क्या अयोध्या मामले से भाजपा को ‘राजनीतिक निर्माण’ मिलेगा

Tuesday, Jan 08, 2019 - 03:42 AM (IST)

चाहे धर्म हो, दंगे हों या घोटाले, राजनेता हर किसी मुद्दे पर अपने दृष्टिकोण को सबसे अच्छा दृष्टिकोण मानते हैं और जब अपना सत्ता का आधार बचाने की बात आती है तो वे सत्ता के भक्त बन जाते हैं और कट्टरपंथी बन जाते हैं। संघ परिवार द्वारा अयोध्या मुद्दे पर जारी जेहाद इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इसकी शुरूआत पिछले अक्तूबर में हुई जब उत्तर प्रदेश सरकार ने उच्चतम न्यायालय से अनुरोध किया कि वह 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को चुनौती देने वाली 16 अपीलों पर तत्काल सुनवाई करे। 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामले में 2.77 एकड़ भूमि के बारे में निर्णय दिया था कि इसे रामलला, सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े के बीच बराबर बांट दिया जाए और उच्तचम न्यायालय ने इस मामले को 4 जनवरी तक के लिए टाल दिया था। इससे नाराज हिन्दुत्व ब्रिगेड ने सरकार से मांग की कि वह इस संबंध में अध्यादेश जारी करे जिसे प्रधानमंत्री ने यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया था कि इस बारे में कोई भी निर्णय न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद लिया जाएगा। किंतु उच्चतम न्यायालय ने फिर से संघ परिवार की इच्छानुसार निर्णय नहीं लिया और इस मामले में अगली सुनवाई की तारीख 30 सैकेंड के भीतर 10 जनवरी की निर्धारित कर दी। 

समय को लेकर उठते प्रश्र
अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को लेकर उठाए जा रहे शोर के समय के बारे में अनेक प्रश्न उठते हैं। इसकी तात्कालिकता क्या है? चुनावों के लिए भाजपा के लिए अयोध्या मुद्दा महत्वपूर्ण क्यों है? चुनाव के समय ही संघ परिवार इस मुद्दे को क्यों उठाता है? 1989 से यही स्थिति है। संघ परिवार चुनाव आते ही इस मुद्दे को उठा देता है और इससे  चुनावी लाभ उठाता है। 1989 में राम मंदिर के शिलान्यास से लेकर संघ परिवार के लिए अयोध्या एक केन्द्रीय बिन्दू बन गया है। विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल इसे राष्ट्रवाद का मुद्दा तथा भारतीय चेतना का केन्द्र बताते हैं। अडवानी की रथ यात्रा ने इसे हिन्दू राष्ट्रवाद का स्वरूप दिया। उसके बाद कार सेवा की गई और 1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया गया। संघ परिवार कोई भी चुनाव आने से कुछ माह पूर्व अयोध्या में मंदिर निर्माण का वायदा करता है। 1991 में उसने ऐसा किया और भाजपा ने इसका लाभ उठाया। 1984 में भाजपा के लोकसभा में 2 सदस्य थे जो 1991 में 91 तक पहुंच गए और उसके बाद केन्द्र और राज्यों में भाजपा को इससे लाभ मिलता रहा। 1996 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा अकेली सबसे बड़ी पार्टी बनी। 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वायदा किया कि वर्ष 2000 तक मंदिर का निर्माण शुरू हो जाएगा। 2004 और 2009 में भी यही स्थिति रही। 

प्रासंगिकता खो रहा मुद्दा 
आज भाजपा के लोकसभा में 273 सांसद हैं और उत्तर प्रदेश में उसकी सरकार है। किंतु शेर आया, शेर आया की तरह यह मुद्दा अपनी प्रासंगिकता खो रहा है। उच्च जाति के हिन्दुओं का भाजपा से मोह भंग हो रहा है और कुछ  लोग पुन: कांग्रेस की ओर देखने लग गए हैं जबकि नई पीढ़ी इसे मुद्दा ही नहीं मानती। वह रोजगार, आर्थिक विकास, जीवन की गुणवत्ता इन्हें ज्यादा महत्व देती है जबकि उच्चतम न्यायालय ने विवादित स्थल पर यथास्थिति बनाने का आदेश दिया है और संघ परिवार को लगने लगा है कि इस मुद्दे से अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकता फिर भी वह इसे छोडऩा नहीं चाहता। 

