क्या गांवों के लोग ‘झोलाछाप’ डाक्टरों के रहमो-करम पर रहेंगे

Tuesday, Nov 14, 2017 - 02:55 AM (IST)

गांवों की सेहत सुविधाओं से पंजाब सरकार का हाथ पीछे खींचना बहुत बुरी बात है। देश के आजाद होने के बाद एक पहला मौका आया था जब भारत की किसी भी प्रादेशिक सरकार ने कोई ऐसी स्कीम तैयार की जिसमें शहरों से भी अधिक गांवों में सेहत सहूलियतें देने की योजना तैयार की गई थी। 

देश की प्रादेशिक सरकारों और सेहत विभाग के कर्मचारियों ने कभी भी गांवों में काम करना पसंद नहीं किया, भले ही वह पंजाब हो, बिहार हो या राजस्थान। डाक्टरों से लेकर नर्सें, फार्मासिस्ट हो या फिर स्वीपर, हर कोई शहर में काम करना चाहता है जिससे शहर की सुख-सुविधाओं का आनंद प्राप्त कर सके और अपने बच्चों को शहर के बड़े-से-बड़े स्कूल में शिक्षा दिलवा सके। बिना पानी, बिना बिजली, टूटी बिल्डिंगें और टूटे बी.पी. ऑप्रेट्स व स्टैथोस्कोप के साथ कोई भी डाक्टर गांव में काम करने के लिए राजी नहीं था। 

परंतु 2006 में पंजाब की कैप्टन अमरेंद्र सिंह सरकार ने यू.पी.ए. सरकार के फ्लैगशिप प्रोग्राम, जिसमें संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत पंचायतों और जिला परिषदों को अधिक से अधिक अधिकार देने का प्रावधान लागू किया। इस अधीन तकरीबन 1200 के करीब ग्रामीण सेहत डिस्पैंसरियां पंचायतों और जिला परिषदों को सौंपी गईं जिसका मुख्य उद्देश्य गांवों में पक्के तौर पर सेहत सुविधाएं देना था। पिछले 30 सालों से सरकारें इस बात के साथ जूझ रही थीं कि गांवों में डाक्टरों को भेजना मुश्किल लग रहा था और सेहत सेवाओं का स्तर दिन-प्रतिदिन नीचे गिर रहा था। 

आलम यह था कि गांवों की डिस्पैंसरियों में सिर्फ चौकीदार ही नजर आते थे। शुरू से ही डाक्टरों ने शहरों में ही रहना पसंद किया है और पंजाब में वह भी बड़े शहर जैसे कि जालंधर, अमृतसर, लुधियाना, मोहाली, पटियाला, बठिंडा इत्यादि में। पिछड़े इलाकों और बार्डर इलाकों में कोई भी डाक्टर जाना पसंद नहीं करता था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक तरनतारन, मानसा, संगरूर, फिरोजपुर, फाजिल्का, गुरदासपुर, पठानकोट और अमृतसर के बार्डर इलाके तथा पटियाला और संगरूर के हरियाणा के साथ लगते इलाकों में मंजूरशुदा पोस्टों पर सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत डाक्टर ही तैनात होते थे। संविधान की 73वीं और 74वीं शोध को लागू करते हुए साल 2006 में जिला परिषदों और पंचायतों के अंडर की गई डिस्पैंसरियों में डाक्टरों की भर्ती इस तरीके से की गई जिससे वे अपने घर के नजदीक ही पोस्टिंग ले सकें और बड़े शहरों की तरफ जाने का विचार न बनाएं। 

भर्ती के दौरान नौकरियों की अर्जियों के लिए कोई फीस तक भी नहीं रखी गई। पूरे पंजाब में सभी कस्बों और तहसीलों के अंदर 1200 एम.बी.बी.एस. मैडीकल डाक्टर ग्रामीण डिस्पैंसरियों में अपने घरों के नजदीक तैनात किए गए जिससे कि वे बड़े शहरों की तरफ जाने का ध्यान अपने मन से निकाल सकें। यहां तक कि उनकी पोस्टें भी गैर तबादला योग्य रखी गईं। यह उस समय के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह के दिमाग की एक कारगर उपज थी। इसके जब नतीजे आने शुरू हुए तो साल 2007 तक पहुंचते-पहुंचते ग्रामीण डिस्पैंसरियों में मरीजों की संख्या बढऩी शुरू हो गई और यह 4-5 मरीजों से 40-50 तक पहुंच गई। ग्रामीण डिस्पैंसरियों में फिर से मेले लगने शुरू हो गए। साल 2012 तक पहुंचते-पहुंचते पंजाब की जिला परिषदों के अधीन आने वाली ग्रामीण डिस्पैंसरियों में मरीजों की संख्या लगभग एक करोड़ सालाना से ऊपर पहुंच गई। ये सरकारी आंकड़े पंजाब सरकार ने उस समय केंद्रीय सेहत मंत्री गुलाम नबी आजाद को 2012-13 दौरान पेश किए। 

