अपने मान-सम्मान के लिए महिलाओं को खुद उठना होगा

Tuesday, Sep 18, 2018 - 02:57 AM (IST)

देश में महिलाओं पर अत्याचारों की घटनाएं बढ़ रही हैं। चार महीनों की नन्ही बच्चियों से लेकर अधेड़ उम्र तक की महिलाओं के साथ दिन-दिहाड़े हो रहे दुष्कर्मों के मामले, घरेलू हिंसा तथा अन्य कई तरह के जुल्मों की शिकार महिला जाति भारतीय इतिहास के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रही है। लोगों के दबाव के चलते महिलाओं पर जुल्म करने वाले कई दोषी पकड़े भी जाते हैं और कुछ को सजाएं भी मिल जाती हैं मगर व्यापक तौर पर यह सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा।

जब से संघ (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की विचारधारा के अनुरूप मोदी सरकार देश का शासन चला रही है तब से लेकर इन घटनाओं में और भी वृद्धि हो गई है। अफसोस इस बात का है कि कई राजनेता महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों के लिए खुद महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहरा देते हैं। ऐसे ‘भद्र पुरुष’ महिलाओं के लिबास, उनके पढऩे-लिखने, खाने-पीने, घूमने तथा लड़कों से बातें करने के तरीके को महिलाओं के दोषों की सूची में जोड़ देते हैं, इसके परिणामस्वरूप ‘मर्दों’ को महिला जाति पर उपरोक्त अमानवीय व्यवहार करने का अवसर मिल रहा है। 

इससे अधिक अभद्र, असंवेदनशील, असामाजिक तथा गिरावट भरा ‘प्रवचन’ कोई अन्य हो ही नहीं सकता। वैसे तो समाज की आधी आबादी, यानी महिलाओं को बराबर की आधी संख्या के मर्दों की तरह मनपसंद पहरावा पहनने, खाने-पीने तथा निजी आजादियां मनाने का पूरा हक है मगर यदि ‘दुष्कर्म’ जैसे अमानवीय कुकर्मों को कोई व्यक्ति या संस्था भड़काऊ कपड़ों से जोड़ती है तो क्या वे बता सकते हैं कि दो वर्ष, चार वर्ष या सात वर्ष की फूलों जैसी बच्चियों के साथ किया जा रहा ऐसा ङ्क्षनदनीय अपराध क्या भड़काऊ लिबास पहनने का परिणाम है? वास्तव में ऐसे लोगों की मानसिकता तथा विचारधारा ही महिला विरोधी है क्योंकि वे महिला जाति को केवल संतान पैदा करने तथा मानवीय कामनाएं पूरी करने के लिए भोगने वाली एक बाजारू चीज ही समझते हैं, जिनका अपना कोई स्वाभिमान या अस्तित्व नहीं होता। 

महिलाओं की गुलामी तथा अत्याचार की कहानी समाज की कानी बांट वाली व्यवस्था से जुड़ी हुई है। समाज में जब उत्पादन के साधन तथा उत्पादन पर महिला की बराबर की हिस्सेदारी नहीं है तो उसका सामाजिक रुतबा भी पुरुष के बराबर नहीं रहा।  इस तरह आॢथक पक्ष से अधीनगी अथवा निर्भरता की स्थिति महिला के सामाजिक रुतबे को तय करती है, जो मौजूदा समय में एक गुलाम जैसी है। भारतीय इतिहास में जुए के खेल में महिला का हारना तथा उसको बेइज्जत होने के लिए विजेता पक्ष के हवाले करने जैसी कहानियां महिला की दयनीय दशा को बयां करने के लिए काफी हैं। ऐसे पुरुष प्रधान समाज में सदियों से ही महिलाओं के साथ हर तरह की ज्यादतियां की जाती रही हैं। 

बहुत से ग्रंथों में महिलाओं के खिलाफ निंदनीयतथा एतराज योग्य टिप्पणियों, जिन्हें रद्द किया जाना चाहिए था, को अभी तक सम्भाल कर रखा हुआ है जबकि महिलाओं के सम्मान में लिखी बातों को नजरअंदाज करके उनके प्रति तिरस्कार वाला रवैया जारी रखा जा रहा है। कई धर्म ग्रंथों में महिलाओं को मूर्ख, पशुओं तथा गुलामों के बराबर बताया गया है। हमारी बहुत-सी लोक कथाएं, मुहावरे, लोक गीत, चुटकुले महिलाओं के प्रति दुर्भावना पैदा करने वाले हैं। कमाल यह है कि महिलाओं के एक वर्ग द्वारा इनके विरुद्ध विरोध प्रकट करने की बजाय इनकी प्रशंसा की जाती है या कम से कम बहुत ही सहज ढंग से स्वीकार किया जाता है। 

