2019 के आम चुनावों तक क्या ‘महागठबंधन’ की एकता बनी रहेगी

Monday, May 28, 2018 - 03:25 AM (IST)

कांग्रेस के साथ जनता दल सैकुलर (जद-एस) के गठबंधन का जश्र मनाने के लिए बेंगलूरू में विपक्षी नेताओं के जमावड़े का क्या महत्व है? उन्हें कौन-सी बात इस एकता के लिए धकेल रही है और अगले 12 महीनों बाद जब भारत आम चुनावों का सामना करेगा तो क्या तब तक यह एकता जिंदा रह पाएगी? 

आइए हम इसकी पड़ताल करें और सर्वप्रथम उन नेताओं पर दृष्टिपात करें जिन्होंने बेंगलूरू के तमाशे में शामिल न होने का फैसला लिया था। ओडिशा में नवीन पटनायक के अपने ही जनता दल का एक गुट यानी बीजू जनता दल सत्तासीन है। 2014 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी 43 प्रतिशत वोट हिस्सेदारी से विजयी हुई थी जबकि भाजपा और कांग्रेस को क्रमश: 18 तथा 25 प्रतिशत वोट मिले थे। 

इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि नवीन बेंगलूरू में क्यों नहीं पहुंचे थे। उनके लिए कांग्रेस यदि भाजपा से बड़ी नहीं तो कम से कम उसके बराबर की चुनौती तो अवश्य है। भविष्य में यह समीकरण बदल भी सकता है और यह देख पाना मुश्किल नहीं कि अगले वर्ष तक भाजपा पटनायक को आगे-आगे दौड़ा रही होगी लेकिन फिलहाल उन्हें अपने विकल्प बंद करके रखने की कोई जरूरत नहीं और ऐसे में वह वहीं काम कर रहे हैं जो एक होशियार व्यक्ति को करना चाहिए, यानी कि वह हवा का रुख पढ़ रहे हैं। 

भाजपा के साथ वह अतीत में गठबंधन कर चुके हैं। अब 2019 के चुनाव का निर्णय होने से पूर्व उन्हें राहुल गांधी से हाथ मिलाने में कोई तुक दिखाई नहीं देता। तेलंगाना में भी विपक्ष का नेता एक कांग्रेसी ही है और इस बात की पूरी सम्भावना है कि आम चुनाव होने तक यही स्थिति बनी रहेगी। इस राज्य में भाजपा कोई बहुत बड़ी राजनीतिक शक्ति नहीं है, लेकिन कांग्रेस वहां राजनीतिक शक्ति है और किसी हद तक इसी रूप में बनी रहेगी। इसी कारण मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव भी गौड़ा पिता-पुत्र को मिलने बेंगलूरू नहीं आए थे और न ही वह विपक्षी नेताओं की एकता रैली में शामिल हुए थे। 

अब जरा उन लोगों पर दृष्टिपात करें जो एकता रैली में शामिल हुए थे। बिहार का मतदाता काफी हद तक विभाजित है। 2015 में भाजपा को हराने वाले लालू यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस के महाजोड़ ने 40 प्रतिशत से अधिक वोट हासिल किए थे। इस गठबंधन के मुख्य घटकों यानी दोनों जनता दल की वोट हिस्सेदारी लगभग बराबर थी। बाद में नीतीश कुमार का गुट यानी जद (यू) तो भाजपा के साथ चला गया जबकि लालू यादव अपने जनता दल सहित कांग्रेस के साथ टिके रहे। बिहार में कोई भी पार्टी अकेले दम पर अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित नहीं कर सकती। ऐसे में दोनों ही जनता दलों का गठबंधनों के अंदर टिके रहना समझदारी की ही बात है। कागजी दृष्टि से देखा जाए तो नीतीश-भाजपा गठबंधन बहुत मजबूत है और लालू यादव के परिवार के लिए सिवाय इसके कोई विकल्प नहीं कि वह किसी अन्य जगह जाकर आश्रय ढूंढे। यही कारण है कि भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी एकता प्रयासों के लिए इतना उत्साह देखने में आ रहा है। 

उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में वोट हिस्सेदारी इस प्रकार थी-भाजपा 41 प्रतिशत, सपा 28 प्रतिशत, बसपा 22 प्रतिशत। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने 2012 में 29 प्रतिशत वोट हिस्सेदारी से ही बहुमत हासिल कर लिया था और इसी कारण यह इस हिस्सेदारी को बचाए रखने के लिए जी-जान से प्रयास करती रही है। जब मोदी ने केन्द्रीय राजनीति में दस्तक दी तो उसके बाद ही भाजपा यू.पी. में कहीं अधिक बड़ी शक्ति बन पाई। उत्तर प्रदेश में सत्ता के लिए मुख्य तौर पर मायावती और यादवों के बीच प्रतिस्पर्धा चलती है लेकिन दोनों का सौभाग्य यह है कि 2019 में इस प्रदेश में कोई विधानसभा चुनाव नहीं होने वाला। इससे इन दोनों पार्टियों के लिए भाजपा के विरुद्ध एकता प्रयास करना आसान हो गया है। लेकिन जैसे ही प्रदेश की सत्ता में हिस्सेदारी का मुद्दा उभरेगा, यह एकता धराशायी हो जाएगी। फिलहाल तो ओ.बी.सी. +मुस्लिम+दलित गठबंधन बहुत विराट होने का आभास दे रहा है। वैसे वोट हस्तांतरण का गणित इतने सरल ढंग से काम नहीं करता।