पंजाब की 66 प्रतिशत गांवों में रहती आबादी को दी गई ये डिस्पैंसरियां गांव के लोगों के लिए वरदान साबित हुईं। इसका निष्कर्ष यह निकला कि अकाली सरकार को सेहत डिस्पैंसरियों में लगे डाक्टरों का काम और गांवों के लोगों को इसका लाभ देखते हुए कांट्रैक्ट पर रखे मैडीकल डाक्टरों की नौकरियां रैगुलर करनी पड़ीं, जिससे अधिक से अधिक लोगों को इसका पक्के तौर पर लाभ मिल सके। दूसरी तरफ शुरू से ही यह स्कीम अफसरशाही के गले नहीं उतर रही थी, क्योंकि इस योजना में अफसरों की बजाय अधिक अधिकार लोगों के चुने गए प्रतिनिधियों, पंचों, सरपंचों, पंचायत समिति सदस्यों और जिला परिषद सदस्यों एवं चेयरमैनों को दिए गए।

अफसरशाही को यह बात रास नहीं आ रही थी। परंतु जैसे-तैसे करके मौकों के मुख्यमंत्रियों ने गांवों के लोगों को सेहत सुविधाएं पक्के तौर पर मुहैया करवाने के लिए अफसरशाही की तरफ से चलाए गए प्रोपेगंडे को कामयाब नहीं होने दिया। कई बार तो ग्रामीण विकास पर पंचायत मंत्रियों ने मौके पर अफसरशाही का डटकर विरोध किया और इन ग्रामीण डिस्पैंसरियों को बचाने की कोशिश की। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जिला परिषदों के अधीन पड़ती डिस्पैंसरियों में से 1186 डिसपैंसरियों को 775 डाक्टर चला रहे हैं और पिछले 5 सालों से एक भी डाक्टर की भर्ती नहीं की गई, जबकि इसके उलट सेहत विभाग जो अधिकतर शहरी और अद्र्ध-शहरी डिस्पैंसरियां और अस्पताल चला रहा है, में पिछले 5 सालों के दौरान 3 हजार डाक्टरों की भर्ती हो चुकी है।

यह अफसरशाही और सरकारों का ग्रामीण सेहत सुविधाओं से हाथ पीछे खींचना नहीं तो और क्या है? दवाओं की कमी, बिल्डिंग की मार, फर्नीचर की कमी और मैडीकल इक्विप्मैंट की कमी के साथ जूझ रही इन डिस्पैंसरियों को चलाने वाले डाक्टरों को सरकार शहरों और बड़े अस्पतालों में डाक्टरों की कमी के नाम पर सेहत विभाग में विलय करने की तैयारी में है जिसमें इन सेहत कर्मचारियों को मजबूर करके 12 सालों से काम कर रहे डाक्टरों को सेहत विभाग में लाया जाएगा और इनकी तैनाती शहरों में या जेलों में की जाएगी। 

सरकार की नीति को देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब इन डिस्पैंसरियों में से डाक्टर निकाल लिए जाएंगे और सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हर साल डिस्पैंसरियों में आने वाले एक करोड़ मरीजों को झोलाछाप डाक्टरों के रहमो-करम पर छोड़ कर इन डिस्पैंसरियों को ताले लगा दिए जाएंगे और यह काम उसी सरकार में होता लग रहा है जिस सरकार ने 2006 में भारत का पहला प्रदेश तैयार किया जहां गांवों में पक्के तौर पर डाक्टर भेजे व सेहत सेवाओं का स्तर इतना ऊपर उठाया कि कई अन्य प्रदेशों को भी इस व्यवस्था को समझने और परखने के लिए मजबूर होना पड़ा। प्रदेश की कैप्टन अमरेंद्र सिंह सरकार को अब तो शहरों में डाक्टर मिल जाएंगे परंतु आने वाले दो सालों में शायद गांवों के लोग सरकार को माफ न कर सकें।

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