आधुनिकता की दौड़ में संस्कृति से अलग होती युवा पीढ़ी

punjabkesari.in Thursday, May 05, 2022 - 04:19 AM (IST)

मैं एक कॉलेज में बैठा चाय पी रहा था, तभी कुछ युवा फटे कपड़े पहनकर आए। मैंने सोचा कुछ पैसे देकर सहायता करता हूं, गरीब परिवार से होंगे, लेकिन पता चला कि यह तो फैशन बन गया है। फटे कपड़े पहनना हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है, हमें बचपन से ही सादगी व सरलता तथा सहजता से जीवनयापन करना सिखाया जाता रहा है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य में केवल एक घंटे के लिए 30,000 से लेकर एक लाख रुपए या उससे भी महंगे लहंगे पहने जाते हैं, यह आधुनिकता की अंधी दौड़ नहीं तो और क्या है। 

कहा जाता है कि कोई भी पेड़ तब तक ही जीवित रह पाता है, जब तक वह अपनी जड़ों से जुड़ा रहता है। समाज में व्यक्ति की वे जड़ें संस्कृति है, जिससे जुड़ा रहना व्यक्ति के लिए आवश्यक होता है। संस्कृति से कटा हुआ व्यक्ति कटी डोर की पतंग की भांति होता है, जो उड़ तो रहा होता है लेकिन मंजिल व रास्ता तय नहीं होता, न ही पता होता है कि वह कहां जाएगा। 

वर्तमान परिदृश्य में समाज को देखें तो पता चलता है कि युवा पीढ़ी अपनी संस्कृति को दिन-प्रतिदिन पीछे छोड़कर आगे आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल होती जा रही है। संस्कृति-संस्कार ऐसे अभिन्न अंग हैं जिनसे समाज तय होता है। कहा जाता है कि जिस प्रकार की संस्कृति व संस्कार किसी समाज में प्रचलित होंगे, उसी स्तर का समाज सभ्य माना जाता है। हमारे देश-प्रदेश की संस्कृति व संस्कार वैश्विक मंच पर आदर्श स्थान पर रहे हैं। भारतीय जीवनशैली को विश्व में सबसे श्रेष्ठ व सभ्य माना जाता रहा है। लेकिन समय के चक्र व पाश्चात्य प्रभाव ने कई संस्कृतियों के संस्कारों को उधेड़ कर रख दिया। 

आज अधिकांश लोग संस्कृति व संस्कारों के साथ जीने को पिछड़ापन मानते हैं, लेकिन पिछड़े हुए तो उन्हें कहा जा सकता है जो अपनी संस्कृति व संस्कारों से छिटक कर अपना पाश्चात्यकरण कर चुके हैं। भारत की संस्कृति व सभ्यता का तर्क व वैज्ञानिक आधार रहा है, जिसने पूरे विश्व को जीवन मार्ग पर चलना सिखाया, तभी भारत को ‘विश्व गुरु’ जैसी उपमाओं से अलंकृत किया जाता रहा है। लेकिन वर्तमान में समाज का अधिकांश वर्ग आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी संस्कृति व संस्कारों को भुला चुका है। माता-पिता को सम्मान देने की बजाय उन्हें वृद्धाश्रमों में जीवन काटने के लिए या यूं कहें कि मौत के इंतजार के लिए छोड़ दिया जाता है। जिन माता-पिता ने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए अपना जीवन कष्टों में काटा, आज उन्हें घरों से ही निकाला जा रहा है। 

जहां विवाह-शादियों में बेटियों को डोलियों में विदा किया जाता था, आज स्टेज पर ही सारी औपचारिकताएं निभा दी जाती हैं। युवा खेलों को छोड़कर नशे को ही खेल समझ बैठे हैं। अपनी ताकत गलत कार्यों में लगाकर युवा पीढ़ी संस्कृति की जड़ों से कट चुकी है। पहले गुरु-शिष्य के संबंधों की महिमा लोगों की जुबां पर होती थी, आज युवा गुरुओं को सम्मान देने की बजाय कई बार तो सामने आने पर रास्ता बदल लिया करते हैं। 

जहां त्यौहारों व रीति-रिवाजों को सामूहिकता व अपनेपन की भावना तथा संस्कृति के एक हिस्से के रूप में मनाया जाता था, समाज में हर्षोल्लास व भातृभाव रहता था, आज उन्हीं त्यौहारों पर बस सोशल मीडिया में बधाई के फोटो डालकर इतिश्री करना व ऐसे अवसरों पर नशा करने का प्रचलन बढ़ गया है, मानो आज के युवाओं को नशे करने के लिए अवसर चाहिए हो। त्यौहारों के अवसर पर जहां लोक संगीत व लोक संस्कृति का परिचय देखने को मिलता था, वहां आज ऊंची आवाज में डी.जे. लगाकर इन त्यौहारों की औपचारिकताएं पूरी होती नजर आती हैं। 