चुनाव विश्लेषक दोराब सुपारीवाला ने बहुत पहले कहा था कि भारत में गठबंधन इसलिए कारगर होते हैं क्योंकि वे जातियों के भी गठबंधन होते हैं। अधिकतर पार्टियां बहुत हताश हो चुकी हैं और दशकों तक विपक्ष में बने रहना नहीं चाहतीं। बंगाल में जहां लोकसभा की 42 सीटें हैं, वहां वामपंथ धराशायी हो चुका है और कांग्रेस अप्रासंगिक बनकर रह गई है। भाजपा मुख्य विपक्षी पार्टी बन गई है और ऐसे में ममता को मोदी विरोधी गठबंधन में शामिल होने में कोई समस्या दिखाई नहीं देती। महाराष्ट्र में बंगाल की तरह कांग्रेस दोफाड़ हुई थी लेकिन वहां शरद पवार ममता की तरह पूरी पार्टी पर वर्चस्व बनाने में सफल नहीं हुए। फिर भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का एकजुट होना भाजपा के लिए समस्याएं पैदा कर सकता है। 

महाराट्र में भाजपा का वोट बैंक उत्तर भारतीय राज्यों जैसा ठोस नहीं है। गत विधानसभा चुनाव में इसकी समूची वोट हिस्सेदारी केवल 27 प्रतिशत थी (वैसे इसने सभी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा था।) फिर भी बहुमत के करीब पहुंच गई थी। शिवसेना सहित दूसरी तीनों पाॢटयों में से हरेक ने 18-18 प्रतिशत के लगभग वोट हासिल किए थे। कांग्रेस और राकांपा में गठबंधन बनने का मुख्य कारण यह है कि उनमें लगभग वैचारिक समानता है। फिर भी दो दशकों से उनके बीच गठबंधन असुखद ही रहा है। इसके बावजूद 2019 में दोनों पार्टियां सम्भवत: बिना किसी समस्या के मिलकर चुनाव लड़ेंगी। आंध्रप्रदेश में वाई.एस. जगनमोहन रैड्डी ही प्रमुख विपक्षी शक्ति है। 

बंगाल की तरह यहां भी करिश्माई स्थानीय नेता कांग्रेस पार्टी पर हावी हो गया और इसके आधारभूत ढांचे के साथ-साथ पूरे नेतृत्व को हथिया कर ले गया। चंद्रबाबू नायडू के लिए अपने विकल्प खुले रखना समझदारी की बात है क्योंकि स्थानीय राजनीति में उन्हें चुनौती केवल भाजपा की ओर से ही नहीं मिल रही। भाजपा की रणनीति यह सुनिश्चित करना होगी कि यह उन पार्टियों को अपने विरुद्ध भड़कने का मौका न दे जो इस गठबंधन में शामिल नहीं हुई हैं, खासतौर पर तमिल पार्टियां। ये पार्टियां चुनाव के बाद गठबंधन बनाने के लिए तैयार होंगी। जहां तक कांग्रेस का संबंध है, इसके लिए गठबंधन बनाना मजबूरी बन गया है। लेकिन स्थानीय स्तर पर व्यावहारिक रूप में इस काम को अंजाम देना इतना आसान नहीं। हाल ही के एक ओपिनियन पोल से खुलासा हुआ है कि राजस्थान में तो कांग्रेस भाजपा से आगे है लेकिन हैरानी की बात है कि मध्य प्रदेश में लगातार 15 वर्षों से भाजपा के सत्तासीन होने के बावजूद कांग्रेस इससे आगे नहीं बढ़ पाई। मध्य प्रदेश में 2013 में बसपा ने केवल 4 सीटें जीती थीं जो अब घटकर 3 रह गई हैं लेकिन इसके बावजूद उसकी वोट हिस्सेदारी का आंकड़ा 6 प्रतिशत से ऊपर बना हुआ है। 

बसपा के साथ कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व के लिए गठबंधन बनाना नाकों चने चबाने जैसी बात होगी क्योंकि इसके प्रादेशिक नेता उस स्थिति में कांग्रेस को ज्यादा रियायत देने के लिए तैयार नहीं होंगे जब उन्हें स्वयं जीतने की सम्भावना दिखाई देती हो। लेकिन यदि किसी तरह मध्यप्रदेश में बसपा के साथ इसका गठबंधन हो जाता है तो यह भाजपा को दो दशकों का निर्बाध शासन पूरा करने से पहले-पहले रोक सकती है। इस प्रकार के गठबंधन बनाने के लिए नेहरू-गांधी परिवार को बहुत अधिक राजनीतिक परिपक्वता दिखानी होगी। लेकिन यदि यह परिवार इसको अंजाम देता है तो 2019 के चुनाव पर नजरें जमाए रखना हम सभी पाॢटयों के समर्थकों के लिए बहुत दिलचस्पी भरा होगा।-आकार पटेल

Pardeep

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