‘आप’ न राष्ट्र स्तरीय पार्टी बन पाई और न राज्यों में पांव पसार सकी

Saturday, Apr 22, 2017 - 01:43 AM (IST)

वर्ष पूर्व ही भारी-भरकम चुनावी जीत दर्ज करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) इसी सप्ताह होने जा रहे दिल्ली नगर निगम चुनावों में गंभीर अग्निपरीक्षा का सामना कर रही है। विधानसभा में भारी-भरकम जीत दर्ज करने के मद्देनजर यदि अब यह बहुत मामूली फर्क से नगर निगम के चुनाव जीत भी जाती है तो यह कोई खास उपलब्धि नहीं होगी और इसे निश्चय  ही विफलता के रूप में देखा जाएगा। दिल्ली के विधानसभा उपचुनावों और हाल ही के पंजाब और गोवा के विधानसभा चुनाव में बहुत कमजोर प्रदर्शन करने वाली ‘आप’ को इससे और भी कई समस्याएं दरपेश आएंगी। वैसे तो राजनीतिक पाॢटयों के लिए चुनावी उतार-चढ़ाव रूटीन की बात है लेकिन दिल्ली के आगामी नगर निगम के चुनाव में इसकी कारगुजारी को गंभीरता से लेने की जरूरत है। इसके क्या कारण हो सकते हैं?


इस पार्टी का अभ्युदय 2011 में एक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में से हुआ था लेकिन राजनीतिक दल का संचालन करने के लिए भ्रष्टाचार कोई चिरस्थायी मुद्दा नहीं बन सकता। इसलिए ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ पार्टी के रूप में ‘आप’ का गठन ही त्रुटिपूर्ण ढंग से हुआ था। फिर भी इसे इस आधार पर ही गंभीरता से लेना चाहिए कि इसका संबंध किसी भी विशेष सामाजिक वर्ग से नहीं और न ही इसने क्षेत्रीय भावनाओं की शरण ली है।  इन अर्थों में ‘आप’ का अभ्युदय एक महत्वपूर्ण प्रयोग था। यानी कि यह एक ऐसी पार्टी है जो किसी विशेष जाति या क्षेत्र तक सीमित नहीं।


इसने भी खुद को एक प्रदेश तक सीमित रखने की बजाय अखिल भारतीय पार्टी बनने का लक्ष्य अपनाए रखा है। इसलिए इस पार्टी ने अखिल भारतीय तथा प्रदेश स्तर पर चल रही दो राजनीतिक समूहों की सलीकेदार राजनीति को तार-तार कर देना था और अखिल भारतीय स्तर पर चल रही दो ध्रुवी राजनीतिक टक्कर के नियम भंग कर देने थे। 


यदि अन्य कोई पार्टी ऐसा लक्ष्य हासिल करने के समीप पहुंची है तो वह है बसपा। दलित वर्ग को अपना सामाजिक आधार मानने और ‘बहुजन’ के साथ संबंध बनाने का लक्ष्य धारण करने वाली यह पार्टी कम से कम बहुत सारे राज्यों की पार्टी बनने की योग्यता अवश्य ही पूरी करती थी जब इसने दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश इत्यादि क्षेत्रों में अपने पांव पसारने शुरू किए थे। लेकिन जैसे ही इसने केवल उत्तर प्रदेश पर अपना फोकस बना लिया तो दलितों में व्यापक आधार रखने के बावजूद यह इसको आगे विस्तार न दे सकी और अब यू.पी. में केवल राज्य स्तरीय खिलाड़ी बनकर रह गई है। 

 

आज भारत में पार्टी व्यवस्था एक निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई है: कथित  अखिल भारतीय वाम पाॢटयां अब गिने-चुने राज्यों में ही अस्तित्व रखती हैं। अधिक से अधिक कहा जाए तो वे केवल मुट्टी भर राज्यों में ही प्रासंगिक रह गई हैं। जहां तक कांग्रेस का संबंध है, खुद को अखिल भारतीय और सबसे पुरानी पार्टी कहने के बावजूद यह अखिल भारतीय चरित्र खोने के कगार पर बैठी है। 


भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति में राजनीतिक अखाड़े में कूदना और प्रासंगिकता की लक्ष्मण रेखा पार करना कभी भी आसान नहीं रहा। यदि इस मामले में कोई सफलता की कहानियां हैं तो वे अक्सर  जातिवादी या क्षेत्रवादी पाॢटयों तक ही सीमित होती हैं। यही कारण है कि हम ढेर सारी पाॢटयों को राजनीति में प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए हताशापूर्ण होड़ में लगी देखते हैं। लेकिन उनकी औकात सितारों जड़ी किसी बालीवुड फिल्म के ‘एक्स्ट्रा’ से अधिक नहीं होती। राजनीति का असली तमाशा तो उन मु_ी भर पाॢटयों द्वारा ही जारी रखा जाता है जो प्रासंगिकता सिद्ध करने की लक्ष्मण रेखा पहले ही पार कर चुकीहैं। 


यहां तक कि 1990 के दशक में लोकसभा में 30 से भी अधिक पाॢटयां होना आम बात बन गई है और गठबंधन सरकार में भी 10 से अधिक पाॢटयां शामिल होती हैं, तो भी अखिल भारतीय स्तर पर राजनीतिक मुकाबलेबाजी में  जगह बनाने में ज्यादातर पाॢटयां सक्षम नहीं हो पाई हैं। उनकी भूमिका और प्रसिद्धि इस बात पर निर्भर नहीं कि वे कितनी लोकप्रिय हैं या कितने लोगों को आंदोलित कर सकती हैं बल्कि केवल इस तथ्य पर निर्भर करती है कि त्रिशंकु विधानसभाओं में उनकी कितनी अधिक जरूरत पड़ेगी। वैसे बसपा के उदय के बाद किसी भी पार्टी ने अपने पंख एक राज्य या किसी विशेष सामाजिक वर्ग की सीमाओं से बाहर फैलाने के लिए गम्भीरता से सोचा ही नहीं। 


जब वास्तविकता यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों मिलकर भी 50-55 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल नहीं कर पातीं तो इसका स्पष्ट अभिप्राय है कि शेष मतदाताओं को कोई अन्य पार्टी आंदोलित कर सकती है। यानी कि किसी भी नई पार्टी के लिए यह मतदाता स्वाभाविक रूप में उपलब्ध कच्चा माल हैं। सैद्धांतिक रूप में ‘आप’ के गठन के पीछे भी यही अवधारणा काम करती थी। 2013 में ‘आप’ की आधी अधूरी और 2015 की निर्णायक जीत इसी घटनाक्रम के साकार होने का प्रमाण है। 


लेकिन क्या ‘आप’ इस सम्भावना को साकार करने में सफल रही है? मुख्य तौर पर यह दो मोर्चों पर विफल हुई है। समाजवादियों और जनता दल की राजनीति की तर्ज पर यह बुरी तरह अंतर्कलह तथा व्यक्ति पूजा की शिकार हुई। केजरीवाल ने ऐसे कई लोकप्रिय समूहों को बाहर धकेल दिया जो आंदोलन के दौरान नई तरह की राजनीति के प्रयोग में शामिल हुए थे।  

जैसे ही पार्टी का नयापन और अनूठापन समाप्त हुआ, वैसे ही जनता को आंदोलित करने की इसकी क्षमता भी  हवा हो गई। बेशक मीडिया में बयानबाजी के माध्यम से ‘आप’ ने खुद को एक ऐसी पार्टी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जो भाजपा विरोधी राजनीति के लिए केन्द्र ङ्क्षबदू बन सकती है। लेकिन गत 2 वर्षों दौरान यह एक भी राज्य में प्रभावी ढंग से किसी भी मुद्दे पर जनसमूह को आंदोलित नहीं कर पाई। यहां तक कि पंजाब में भी प्रचार के शोर-शराबे से आगे नहीं बढ़ पाई और जनसंघर्षों के लिए नई जमीन उपलब्ध करवाने का मौका खो बैठी है। 


गोवा हो या पंजाब, गुजरात हो या दिल्ली-‘आप’ ने साधनापूर्ण ढंग से जन आंदोलन चलाने की बजाय नौटंकियों पर ही टेक जमाए रखी है। इसकी कार्यशैली तो दिल्ली केन्द्रित राजनीति के गिर्द घूमती है जबकि महत्वाकांक्षाएं यह दूसरे राज्यों में पांव पसारने की रखती है। यही अंतर विरोध इसके पतन का कारण बन रहा है। (साभार ‘इंडियन एक्सप्रैस’) 

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