नारी अस्मिता एक संवेदनशील विषय, अभद्रता मान्य नहीं

punjabkesari.in Sunday, May 21, 2023 - 06:01 AM (IST)

देश का बहुचर्चित ‘महिला पहलवान उत्पीड़न मामला’ निर्णायक मोड़ की ओर अग्रसर हो चुका है। कौन सही, कौन गलत है, यह तो जांच पूर्ण होने के उपरांत ही पता लग पाएगा किंतु शोषित महिलाओं के कथनानुसार प्रकाश में आए तथ्यों ने समूचे समाज को झिंझोड़ कर रख दिया है।

गहनतापूर्वक विचार करें तो भारतीय परिवेश की वर्तमान तस्वीर में दो पक्ष प्रतिभासित हो रहे हैं। पहला पक्ष सकारात्मकता से ओत-प्रोत, प्रत्येक दृष्टिकोण से स्वस्थ एवं उज्ज्वल प्रतीत होता है, जिसमें नारी प्रत्येक क्षेत्र में अपने सशक्त  किरदार सहित उभरकर सामने आ रही है। निश्चय ही बदलती तस्वीर का यह रुख उत्साहवद्र्घक होने के साथ आधी आबादी को पूरा सम्मान मिलने का तुष्टिभाव जगाता है, किंतु जैसे ही रुख पलटते हैं, नारी शुचिता पर हावी होने का प्रयास करते नरभक्षकों की घृणित मानसिकता देखकर स्तब्ध रह जाते हैं। 

शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद आज भी समाज में ऐसा वर्ग विद्यमान है, जिसकी निकृष्ट निगाहों में नारी ‘भोग्या’ से अधिक कुछ नहीं। नैसॢगक प्रतिभा तथा कठोर साधना के बलबूते मिली नारी की प्रत्येक उपलब्धि को ‘विशेष अनुकम्पा’ सोच के घटिया तराजू से तोलना अथवा पद-प्रतिष्ठा का अनुचित लाभ उठाते हुए उसके भविष्य पर दाव खेलना, ऐसे लोगों की फितरत में आम देखा जा सकता है। उपरोक्त  मामले में भी कथित तौर पर महिला खिलाडिय़ों से शारीरिक जांच प्रक्रिया की आड़ में ओछी हरकतें की गईं। भविष्य को लेकर बना मानसिक दबाव एक लंबे समय तक चुप्पी के दंश से जूझने का कारण बना; यदि जांच में यह सत्य साबित होता है तो एक बड़ा प्रश्नचिन्ह उन नियमों-कानूनों पर भी उठता है, जो नारी यौन उत्पीडऩ के नाम पर अपने अस्तित्व का दम भरते नजर आते हैं। 

दरअसल, नारी अस्मिता एक बेहद संवेदनशील विषय है, जिसमें किंचित मात्र अभद्रता भी मान्य नहीं। इसके विरोध में सामाजिक स्वर का एकजुट होकर मुखर होना जितना आवश्यक है, उससे भी कहीं अनिवार्य है इस विषय में व्यवस्थात्मक स्तर पर कठोर, त्वरित एवं निष्पक्ष संज्ञान लेना। मामले के राजनीतिकरण अथवा राजनीतिक पराश्रय की आड़ में दबंगई पर उतर आना, दोनों ही स्थितियां स्वस्थ समाज की स्थापना में बाधक हैं। 

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान के अग्रणी प्रांत रहे हरियाणा की अंतर्राष्ट्रीय पदक विजेता बेटियां न्याय पाने की अपेक्षा में यदि कथित तौर पर पुलिस-दुव्र्यवहार अथवा सत्तात्मक उदासीनता झेलती हैं तो यह पूरे राष्ट्र के लिए लज्जा का विषय है। ऐसे परिदृश्य में नारी सशक्तिकरण संबंधी सभी दावे खोखले प्रतीत होने लगते हैं। अन्याय-उपेक्षा की कलुष छाया उन बालिकाओं के भविष्य को भी संदेहात्मक चपेट में लेने लगती है, जिनकी प्रदर्शन योग्यता अभी अपने प्रारम्भिक चरण में है। 

