बाधा बन रही हैं। 'आत्मनिर्भर भारत' जैसी प्रमुख नीतियों के अंतर्गत भारत के पास यह क्षमता है कि वह तंबाकू के हानिकारक उत्पादन से सुरक्षित, विज्ञान-आधारित उत्पादों की ओर कदम बढ़ाए—जो वैश्विक बाज़ार में भारत को अग्रणी बना सकते हैं और आर्थिक विकास में भी योगदान दे सकते हैं।
लेकिन डब्ल्यूएचओ की मौजूदा नीति इस संभावित बदलाव को बाधित करती है और उस नवाचार को हतोत्साहित करती है जिसकी दुनिया को इस समय सबसे अधिक ज़रूरत है।
सीएपीएचआरए की कार्यकारी समन्वयक नैन्सी लूकास ने जोर देते हुए कहा, “यह सिर्फ तंबाकू का मुद्दा नहीं है, यह देश की नीति स्वतंत्रता, विज्ञान आधारित फैसलों और लोगों की जान बचाने का मामला है। भारत को इसका विरोध करना चाहिए। हम भारतीय नीति निर्माताओं से आग्रह करते हैं कि वे ऐसी दानदाता-प्रभावित नीतियों को खारिज करें जो हानि न्यूनीकरण के प्रमाणों को नजरअंदाज करती हैं। इसके बजाय, भारत को उपभोक्ता-केन्द्रित और विज्ञान-आधारित नीतियों को बढ़ावा देना चाहिए—जो सुरक्षित निकोटीन उत्पादों तक पहुंच को आसान बनाएं, नवाचार को प्रोत्साहन दें और आजीविकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना जनस्वास्थ्य की रक्षा करें।”