क्या कश्मीर में ‘नाराजगी’ की आग मोदी के बयान के बाद ठंडी होगी

Thursday, Aug 17, 2017 - 11:23 PM (IST)

अल्पकाल में यह कॉलम पुन:कश्मीर संकट की ओर लौट रहा है। हाल ही में मुख्य रूप से दो कारणों से घाटी पुन: चर्चा में है। पहला-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कश्मीरियों को गले लगाने संबंधी वक्तव्य प्रकाश में आया। दूसरा-प्रदेश को विशेषाधिकार देने वाली संवैधानिक धारा 370 और अनुच्छेद 35ए को निरस्त करने हेतु सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिकाओं व उस पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाओं से संबंधित है। 

कश्मीर बीते कई वर्षों से ‘असंतोष’ की जिस भयंकर आग में जल रहा है उसके परिणामस्वरूप यहां के अधिकतर युवा भारत की मौत की दुआ मांग रहे हैं, पाकिस्तान-आई.एस. के समर्थन में नारे लगा रहे हैं, उनके झंडे तक लहरा रहे हैं, निजाम-ए-मुस्तफा को स्थापित करना चाह रहे हैं, शरीयत कानून लागू करना चाहते हैं, सुरक्षाबलों पर पत्थर फैंके जा रहे हैं और आतंकियों के खिलाफ  सैन्य ऑप्रेशन में बाधक भी बन रहे हैं। क्या ‘असंतोष’ की ज्वाला प्रधानमंत्री के हालिया वक्तव्य के बाद ठंडी हो जाएगी? 

गत मंगलवार को स्वतंत्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ पर लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘‘कश्मीर समस्या न तो गाली से और न ही गोली से सुलझेगी बल्कि इसे कश्मीरियों को गले लगाकर सुलझाया जा सकता है।’’ विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के एक संवैधानिक पद पर आसीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह विचार निश्चय ही स्वागतयोग्य है। कश्मीर संकट को सुलझाने के लिए देश के किसी प्रधानमंत्री की ओर से यह भाव पहली बार दृष्टिगोचर नहीं हुआ है। इससे पूर्व 2004-14 तक प्रधानमंत्री रहे डा. मनमोहन सिंह ने हिंसाग्रस्त कश्मीर को शांत करने हेतु कई प्रयास किए। 

1999-2004 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ‘कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत’ नीति लेकर आए। वर्ष 1975 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने घोर सांप्रदायिक शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर उनके साथ समझौता किया। इसी के अंतर्गत कांग्रेस ने बहुमत होने के बाद भी शेख अब्दुल्ला को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। दोनों के बीच हुई इस सहमति को शेख-इंदिरा समझौता कहा जाता है। कश्मीर को लेकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने तो शेख अब्दुल्ला के पदचिन्हों पर चलते हुए जम्मू-कश्मीर की अधिकतर नीतियां निर्धारित कीं जिनमेें 1947 में पाकिस्तान के हमले में बढ़ती हुई भारतीय सेना को रोकना, विवादित धारा 370 और अनुच्छेद 35ए इत्यादि शामिल हैं। 

न केवल राजनीतिक बल्कि आर्थिक रूप से भी कश्मीर पर सरकार की ओर से कृपा बरसती रही है। एक आंकड़े के अनुसार जम्मू-कश्मीर को केन्द्र की ओर से वर्ष 2000-16 के बीच भारत के अन्य किसी राज्य की तुलना में सर्वाधिक आर्थिक सहायता और विशेष सुविधाएं मिली हैं। इन वर्षों में कुल केन्द्रीय ग्रांट का 10 प्रतिशत हिस्सा अर्थात 1.14 लाख करोड़ रुपए जम्मू-कश्मीर को प्राप्त हुए हैं। गत 70 वर्षों में कश्मीर के संबंध में पं. नेहरू से लेकर वर्तमान सत्ता-अधिष्ठानों के अथक प्रयासों का आज शेष भारत को क्या फल मिला है? क्या इन सभी कोशिशों से घाटी में ङ्क्षहसा और आतंकवाद पूरी तरह रुक गया? नहीं। 

कश्मीर में ‘असंतोष’ गरीबी, विकास और रोजगार की कमी न होकर उस दर्शन से प्रेरित है जिसने न केवल 1947 में भारत का मजहब के आधार पर रक्तरंजित बंटवारा किया बल्कि 1980-90 के कालखंड में कश्मीरी पंडितों के उत्पीडऩ के लिए प्रोत्साहित भी किया। इसी विषैले दर्शन ने आई.एस., जमात-उद-दावा, जैश-ए-मोहम्मद सहित कई आतंकी संगठनों को भी जन्म दिया है। पत्थर फैंंकने वालों, हथियार उठाने वालों और आतंकियों के मददगारों का सपना इस तपोभूमि को आई.एस. स्टेट या पाकिस्तान के संस्करण के रूप में स्थापित करना है। उनके इस नापाक खूनी उद्देश्य की पूर्ति के लिए पाकिस्तान न केवल उनको उकसाता है बल्कि उन्हें हर तरह की मदद (हथियार और धन) भी उपलब्ध करवाता है। 