संघ ने भारत के धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक-सामाजिक ताने-बाने को मूल रूप में परिवर्तित करके एक ‘धर्म आधारित राष्ट्र’ स्थापित करने का उद्देश्य बनाया हुआ है। वे इसे मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान पूरा होता देखना चाहते हैं। धर्म आधारित किसी भी राष्ट्र में (संघ के कल्पित हिंदू राष्ट्र सहित) महिलाओं की आजादी का सपना भी नहीं लिया जा सकता। समाज में पीड़ित इन महिलाओं का संबंध भी उसी धर्म से होगा जिसके नाम पर उस ‘राष्ट्र’ की स्थापना की गई होगी। उद्देश्य सभी का एक जैसा ही है- धार्मिक कट्टरवाद, निजी स्वतंत्रताओं की समाप्ति, लोकतांत्रिक प्रथाओं का खात्मा, असहनशीलता, आपसी भाईचारे में दरारें और सबसे बढ़कर मनुष्य द्वारा मनुष्य की लूट खसूट को राजनीतिक, सामाजिक तथा विचारात्मक स्वीकार्यता। 

गत समय में विभिन्न धर्मों तथा मठों के कई धर्म गुरुओं द्वारा अपनी ही श्रद्धालु तथा प्रचारक महिलाओं-बच्चियों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं सार्वजनिक हुई हैं। इन मुजरिमों को कानून के शिकंजे में लाने के लिए पीड़ित महिलाओं ने खुद बहुत हिम्मत दिखाई है तथा दोषियों को कानून के कटघरे में खड़ा होने को मजबूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। गम्भीरतापूर्वक सोचने वाली बात यह भी है कि जब इन तथाकथित ‘धर्मगुरुओं’ या ‘संतों’ द्वारा अपने ही मत की अनुयायी महिलाओं के साथ किए गए दुष्कर्म सामने आए तो उसी मत की महिलाओं सहित पुरुष श्रद्धालुओं ने कुछ मामलों में पीड़ितों के पक्ष में खड़े होने की बजाय दोषी का ही पक्ष लिया। महिलाओं की इज्जत लूटने के दोषी कथित धर्मगुरुओं के लिए सबसे अधिक आंसू महिलाओं ने ही बहाए हैं। 

इसे त्रासदी ही कहा जाना चाहिए। होना तो यह चाहिए कि जब भी कोई इस तरह की बुरी घटना घटे सबसे पहले इसके विरुद्ध स्वर उसी धर्म/मत/पंथ के आम श्रद्धालुओं की ओर से उठने चाहिएं। इससे पीड़ित को इंसाफ मिलेगा और कुछ मुखियों के गलत कार्यों का खामियाजा धर्म के सभी लोगों को नहीं भुगतना पड़ेगा और आगे किसी अन्य की ऐसा कुकर्म दोहराने की हिम्मत नहीं होगी। यह संबंधित धर्म की सबसे बड़ी सेवा सिद्ध हो सकती है। जरूरत यह भी है कि बिना किसी डर के महिला जगत को अपने मान-सम्मान तथा गौरव के लिए खुद उठना होगा। उनके साथ समाज के बाकी लोग भी आ मिलेंगे। 

आवाज बुलंद करते समय किसी आस्था के पर्दे में ‘कथित धर्मगुरुओं’ या ‘बाबाओं’ के धन तथा बाहुबल से घबराने की जरूरत नहीं क्योंकि जनता, संगत इन दुराचारियों से अधिक ताकतवर है। इसके साथ ही इस हकीकत को भी दिमाग में रखना होगा कि असमानता तथा नाइंसाफी पर आधारित सामाजिक-आर्थिक ढांचे में महिलाओं की पूर्ण आजादी की गारंटी असम्भव है। पूंजीवादी विकसित तथा कम विकसित या विकासशील राष्ट्रों में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की संख्या में तो कमी हो सकती है मगर इन जुल्मों की समाज में मौजूदगी से इंकार बिल्कुल नहीं किया जा सकता। पुरुषों की महिलाओं के प्रति मानसिकता सामाजिक-आॢथक ढांचे तथा इसके ऊपर बने सांस्कृतिक तथा राजनीतिक ‘निर्माण’ पर निर्भर करती है। इसको एक-दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता।-मंगत राम पासला

Pardeep

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