दाव पर है महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान व गौरव

Saturday, Oct 20, 2018 - 05:11 AM (IST)

बड़ी संख्या में महिला पत्रकारों द्वारा ‘मी टू’ अभियान को चलाए रखने तथा जन-दबाव बनाने के परिणामस्वरूप आखिरकार नरेन्द्र मोदी सरकार ने निर्णायक कार्रवाई करते हुए एम.जे. अकबर के लिए विदेश राज्य मंत्री के तौर पर इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा। यह भाजपानीत राजग सरकार के लिए पूरी तरह से स्पष्ट हो गया था कि अकबर को मंत्रालय में बनाए रखना महत्वपूर्ण 2019 के आम चुनावों के लिए एक सम्पत्ति की बजाय बोझ अधिक साबित होगा। 

एक वरिष्ठ पत्रकार से राजनीतिज्ञ बने अकबर का यह कहना कि उनके खिलाफ 20 से अधिक महिला पत्रकारों द्वारा ‘यौन प्रताडऩा तथा दुव्र्यवहार के आरोप झूठे तथा गढ़े हुए हैं’ पर मीडिया व्यवसाय से जुड़े कुछ ‘भीतरी लोगों’, जो उन्हें आम लोगों से बेहतर जानते हैं, से उनकी साख बारे जांच करने के बाद प्रभावित करने से कहीं अधिक दूर लगता है। उतना ही अपरिपक्व तथा अप्रभावित उनके द्वारा यह प्रश्र उठाना था कि ‘क्यों यह तूफान आम चुनावों से कुछ महीनों पहले खड़ा किया गया? क्या इसके पीछे कोई एजैंडा है?’ वह यह आरोप लगा रहे थे कि उन पर आरोप लगाने वाले सभी का 2019 के राष्ट्रीय चुनावों से पूर्व उनकी तथा उनकी पार्टी की छवि खराब करने का एक राजनीतिक उद्देश्य था। 

मुझे हैरानी है कि एम.जे. अकबर, जो किसी समय ‘द टैलीग्राफ’ तथा ‘द एशियन एज’ जैसे प्रमुख समाचार पत्रों के सम्पादक थे, को एक अपरिपक्व राजनीतिज्ञ की तरह बोलना चाहिए था। सम्भवत: उन्हें यह भ्रम है कि नरेन्द्र मोदी तथा अमित शाह जैसे मुहावरे बोलने से उन्हें सरकार में अपनी स्थिति मजबूत करने में मदद मिलेगी। दुख की बात है कि ऐसा नहीं है। सोशल मीडिया पर पहली बार एक महिला पत्रकार द्वारा उनका नाम लिए जाने के 10 दिन बाद उन्हें पद छोडऩा पड़ा। 

अकबर को आरोप लगाने वाली कई महिलाओं में से एक पत्रकार प्रिया रामानी के खिलाफ केस दर्ज करवाकर मामले को इस हद तक नहीं भड़काना चाहिए था। यह उनके चरित्र को दर्शाता है। प्रिया ने 8 अक्तूबर को ट्वीट किया था कि एम.जे. अकबर वह व्यक्ति थे जिनका नाम उन्होंने एक पत्रिका में एक वर्ष पूर्व छपे एक लेख में सांझी की गई घटना में लिया था, जब अमरीका में हार्वे वेंन्स्टीन घोटाले ने ‘मी टू’ अभियान को हवा दी। एक पूर्व सम्पादक होने के नाते एम.जे. अकबर को 2 दशक  पूर्व भारत जैसे पुरुष प्रधान समाज में कार्यस्थल पर महिलाओं की सामाजिक स्थिति बारे जानकार होना चाहिए था इसलिए उनके द्वारा यह प्रश्न उठाया जाना कि ‘कोई भी इतनी देर तक अधिकारियों के पास क्यों नहीं पहुंचा?’ न केवल बेतुका बल्कि अपमानजनक भी है। 

जहां एम.जे. अकबर की बॉस सुषमा स्वराज इन चौंकाने वाले घटनाक्रमों पर टिप्पणी करने से बची रहीं, मेनका गांधी तथा स्मृति ईरानी ‘मी टू’ अभियान के समर्थन में आगे आईं। मैं इस मामले में मोदी सरकार के सतर्कतापूर्ण रवैए को लेकर उलझन में था। इसे बहुत-सी प्रभावशाली महिला पत्रकारों, जैसे कि रामानी, प्रेरणा सिंह बिंद्रा, गजाला, शुतापा पॉल, अंजू भारती, सुपर्णा शर्मा, शुमा राहा, मालिनी भुपता, कनिका गहलोत, कादम्बरी एम. वेड, माजिली डी.फाई. काम्प, रूत डेविड तथा अन्य के गुस्से के मद्देनजर नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए था। 