कश्मीर में मजहब के नाम पर खून की होली खेलने वालों और जिन जेहादियों ने न्यूयॉर्क में 9/11 व मुंबई में 26/11 को अंजाम दिया या फिर आज जो यूरोपीय देशों और अमरीका में समय-समय पर नरसंहार करते रहते हैं, उन सभी की न केवल मानसिकता बल्कि कार्यप्रणाली और उद्देश्य भी एक है। कश्मीर में भारत का संघर्ष भूमि और लोगों पर नियंत्रण का नहीं है बल्कि यह उस मानसिकता के खिलाफ  लड़ाई है जो आतंक के बल पर कश्मीर सहित भारत में बहुलतावाद, लोकतंत्र और मजहबी आजादी को समाप्त करना चाहते हैं। 

जिस प्रकार घाटी में विषाक्त मानसिकता से ग्रस्त लोग आज देश की अखंडता, एकता, संप्रभुता और सुरक्षा के लिए चुनौती बन चुके है, उसी तरह अनुच्छेद 35ए सहित धारा 370 भारतीय गणराज्य के ताने-बाने को बीते 6 दशकों से बार-बार चोटिल कर रही है। ये धाराएं जम्मू-कश्मीर से शेष भारत के मानसिक मिलन में सबसे बड़ी अवरोधक बनी हुई हैं। जहां धारा 370 जम्मू-कश्मीर को विशेषाधिकार देती है, वहीं अनुच्छेद  35ए से प्रदेश की विधानसभा को स्थायी निवासी की परिभाषा तय करने का अधिकार प्राप्त है। इसके सबसे बड़े शिकार 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से आए ङ्क्षहदू शरणार्थी हुए हैं जिनकी वर्तमान समय में प्रदेश में संख्या 3 लाख से भी अधिक है। 

अनुच्छेद 35ए पर सवाल इसलिए उठाया गया है क्योंकि इसे संविधान में शामिल करने से पहले अन्य अनुच्छेदों की तरह संसद में चर्चा नहीं हुई और न ही यह संसद से पारित हुआ। वास्तव में इस अनुच्छेद को वर्ष 1954 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति के अधिकारों का उपयोग करते हुए धारा 370 में प्रदत्त ‘संविधान आदेश 1954’ को लागू किया था। गत माह केन्द्र सरकार ने इस अनुच्छेद पर वृहद चर्चा की आवश्यकता पर बल दिया है जिसका प्रदेश में भारी विरोध हो रहा है। धारा 370 के अंतर्गत यह प्रावधान है कि रक्षा, विदेशी और संचार मामलों के अतिरिक्त संघ व समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर भारतीय संसद राज्य सरकार की सहमति के बिना कानून नहीं बना सकती है। यही नहीं, भारत के अन्य राज्यों में लागू कई कानून जम्मू-कश्मीर में प्रभावी नहीं हैं। 

देश के गणराज्य स्वरूप पर आघात करने वाले इस प्रावधान का जनसंघ के संस्थापक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कड़ा विरोध किया था। उनके बलिदान के बाद ‘दो प्रधान, दो निशान’ विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत समाप्त हो गए। सन् 1956 में भारत सरकार ने संविधान में 7वां संशोधन कर जम्मू-कश्मीर को अपना अभिन्न अंग बना लिया, किंतु धारा 370 के माध्यम से ‘दो विधान’ अब भी कायम हैं। इन्हीं धाराओं के कारण ही कश्मीर पूर्ण रूप से राष्ट्र की मुख्यधारा से जुडऩे की बजाय अलगाववाद और आतंकवाद से जकड़ा हुआ है जिसका लाभ उठाकर पाकिस्तान सहित अन्य विदेशी शक्तियां देश को अस्थिर करने में लगी हैं। इसी कारण देश के अंदर ही एक मिनी पाकिस्तान सृजित हो गया है जहां तिरंगे को जलाया जाता है और मस्जिदों से भारत की मौत की कामना की जाती है। 

जम्मू-कश्मीर शेष देश के अन्य राज्यों की भांति विकास धारा में शामिल हो, उसके नागरिकों को सभी मौलिक अधिकार व सुख-सुविधाएं प्राप्त हों, किंतु  इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि इन सभी मूल्यों के लिए देश की अखंडता, सुरक्षा और संप्रभुता से समझौता कर लिया जाए। यह विचार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वक्तव्य से भी स्पष्ट है। साथ ही यह घाटी में आतंकियों के सफाए के लिए चलाए गए ‘ऑप्रेशन ऑल आऊट’ और पाकिस्तान से वित्त पोषित हुर्रियत नेताओं पर कार्रवाई से भी परिलक्षित होता है। यदि भारत की अखंडता और संप्रभुता को सुरक्षित रखना है तो हमें कश्मीर सहित देश में उस जहरीली विचारधारा से निरंतर संघर्ष करना होगा जो बाहरी और भीतरी शक्तियों को बार-बार भारत को बांटने के लिए उकसाती है। इसी पृष्ठभूमि में कश्मीर समस्या के स्थायी हल हेतु प्रधानमंत्री के संकेतों और धारा 370 व अनुच्छेद 35ए का भविष्य क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा।    

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