क्या राजनीति के ‘दोनों छोर’ पर शिवसेना खेल पाएगी

Sunday, Dec 01, 2019 - 12:46 AM (IST)

3 दलों वाली महा विकास अघाड़ी सरकार ने इस धारणा को सुनिश्चित किया है कि महाराष्ट्र की राजनीति में अव्यवस्था है। शिवसेना के गठबंधन के साथ भाजपा ने चुनावों में क्लीन स्वीप करने की उम्मीद जताई थी मगर अब यह सिकुड़ कर रह गई है और गठबंधन से बाहर निकल विपक्ष में बैठने को विवश हो गई है। इसके विपरीत कांग्रेस तथा राकांपा को यह आशंका थी कि वे भाजपा-शिवसेना सरकार के गठन के बाद हाशिए पर चली जाएंगी मगर वक्त ने करवट बदली और ये दोनों पार्टियां सत्ता में आ गईं। अब प्रश्र यह है कि आखिर यह सरकार कब तक चलेगी और भाजपा को इससे कितनी क्षति होगी।

कपटी चुनौतियों से कैसे निपटेगा यह गठबंधन
अघाड़ी गठबंधन कपटी चुनौतियों से कैसे निपटेगा, यह पहला सवाल है। सबसे पहली बात यह है कि भाजपा से पैदा हुई घृणा ने इन तीनों दलों को एक साथ संजो कर रखा। अब यह देखना है कि ये तीनों दल कितनी देर तक एक-दूसरे के बनकर रहेंगे। 1977 में जनता पार्टी इंदिरा गांधी की कांग्रेस को हरा कर बिखरना शुरू हो गई थी क्योंकि वह इंदिरा को अपने लिए घातक नहीं समझती थी। यह गठबंधन मुम्बई तथा दिल्ली में भाजपा से दृढ़ संकल्प विपक्ष का मुकाबला करेगा। शिवसेना, राकांपा तथा कांग्रेस को जरूरत इकठ्ठे होकर चलने की है।

तीनों दलों की विचारधारा अलग-अलग
हालांकि अन्य चुनौतियां भी इस गठबंधन के लिए ज्यादा विकट होंगी। पहली बात यह है कि तीनों दल अलग-अलग विचारधारा रखते हैं। जहां एक ओर शिवसेना हिंदुत्व के लिए प्रतिबद्ध है, वहीं अन्य दो दल धर्मनिरपेक्षता के लिए बाध्य हैं। शिवसेना द्वारा वीर सावरकर को सम्मानित करने की बात पर ये तीनों दल अलग-अलग विचारधारा रखते हैं। अब कांग्रेस इस विषय में क्या नीति अपनाती है, यह देखना होगा। यदि यह इंदिरा गांधी के आदर को मानती है तो फिर इनमें फर्क छोटा रह जाएगा। यदि यह सोनिया तथा राहुल गांधी को सम्मान देती है तो फिर एक खतरनाक फासला उभरकर आएगा।

दूसरी चुनौती अजीत पवार की है। हालांकि अजीत पर अपने चाचा शरद पवार को धोखा देने का आरोप लगा मगर चाचा ने उसको पार्टी से बाहर नहीं किया। इसमें कोई शक नहीं कि पार्टी में वापसी करने के बाद वह कोई अन्य विशेष पद हासिल करेंगे? कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुर्जेवाला ने मांग की थी कि अजीत महाराष्ट्र के लोगों से माफी मांगें। यदि वह ऐसा नहीं करते और इसके विपरीत वह सरकार में कोई ऊंचा पद पाते हैं तो कांग्रेस तथा शिवसेना को इससे जलन होगी।

उद्धव ठाकरे को कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं
तीसरी चुनौती शिवसेना के व्यवहार से उत्पन्न होती है। राज्य के नए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं है। पिछली बार भाजपा संग 5 वर्षों तक चली सरकार में वह कम ही एक विपक्षी के तौर पर अपने आप को प्रस्तुत कर पाए। मुम्बई में उन्होंने अपनी ही सरकार की नीतियों का सार्वजनिक तौर पर विरोध किया और दिल्ली में उद्धव ने शिवसेना के मुख पत्र ‘सामना’ के माध्यम से मोदी और शाह की आलोचना की। क्या राजनीति के दोनों छोर पर शिवसेना खेल पाएगी? क्या पुरानी आदतें इतनी आसानी से बदल जाएंगी?