यह दिमाग में रखा जाना चाहिए कि भारत में ‘मी टू’ अभियान ने पूर्व अभिनेत्री तनुश्री दत्ता द्वारा वरिष्ठ अभिनेता नाना पाटेकर पर एक फिल्म  के सैट पर 10 वर्ष पूर्व उनसे दुव्र्यवहार करने के आरोप के बाद गति पकड़ी। उसके बाद कई महिलाओं ने अपने भयावह अनुभवों को ट्विटर पर सांझा करना शुरू किया, जिनमें मीडिया से जुड़े कई व्यक्तियों, लेखकों तथा बॉलीवुड हस्तियों का नाम लेकर उन्हें शर्मसार किया गया। मैं उनकी यौन दुव्र्यवहार की कहानियों को दोहराना नहीं चाहता। सोशल मीडिया ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है। मेरा बिंदु साधारण है: कैसे समाज के विभिन्न वर्गों से आई महिला पत्रकार एक ‘राजनीतिक षड्यंत्र’  का हिस्सा बन सकती हैं, जैसा कि अकबर की सोच कहती है। वह एक सोशलिस्ट हैं और समय-समय पर उन्होंने अपने राजनीतिक रंग बदले हैं। वह 2014 के आम चुनावों से महज कुछ समय पहले भाजपा में शामिल हुए। राज्यसभा सदस्य अकबर ने आखिर तक अपने शक्तिशाली मंत्री पद का लाभ उठाया। 

जनता में उनका गुस्सैल व्यवहार उनकी कलम से नहीं आया। उन्होंने अपना कानूनी हथियार मंत्री पद की कुर्सी से चलाया, हालांकि बहुत-सी महिलाओं द्वारा उनके खिलाफ गम्भीर आरोप लगाने के बाद उनकी स्थिति नैतिक, व्यावसायिक तथा राजनीतिक तौर पर ‘अस्थिर’ थी। हमें भारत की ‘महिला शक्ति’ का सम्मान करना चाहिए। मैं प्रधानमंत्री के ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान को लेकर खुश था। मुझे उनसे इस पर तेजी से काम करने की आशा थी। जो भी हो, महिलाओं की ताकत को हमारे अप्रचलित हो चुके कानूनों तथा नियमों के कानूनी तराजू पर नहीं तोला जा सकता। मेरी पीड़ितों को सलाह है कि वे कानूनी तौर पर अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए एक टीम के रूप में एफ.आई.आर. दर्ज करवाएं। मुझे विश्वास है कि भारत में सामाजिक तौर पर प्रबुद्ध वकीलों की कोई कमी नहीं है, जो जनहित में उनके न्यायोचित कार्य को अपने हाथ में लेंगे। 

पीछे देखें तो मेरा मानना है कि सम्पादक तथा पत्रकार, जो सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों, पारदर्शिता तथा जवाबदेही पर अपने लेखों में अन्य लोगों को प्रवचन देते हैं, उनसे अपने व्यवसाय में भी वही मूल्य अपनाने की आशा की जाती है। यह जनता के विश्वास का मामला है जिससे किसी भी कीमत पर समझौता नहीं किया जाना चाहिए। उनसे यह भी आशा की जाती है कि वे सत्ता में बैठे लोगों अथवा बाजारी जुगाड़ुओं या अपनी निजी यौन कमजोरियों द्वारा खुद को इस्तेमाल नहीं होने देंगे। इतना ही महत्वपूर्ण है विवेक। सम्पादकों को अपनी सम्पादकीय टीमों के सदस्यों के साथ एक मार्गदर्शक, मित्र तथा दार्शनिक के तौर पर व्यवहार करना होगा ताकि उनमें से प्रत्येक व्यक्ति अपनी व्यावसायिक भूमिका उद्देश्यपूर्वक तथा निर्भयतापूर्वक निभा सके। निश्चित तौर पर बीतेे समय के तथा आज के सम्पादकों को महिलाओं व समाज के कमजोर वर्गों के प्रति एक सामाजिक जिम्मेदारी की भावना के साथ काम करने की जरूरत है, अन्यथा वे उस उच्च पद पर बैठने के लायक नहीं, जिस पर वे बैठते हैं। दाव पर है कार्यस्थल पर हमारी युवा महिलाओं की सुरक्षा, सम्मान तथा गौरव। 

जे. वाल्कोट ने एक बार कहा था कि ‘विवेक एक नन्हा पिशाच है, जो चमगादड़ की तरह दिन में आंखें बंद किए रहता है और रात को जागता है’। आज समस्या यह है कि ‘नन्हे पिशाच’ ने ‘दिन में सोना’ अथवा ‘रात में जागना’ छोड़ दिया है। मुझे यह कहते हुए अफसोस है कि अकबर जैसे तथाकथित शक्ति सम्पन्न लोगों ने अपनी कार्रवाइयों अथवा बुरे कर्मों बारे सोचना या उन पर प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया है। विवेक (प्रत्येक व्यक्ति के मन की आंतरिक रोशनी) अपने आप में पूर्णतया गुम है। मुझे आशा है कि एम.जे. अकबर का जाना सार्वजनिक जीवन में एक नई शुरूआत होगी और कार्यस्थल पर महिलाओं से छेड़छाड़ तथा दुव्र्यवहार से सम्भावित परभक्षियों को रोकेगा।-हरि जयसिंह

Pardeep

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