कानून नहीं, आप स्वयं हैं इन ‘समस्याओं का निदान’

punjabkesari.in Sunday, Dec 08, 2019 - 01:13 AM (IST)

हैदराबाद के महिला पशु-चिकित्सक बलात्कार और हत्याकांड के बाद महिलाएं भयभीत हैं, देश एक बार फिर आहत है, संसद में आक्रोश है और सरकार फिर बलात्कार कानून को और सख्त बनाने हेतु कमर कस रही है। निर्भया कांड के एक साल बाद बलात्कार कानून को सख्त किया गया नतीजा था ‘रेप’ की खबरों का अब ‘‘गैंगरेप’’ के रूप में उभरना। सन् 2016 में शराबबंदी हुई इस आशय के साथ कि शराब-जनित अपराध कम होंगे लेकिन एन.सी.आर.बी. की रिपोर्ट के अनुसार अगले 6 माह में अपराध बढ़ गए।

बलात्कार की ऐसी नृशंस घटनाओं पर जनाक्रोश उबाल पर होता है और सरकार से अपराधी को फांसी देने और सख्त कानून की मांग करता है। जनता और सरकारें यह भूल जाती हैं कि कुछ अपराध उस श्रेणी में आते हैं जिनमें कानून से ज्यादा सामाजिक चेतना जगाने  की जरूरत होती है। कानून बनाते वक्त सरकारें स्कॉटलैंड का उदाहरण भूल जाती हैं जहां 1853 में शराबखोरी पर अंकुश लगाने के लिए फोब्र्स मेकेंजी एक्ट के तहत पब को रात 11 बजे बंद करने का कानून लाया गया। नतीजा यह हुआ कि रातों-रात कस्बों और गांवों में कच्ची शराब की बिक्री बेतहाशा बढ़ गई और लोग उन्हें पीकर मरने लगे। इसके बाद स्कॉटलैंड की सरकार ने कानून रद्द कर दिया। 

भारतीय समाज बीमार है। ये बीमारियां भांति-भांति के अपराध में अभिव्यक्त होती हैं लेकिन उनमें से कुछ जैसे चोरी या डकैती, जमीन-जायदाद के झगड़े और सड़क पर गुस्से में हिंसा, साम्प्रदायिक दंगे, लालच-जनित अपराध रोकने में सख्त कानून या सक्षम सरकार की भूमिका अहम होती है लेकिन वे अपराध, जिनमें नैतिक या मूल्य जनित स्व-नियंत्रण के अभाव में व्यक्तिगत मनोविकार एक अपराध का रूप ले लेते हैं जैसे बलात्कार, शराबखोरी के बाद ङ्क्षहसक-कामुक प्रवृत्ति, औपचारिक शिक्षा और सम्पन्नता के बावजूद भ्रष्टाचार, केवल कानून बनाकर या उन्हें सख्त करके नहीं रोके जा सकते। 

2012 में निर्भया बलात्कार कांड के बाद जन-आक्रोश अपने चरम पर पहुंचा था। अगले साल ही कानून को सख्त किया गया। नतीजा सामने है। रेप की घटनाएं अब अधिकाधिक ‘गैंगरेप’ में तबदील हो गई हैं। 7 साल बाद हैदराबाद में एक महिला पशु-चिकित्सक के साथ फिर यही हुआ। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार मृत शरीर के साथ भी वे कई बार यह घिनौनी हरकत करते रहे। इन अमानुषिक दरिंदगी का कारण है: समाज में बचपन से नैतिक-शिक्षा देने वाली संस्थाओं जैसे मां-बाप और शिक्षक का यह भूमिका न निभाना और नई तकनीक के जरिए बाल-मस्तिष्क को दूषित करने वाले कंटैंट का सहज में नैट पर एक किशोरावस्था के बच्चे को उपलब्ध होना। नैतिक शिक्षा को दकियानूसी माना जाने लगा।