बहुत कुछ उद्धव ठाकरे पर निर्भर करता है। वह आसानी से ‘सामना’ को चला सकते हैं तथा इसके सम्पादक संजय राऊत पर अंकुश लगा सकते हैं। मगर प्रशासन में अपने कम अनुभव का उद्धव क्या करेंगे? क्या तीन दलों की सरकार को चलाने के लिए वह अपने आपको इसके अनुरूप ढाल लेंगे? क्या उनके पास समझौतों को बनाने की योग्यता है या फिर अपने सहयोगी दलों द्वारा खींची गई सीमा की रेखाओं को पार कर सकेंगे। शरद पवार की उपस्थिति नि:संदेह उद्धव को राह दिखाएगी। नि:संदेह उद्धव ठाकरे अब मुख्यमंत्री हैं तथा उनकी सरकार की दीर्घायु उनकी योग्यताएं निर्धारित करेगी।

अब अघाड़ी गठबंधन के पास कॉमन मिनिमम प्रोग्राम है। किसानों की भलाई का कार्य उनकी सर्वप्रथम प्राथमिकता रहेगी। मगर उन परियोजनाओं का क्या होगा जिन पर करोड़ों रुपए दाव पर लगे हैं। इन परियोजनाओं को पिछली सरकार ने शुरू किया था जिसका हिस्सा शिवसेना थी। मिसाल के तौर पर क्या कांग्रेस तथा राकांपा मुम्बई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन का समर्थन करेंगी। 46 हजार करोड़ वाले मुम्बई-नागपुर हाईवे का अब क्या होगा? इसी को लेकर कांग्रेस तथा राकांपा विपक्ष में बैठकर भ्रष्टाचार के आरोप लगाती रही हैं। अब क्या दोनों दल इसकी अनदेखी करेंगे? कोंकण तट पर जैतपुर न्यूक्लियर रिएक्टर्स की भी बात आती है जिसे कांग्रेस ने शुरू किया था। तब भूमि अधिग्रहण का शिवसेना ने विरोध किया था। मगर क्या रिएक्टर्स वाली परियोजना को तोड़ा जाएगा? मुम्बई की 6 उत्कृष्ट मैट्रो परियोजनाएं भी हैं। आदित्य ठाकरे ने आरे वन का विरोध किया था।

मोदी और शाह के लिए इससे पार पाना कितना मुश्किल
इन सब के विपरीत भाजपा की छवि को क्षति पहुंचाना और मोदी व शाह के लिए इससे पार पाना कितना मुश्किल होगा। नई सरकार के लिए यह शक्ति का स्रोत हो सकता है। अन्य दो मुद्दों पर भाजपा को गंभीर रूप से क्षति पहुंची। पहला अपराजेय की आभा भाजपा को देखने को मिली और फिर चाणक्य जैसी कूटनीति वाली प्रतिभा ने मोदी और शाह के इर्द-गिर्द एक प्रभा मंडल बना डाला। इससे न केवल उनकी राजनीतिक कूटनीति असफल हुई बल्कि यह एक मूर्खतापूर्ण जुआ भी साबित हुई। इन बातों की तो कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए थी। सब कुछ जानने के उपरांत भी आप इसमें सफल नहीं हो पाए, यह चिंता वाली बात है। 

दूसरी बात प्रधानमंत्री की छवि को भी क्षति पहुंची। वह संविधान की भावना के बारे में भाषण देना बहुत पसंद करते हैं मगर महाराष्ट्र में इस सबका उल्लंघन हुआ। पहले तो अपने आशीर्वाद के साथ अजीत पवार से मिल कर सरकार का गठन कर डाला, उनको ट्वीट कर मोदी ने बधाई भी दे दी मगर उसके बाद जो कुछ हुआ, वह जगजाहिर है। रूल-12 के इस्तेमाल से प्रात: 5.47 पर राष्ट्रपति शासन को हटाने का निर्णय लिया गया जोकि बहुत जल्दबाजी में था और उन्होंने इसकी प्रासंगिकता का अनुमान भी नहीं लगाया। यह गैर कानूनी नहीं बल्कि पूरी तरह से अनुचित बात थी। इसने मोदी की छवि को धूमिल किया। इससे कितनी जल्दी वह पार पाएंगे, यह कहना कठिन है। 

हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह जुझारू नेता हैं मगर अब उनको चोट पहुंची है तो उनके हाथ असफलता भी लगी है। इस सारे घटनाक्रम के बाद उनके लिए बुलंदियों को फिर से छूना एक कठिन कार्य लग रहा है। उनके पास अब विधानसभा में 105 विधायक हैं। भाजपा महाराष्ट्र में एक शक्तिशाली विपक्ष बन कर बैठेगी, वहीं दिल्ली में बैठ मोदी तथा शाह महाराष्ट्र सरकार से भिडऩे तथा इस पर अंकुश लगाने को कतराएंगे नहीं। जैसे ममता बनर्जी से पार पाया गया, वह महाराष्ट्र में भी घटेगा।

अघाड़ी गठबंधन भारत की व्यापारिक राजधानी तथा सबसे अमीर राज्य को 5 वर्षों तक नियंत्रित करेगा और यह भाजपा को गिराने तथा उसको घटाने वाले घटनाक्रमों को प्रोत्साहित करेगा। आखिरकार कांग्रेस-राकांपा गठबंधन ने महाराष्ट्र में 1999 में कई विकास कार्यों को अंजाम दिया जिससे अटल बिहारी वाजपेयी की 2004 में शिकस्त हुई। ऐसा कोई भी कानून नहीं जो यह बताता हो कि इतिहास अपने को दोहरा नहीं सकता।  — करण थापर  karanthapar@itvindia.net

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