चीन की मंदी फैला सकती है वैश्विक वित्तीय संकट

Tuesday, Feb 02, 2016 - 11:34 PM (IST)

नई दिल्ली: इस बात की काफी संभावना है कि अगले कुछ वर्षों तक चीन की स्थिति कमजोर बनी रहे। भारत के लिए इसके क्या निहितार्थ हैं। इससे एक ऐसा वैश्विक वित्तीय संकट आने की आशंका है जो भारत समेत तमाम उभरते बाजारों को प्रभावित करेगा। चीन की समस्या वैश्विक कारोबारी कीमतों पर दबाव बनाएगी। यह बात भारत में कारोबारी उत्पादकों के लाभ को प्रभावित करेगी जबकि खरीदार इससे फायदा पाएंगे। चीन मॉडल को भारत में बहुत अधिक सराहना नहीं मिलने वाली, यह बात बेहतर नीति निर्माण के लिहाज से महत्वपूर्ण है।

 
चीन में खासी निराशा का भाव है। वर्ष 2014 के मध्य से ही वहां पूंजी का पलायन बड़े पैमाने पर हो रहा है। अनुमान के मुताबिक 18 महीनों में वहां से करीब 15 खरब डॉलर की पूंजी बाहर गई है। चीन का बुर्जुआ वर्ग भविष्य को लेकर बहुत आशान्वित नहीं है। यही वजह है कि वे अपनी पूंजी और अपने परिजन को नुक्सान से दूर कर रहे हैं। इसका संबंध विनिमय दर नीति से भी है। एक वक्त जब केंद्रीय बैंक लगातार अधिमूल्यन कर रहा था तो जिस प्रकार पूंजी चीन में जा रही थी जब अधिमूल्यन के दौर में पूंजी उसी प्रकार बाहर जा रही है। 
 
चीनी कम्पनियों के दबदबे वाले बाजार होंगे ज्यादा प्रभावित 
 
चूंकि चीन का आकार इतना बड़ा है इसलिए उनकी कम्पनियों के मूल्य निर्धारण का फैसला पूरी दुनिया पर नकारात्मक असर डालता है। चीन का संकट उन देश के बाजारों में मूल्य और लाभ को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है जहां चीन की कम्पनियों का दबदबा है। भारत के लिए इसके 2 निहितार्थ हैं। हमें संरक्षणवादी उपायों में बढ़ौतरी देखने को मिलेगी। इससे कारोबारी खुलेपन की ओर हमारे 25 वर्षों के सफर को झटका पहुंचेगा। घटता हुआ लाभ देश के निजी क्षेत्र में भुगतान संतुलन के संकट को बढ़ावा देगा।
 
चीन की मंदी का यह उठा सकते हैं लाभ
 
इसके साथ ही विभिन्न फर्म और उद्योग धंधे जो ये सस्ती कारोबार योग्य वस्तुएं खरीदते हैं, उनको लाभ होगा। दीर्घकालिक नजरिया रखने वाले लोगों के लिए यह एक अच्छा अवसर है ऐसी वस्तुओं का भंडारण करने का। उदाहरण के लिए अगर कोई फर्म चीनी मशीनी उपकरणों की असैंम्बली लाइन तैयार करना चाहती है तो उसके लिए अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने का यह सही समय है। इसलिए कि वर्ष 2016-2017 में इन मशीनों की कीमत खासी कम रहेगी। 
 
भारत के लिए विचार करने का समय
 
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को भी समस्याओं को लेकर विचार करना शुरू कर देना चाहिए और उन कारकों पर विचार करना चाहिए जो हमें प्रभावित कर सकते हैं। मोटे तौर पर भारत ने वर्ष 2008 के वित्तीय संकट से निपटने में अच्छा प्रदर्शन किया जबकि वर्ष 2013 के छोटे संकट से निपटने में भारत से मामूली चूक हो गई। हमें इन विरोधाभासी अनुभवों से आगे विचार करना होगा। फिलहाल जो हालात हैं उनमेंं आगे चलकर राजनीतिक दबाव और बढ़ेगा। मुद्रा में भारी गिरावट की स्थिति में कम्पनियां पुन: सरकार से चाहेंगी कि वह इस पर कोई प्रतिक्रिया प्रकट करे। 

 

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