गौरतलब है, विगत 11 वर्षों से भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यू.एफ.आई.) के प्रमुख तथा 6 बार भाजपा सांसद रहे बृजभूषण सिंह कुछ विद्यालयों-महाविद्यालयों पर भी स्वामित्व का अधिकार रखते हैं। पूर्व में भी उन पर कई प्रकार के आक्षेप लगते रहे किंतु इस विषय में किसी ठोस प्रक्रिया का संज्ञान नहीं आता। 

सत्ता प्रभाव के उदाहरणों में नारी गौरव उपेक्षा से ही जुड़ा बिलकिस बानो प्रकरण कैसे विस्मृत कर सकते हैं? ज्ञातव्य है, गोधरा कांड के पश्चात भड़के दंगों के दौरान 5 माह की  गर्भवती 21 वर्षीय बिलकिस बानो के साथ सामूहिक दुष्कर्म करने एवं उसकी तीन वर्षीय बेटी सहित 7 परिजनों की बर्बरतापूर्वक हत्या करने में संलिप्त पाए गए 11 दोषियों को मुंबई की विशेष सी.बी.आई. अदालत द्वारा 21 जनवरी, 2008 को आजीवन कारावास की सजा सुनाने के बावजूद, गत 15 अगस्त को गुजरात सरकार ने उनको समय पूर्व रिहाई लाभ प्रदान करने का निर्णय सुनाया, जबकि गुजरात में कैदियों की सजा माफी के लिए 2014 में गृह विभाग द्वारा जारी नए दिशा-निर्देश व नीतियां कहती हैं कि दो या इससे अधिक लोगों की सामूहिक हत्या या दुष्कर्म करने वाले कैदियों की सजा माफ नहीं की जाएगी, न ही समय पूर्व उन्हें रिहाई दी जाएगी। 

स्पष्ट है, सत्ता के प्रभावाधीन ही बिलकिस मामले में नियम लागू नहीं किए गए। फैसले के विरुद्घ बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं दाखिल कीं। मामले की अंतिम सुनवाई होनी बाकी है। जघन्यतापूर्वक नारी शीलहरण करने वाले एवं मानवीयता के हत्यारे रिहाई लाभ के पात्र कैसे हो सकते हैं; प्रश्न केवल बिलकिस बानो का न होकर समूची नारी जाति का है, क्योंकि यहां ‘बिलकिस’ नाम किसी मजहब विशेष से संबद्घ न होकर सामूहिक रूप में नारी अस्मिता का प्रतिनिधित्व करता है। 

न्याय न मिल पाना अथवा राजनीतिक पराश्रय में अपराधियों का खुलेआम घूमना, न केवल न्यायिक आस्था पर प्रहार करते हैं बल्कि विद्रोह का कारण भी बनते हैं। हमें हर हाल में तस्वीर का दूसरा रुख सुधारना ही होगा। बहरहाल, भारतीय ओलंपिक संघ ने भारतीय कुश्ती महासंघ के विरुद्घ कड़ा कदम उठाते हुए अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह सहित सभी निवर्तमान पदाधिकारियों के प्रशासनिक कार्य पर रोक लगा दी, साथ ही डब्ल्यू.एफ.आई. के महासचिव वी.एन. प्रसूद को तत्काल सभी दस्तावेज व खातों का संचालन एडहॉक कमेटी को सौंपने के निर्देश दिए हैं। न्याय सदैव सर्वोच्च माना गया है, पद-प्रतिष्ठा-सत्ता, सभी से ऊपर। प्रत्येक स्थिति में इसकी सर्वोच्चता अप्रभावित रहनी चाहिए, यही स्वस्थ समाज की दरकार है।-दीपिका अरोड़ा
 


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