हमारी संस्कृति में सहयोग का बड़ा महत्व था, हर सुख-दुख में साथ खड़े रहने की भावना देखने को मिलती थी, लेकिन आज समाज व लोग व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं, केवल अपने में ही समाज को समझते हैं। अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त किए लोग समाज में अमानवीय कृत्यों में संलिप्त पाए जाते हैं, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा कितनी भी हासिल कर ली जाए वह शिक्षा अगर आपके व्यवहार में न उतरे तो उसका कोई औचित्य नहीं रह जाता। 

कई दफा लोग साक्षर होने का दावा करते हैं, मगर बात करने के ढंग से वे अक्सर अपना वास्तविक परिचय दे दिया करते हैं जिससे शिक्षा का कोई औचित्य नहीं रह जाता। इससे अच्छे तो गांवों के अशिक्षित लोग, तहजीब व व्यवहार में सादगी तथा विषयों पर मजबूत पकड़ रखने वाले हमारे बुजुर्ग हैं, जिन्होंने भले ही स्कूलों में जाकर कभी किताबें नहीं पढ़ी हों, लेकिन समाज व लोगों को पढ़कर एक आदर्श जीवनशैली को अपनाए हुए हैं, अपनी संस्कृति को संजोए हुए हैं। 

लेकिन समाज के अत्याधुनिक होने का दावा करने वाले तथाकथित महामनुष्य न जाने किन बातों में आधुनिक हैं। अगर उन्हें मानवीय व्यवहार व सम्मान न करना आए तो आधुनिकता की ऐसी अंधी दौड़ में लडख़ड़ाने से बेहतर है सामान्य जीवन व्यतीत करना। आधुनिक होने की बातें की जाती हैं मगर आधुनिक और स्मार्ट व्यक्ति नहीं बल्कि इनके महंगे स्मार्टफोन हैं, जिनसे लोगों को लगता है वे भी इन मोबाइलों की तरह स्मार्ट हैं, लेकिन यह सबसे बड़ा भ्रम है। 

आज का मनुष्य निर्भर प्रवृत्ति में इतना लीन हो गया है कि उसे सब कुछ आर्टिफिशियल चाहिए, स्वयं कुछ भी नहीं करना है। वह कहा जाता है न कि आज के मनुष्य सोशल मीडिया में तो सोशल होना चाहते हैं, मगर सामाजिक नहीं बनना चाहते, केवल नाम से आधुनिकतावादी कहलवाना चाहते हैं। यह आधुनिकतावादी होने का भ्रम लोगों को अपने मस्तिष्क से निकाल कर व्यावहारिक जीवन में  चिंतन करके अपनी जड़ों से जुड़कर अपनी संस्कृति व सभ्यता को जानना चाहिए, तभी आधुनिकतावादी कहलाने का भी औचित्य रह पाता है, अन्यथा मानव समाज इतना अधिक व्यक्तिवादी हो रहा है कि लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि साथ वाले घर में रह रहे व्यक्ति को क्या समस्या है। 

आज के समय में सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले लोगों की फौज वास्तव में समाज में सक्रिय रहने वाले लोगों से कहीं अधिक हो चुकी है। अब केवल सोशल प्लेटफॉम्र्स पर ही भावनाएं व्यक्त की जाती हैं और लिंक, लाइक, लाइव, कमैंट व शेयर की अपील के साथ ही यह सफर समाप्त भी हो जाता है। आज का समाज ‘चित्रजीवी’ हो रहा है, लोगों को चरित्र की कोई परवाह नहीं है। आए दिन, खासकर युवा स्कूलों-कॉलेजों में लड़ते-झगड़ते नजर आते हैं। 

भारत की संस्कृति नमस्ते, वसुधैव कुटुंबकम व स्वागतम की रही है, लेकिन आज इस पहचान को लोग धूमिल करते जा रहे हैं। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ की आंधी में भारतीय समाज के सांस्कृतिक मूल्यों का पतन हो चुका है, नैतिकता का अस्तित्व दूर-दूर तक कहीं भी प्रतीत नहीं होता। युवाओं की सोच में परिवर्तन हो, इसके लिए हमारी सरकारों और शिक्षाविदों को आगे आना होगा। इसके लिए नई शिक्षा नीति में व्यावहारिक शिक्षा को भी अनिवार्य किया जाए, ताकि आज का युवा अपनी संस्कृति और संस्कारों की ओर वापस लौट सके।-प्रो. मनोज डोगरा
 


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