महिलाओं का कौमार्य परीक्षण अब इतिहास की बातें

punjabkesari.in Sunday, Mar 12, 2023 - 06:21 AM (IST)

दिल्ली के उच्च न्यायालय ने 7 फरवरी 2023 को एक फैसला सुनाया कि 1992 में केरल में सिस्टर अभ्या की हत्या की दोषी सिस्टर सैफी की कौमार्यता की जांच के लिए जबरन टू-फिंगर-टैस्ट (टी.एफ.टी.) आयोजित करना असंवैधानिक था जिसमें कहा गया था कि ऐसी प्रक्रिया अमानवीय है और यह मानवीय गरिमा के खिलाफ है। सिस्टर सेफी जोकि एक ईसाई नन हैं, ने 2009 में अदालत का रुख किया था जिसमें कहा गया था कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) ने उनकी सहमति के खिलाफ अपराध के 16 वर्ष बाद नवम्बर 2008 में कुख्यात कौमार्य परीक्षण (वर्जिनिटी टैस्ट) सिर्फ उसे हिरासत में अपमानित करने के लिए किया था।

उसने यह भी तर्क दिया कि सी.बी.आई. ने मीडिया में यह कहते हुए एक झूठी और मनगढ़ंत कहानी फैलाई कि उसने एक टूटे हुए हैमन की रिपेयर के लिए ‘हैमनोप्लास्टी’ करवाई। भले ही यह प्रक्रिया भारत में उपलब्ध नहीं थी और न ही उसके पास विदेश जाने के लिए पासपोर्ट है। 2008 में किए गए टू-फिंगर-टैस्ट के खिलाफ सिस्टर सैफी की याचिका पर फैसला करते हुए जस्ट्सि स्वर्णकांत शर्मा की खंडपीठ ने कहा कि, ‘‘यौन उत्पीडऩ की पीड़िता के साथ-साथ हिरासत में किसी भी अन्य महिला के लिए कौमार्य परीक्षण बेहद दर्दनाक है और इसका व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक और साथ ही शारीरिक स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है।’’

अदालत ने आगे कहा, ‘‘एक बंदी महिला की जांच के तहत न्यायिक या पुलिस हिरासत में आयोजित कौमार्य परीक्षण असंवैधानिक घोषित किया जाता है और संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है, जिसमें एक व्यक्ति की गरिमा का अधिकार शामिल है।’’ किसी राज्य द्वारा इसका सहारा नहीं लिया जा सकता और यह भारतीय संविधान की योजना और अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार के तहत होगा। यहां तक कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में एक खंडित न्यायिक प्रणाली होने के बावजूद कि सदफ अजीज बनाम फैडरेशन ऑफ पाकिस्तान मामले के तहत कहा गया है। टू-फिंगर-टैस्ट हालांकि आधे अधूरे मन से पंजाब प्रांत में सीमित है।

चिकित्सा न्यायशास्त्र उन सभी प्रश्रों को शामिल करता है जो व्यक्तियों के नागरिक या सामाजिक अधिकारों को प्रभावित करते हैं और किसी एक व्यक्ति को चोट पहुंचाते हैं। वॢजनिटी टैस्ट अब तक मैडीको-लीगल प्रक्रिया रही है। विवाह, तलाक, मानहानि और बलात्कार के मामलों में यह सवाल उठता है कि क्या एक महिला कुंवारी है? इस सिद्धांत को नकारते हुए पहले भी लीलू बनाम हरियाणा राज्य (2013) 14 एस.सी.सी. 643 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘‘बलात्कार पीड़िता कानूनी सहारा पाने की हकदार है जो उसे दोबारा आघात नहीं पहुंचाती या उसकी शारीरिक या मानसिक अखंडता का उल्लंघन नहीं करती है। पीड़िता आयोजित चिकित्सा प्रक्रियाओं की भी हकदार है जो उसकी सहमति के अधिकार का सम्मान करती हैं।’’

उत्तर प्रदेश राज्य बनाम मुंशी (2008) 9 एस.सी.सी. 390 जिसमें अदालत ने अपनी पीड़ा व्यक्त की और कहा कि भले ही बलात्कार की पीड़िता पहले यौन संभोग की आदी थी, यह निर्णायक सवाल नहीं हो सकता है। अगर पीड़िता पहले अपना कौमार्य खो चुकी है तो यह सुनिश्चित रूप से किसी भी व्यक्ति के साथ उसका बलात्कार करने के लिए लाइसैंस नहीं दे सकती है। क्या पीड़िता स्वच्छंद है, यह बलात्कार के मामले में पूरी तरह से एक अप्रासंगिक मुद्दा है। रफीक बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि क्षति के निशान की कमी का मतलब हमेशा यह नहीं होता है कि यौन क्रिया महिला की अनुमति से की गई थी।

जैसा कि अदालतों ने कई फैसलों में निॢदष्ट किया है कि कौमार्य परीक्षण की प्रचलित प्रथा अब प्रासंगिक और चिकित्सकीय रूप से गलत साबित हुई है, इस अभ्यास पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस प्रकार अवमानना कार्रवाई से बचने के लिए चिकित्सा बिरादरी और पुलिस को हिरासत में महिलाओं पर या अन्यथा टू-ङ्क्षफगर-टैस्ट नहीं करके अदालतों के निर्देशों का पालन करना चाहिए। -हसन खुर्शीद (यह लेखक के अपने निजी विचार हैं) साभार द पायनियर


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