हाल के सप्ताहों में अयोध्या मुद्दे का फिर गर्माना विरोधाभास है क्योंकि 2014 में भाजपा अच्छे दिन, रोजगार, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और नए भारत के निर्माण के वायदे से जीती थी। किंतु हाल के विधानसभा चुनावों में 3 बड़े राज्यों में भाजपा की हार और आम आदमी का भाजपा से मोह भंग होने के कारण भाजपा की हताशा समझी जा सकती है और इसलिए वह आम चुनावों के लिए नया फार्मूला तलाश रही है। एक वर्ष पूर्व की तुलना में आज भाजपा की जीत अनिश्चित लग रही है इसलिए अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे को पुन: उछाला गया है और भाजपा को आशा है कि इससे हिन्दू वोट एकजुट होंगे और उसे पुन: भारत की राजगद्दी पर बैठाएंगे। 

इस मुद्दे को आगे करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अग्रणी भूमिका है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक ने कहा है कि अयोध्या में केवल राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा तो दूसरी ओर विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि न्यायालय के निर्णय के लिए हिन्दू अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं। भगवा ब्रिगेड भी दुविधा की स्थिति में है कि वह सरकार का रुख अपनाए या इस मुद्दे पर अपने आंदोलन को आगे बढ़ाए। वर्तमान में मोदी समर्थक गुट यथास्थिति बनाए रखना चाहता है और वह राम मंदिर के निर्माण के लिए माहौल बनाना चाहता है, जबकि कट्टरवादी गुट इस मुद्दे पर पांव पीछे खींचने से नाराज हैं। परिवार में कुछ लोगों का मानना है कि संघ इस आंदोलन को कमजोर होने नहीं दे सकता है इसीलिए अयोध्या मुद्दे को पुन: उछाला गया है। यदि सरकार और अपने संगठन में से किसी एक को चुनने की बारी आई तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संगठन को चुनेगा, हालांकि केन्द्र के निर्णयों और नीतियों से वह लाभान्वित हुआ है। 

करो या मरो का संघर्ष
भाजपा के लिए अयोध्या करो या मरो का संघर्ष है क्योंकि उत्तर प्रदेश से लोकसभा में 80 सीटें हैं और उसे आशा है कि भगवान राम उस पर कृपा करेंगे। हार का मतलब है भारत पर शासन करने और कांग्रेस मुक्त भारत का सपना टूट जाएगा और उसके राजनीतिक अस्तित्व के लिए संकट पैदा हो जाएगा। लगता है मोदी सरकार के पास अब समय नहीं है क्योंकि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए संघ समर्थक अपनी रूपरेखा तय करने लगे हैं और इसीलिए हिन्दुत्व ब्रिगेड चिर-परिचित फार्मूले पर उतर आई है और उन्होंने मंदिर को फिर से मुख्य मुद्दा बनाया है जिससे फिर मतदाताओं का धु्रवीकरण किया जा सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद ने प्रत्येक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में धर्म संसद आयोजित करने की योजना बनाई है। विश्व हिन्दू परिषद अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए जन समर्थन जुटाने हेतु घर-घर अभियान की तैयारी शुरू कर रहा है। यह मुद्दा हमेशा से उनकी धर्म आधारित राजनीति का हिस्सा रहा है।


अयोध्या मुद्दे को पुन: केन्द्र में लाने से भाजपा के कार्यकत्र्ताओं और परंपरागत मतदाताओं में आगामी लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी के प्रति कुछ विश्वसनीयता बढ़ेगी। किंतु क्या मोदी की राजग सरकार संघ के इस कदम का समर्थन करेगी? भाजपा के एक राज्यसभा सदस्य ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि वह राम मंदिर के निर्माण के लिए एक गैर-सरकारी सदस्य का विधेयक पेश करेगा क्योंकि राम मंदिर हिन्दू समाज की उच्च प्राथमिकता है। कुल मिलाकर विवादित स्थल से मस्जिद हटा दी गई है और अब वहां पर कुछ एकड़ भूमि पड़ी हुई है जो कानूनी विवाद में फंसी पड़ी है। क्या मोदी सरकार भाजपा के कुछ मित्रों और सहयोगियों के विरोध के बावजूद अयोध्या मामले में जुआ खेलेगी? पार्टी दुविधा में है और फिलहाल भाजपा इस मुद्दे पर अनेक कठिनाइयों का सामना कर रही है। राजनीति वास्तव में विडंबनाओं भरी है। देखना यह है कि क्या अयोध्या आगामी चुनावों में नमो और संघ का अंत करेगी या इससे उन्हें राजनीतिक निर्माण प्राप्त होगा?-पूनम आई. कौशिश

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