बाजार की ताकतों ने मां को घर में ‘बड़ी कार बनाम छोटी कार’ में उलझा दिया है और शिक्षक को ‘वेतन आयोग की रिपोर्ट’ और ‘कोचिंग से होने वाली आय’  में। वैसे भी बाजार की ताकत नहीं चाहती कि आम समाज मजबूत नैतिकता की नींव पर खड़ा हो क्योंकि उससे व्यक्ति तार्किक सोच से फैसले लेगा और तब 10 रुपए किलो का आलू चिप्स के रूप में 400 रुपए किलो में बड़ी कम्पनियां नहीं बेच पाएंगी। वे यह जानती हैं कि अगर समाज की सोच को जड़वत करना है तो नैतिक-ताॢकक सोच देने वाली संस्थाओं को खत्म करना होगा। जबरदस्त घटिया मनोरंजन का ‘हैवी डोज’ हर दिन और हर घंटे व्यक्ति, खासकर कम उम्र के बच्चों को ताॢकक-वैज्ञानिक सोच से दूर कर देता है और तब एक नैतिक व्यक्ति का निर्माण संभव ही नहीं होता। आज भारतीय समाज में ऐसे व्यक्तियों की बहुतायत है। 

कुछ वर्ष पूर्व की लांसेट की एक रिपोर्ट बताती है कि एशियाई देशों के पुरुष समाज की सोच में ही समस्या है जिसमें 70 प्रतिशत बलात्कारी इस किस्म के ‘सैक्स’ को अपना अधिकार मानते हैं और उनमें से 50 प्रतिशत बलात्कार के बाद भी अपने को अपराधी नहीं मानते। महिलाओं के प्रति ‘भोग्य वस्तु’ का भाव रखना इसकी जड़ में है। जब तक समाज की हर संस्था जैसे माता-पिता, परिवार, धर्मगुरु, शिक्षक और अन्य सभी मान्य सामाजिक संगठन जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसके लिए नई क्रांति के भाव से काम नहीं करेंगे, यह बीमारी पूरे समाज में फैलती जाएगी। 

शराबबंदी की सामाजिक कीमत कितनी?
गुजरात के बाद बिहार में नीतीश सरकार ने शराबबंदी की। ताजा घटना में राज्य के बक्सर जिले के सिमरिया गांव में गुड्डु सिंह शराब के नशे में अपनी दुकान बंद करने के बाद घर लौट रहा था कि पुलिस ने उसे पकड़ लिया। गुड्डू सिंह कई महीनों से जेल में है और उसका बूढ़ा पैंशनयाफ्ता बाप किसी तरह अपनी छोटी सी पैंशन-राशि से बच्चों का पेट तो भर रहा है लेकिन स्कूल से दोनों बच्चों का नाम कटवाना पड़ा है। आज बिहार की जेलों में आधे से ज्यादा कैदी शराबबंदी कानून के तहत बंद हैं और अधिकांश पैसे न होने के कारण जमानत नहीं करवा पा रहे हैं। हालांकि नीतीश सरकार को गलती का एहसास हुआ तो कानून को कुछ कम सख्त किया गया लेकिन गुजरात में हाल ही में जब सरकार ने इसे और कठोर किया तो शराब की भट्ठी चलाने के आरोप में एक व्यक्ति अल्पेश 5 महीने से जेल में है और उसको घर का खाना पहुंचाने के लिए, रोजाना जेल का ‘ऊपरी खर्च’ देने और घर का खर्च चलाने के लिए उसके परिवार ने और ज्यादा शराब की भट्ठियां लगा ली हैं। 

यहां तक कि मां-बाप या चाचा जैसी संस्थाएं जो एक जमाने में युवाओं को बहकने से बचाने में सामाजिक पुलिसिंग का काम करती थीं वे भी अब इसमें दिलचस्पी नहीं दिखातीं कि रोजाना पढऩे की जगह किशोर क्यों मोबाइल पर लगा रहता है। चूंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जन-स्वीकार्यता अभी भी बनी हुई है, लिहाजा उन्हें भी अपने उद्बोधनों में इसे व्यापक रूप से शामिल करना होगा। ‘मनकी बात’ के एक कार्यक्रम में मोदी ने अभिभावकों को कहा कि वे शाम को बेटी कहां जा रही है इसकीङ्क्षचता तो करते  हैं लेकिन बेटा क्या कर रहा है, यह चिंता उन्हें नहीं रहती।-एन.के. सिंह


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