क्या भारत के नए राष्ट्रपति अम्बेदकरवादी नहीं होंगे

Monday, Jul 17, 2017 - 11:08 PM (IST)

भारत का नया राष्ट्रपति दलित तो होगा लेकिन अम्बेदकरवादी नहीं होगा। के.आर. नारायणन के मामले में भी ऐसा हुआ था जब वह 1997 में राष्ट्रप्रमुख चुने गए थे लेकिन वह समय बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के अभ्युदय का था। बसपा ने उत्तर प्रदेश में गठबंधन सहयोगी के रूप में ‘अम्बेदकर ग्राम’ जैसी बहुत विराट योजनाएं शुरू की थीं। आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है। बसपा आज संकट में घिरी हुई है क्योंकि यू.पी. के विधानसभा चुनाव में यह मात्र 19 सीटें जीत पाई, जबकि लोकसभा चुनाव में एक भी संसदीय सीट इसकी झोली में नहीं आई। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दलित स्वयं मार खा रहे हैं। 

दमन और लूटपाट की विरासत निश्चय ही बहुत लंबे समय से चली आ रही है। सैंटर फॉर इक्विटी स्टडीज (सी.ई.एस.) की 2016 की एक रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ था कि भूमिहीनता की दर मुस्लिमों में 52.6 प्रतिशत है, जबकि दलितों में 58.3 प्रतिशत जोकि सबसे अधिक है। जिन दलितों के पास जमीन है, उसका आकार भी बहुत कम है। केवल 2.08 प्रतिशत दलित परिवारों के पास 2 हैक्टेयर या इससे अधिक मालिकी है। दलितों की दयनीय स्थिति को प्रतिबिंबित करने वाला एक अन्य तथ्य है जेलों में अपनी आबादी के अनुपात में उनकी अपेक्षाकृत अधिक संख्या। देश की आबादी में दलितों का अनुपात 16.6 प्रतिशत है, जबकि जेलों में दलित कैदियों की संख्या 21.6 प्रतिशत है। केवल मुस्लिम समुदाय से संबंधित कैदियों की संख्या ही दलितों से अधिक है। कुछ राज्यों में तो यह आंकड़ा बहुत ही ङ्क्षचताजनक है। 

उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश में दलितों का आबादी में अनुपात 15.6 प्रतिशत है, जबकि कैदियों में उनकी हिस्सेदारी 22.2 प्रतिशत है। गुजरात में तो स्थिति इससे भी अधिक विकराल है जहां आबादी में मात्र 6.7 प्रतिशत की हिस्सेदारी होते हुए भी जेल के कैदियों में उनकी 17 प्रतिशत हिस्सेदारी है। अनुसूचित जातियों को आरक्षण का लाभ मिला हुआ है इसलिए इनके सदस्य महानगरों में नवोदित मध्य वर्ग में शामिल होने की प्रवृत्ति रखते हैं लेकिन आरक्षण कोटे का लाभ कुल दलित आबादी का बहुत ही नगण्य हिस्सा उठा पाता है। इसका एक कारण तो यह है कि आरक्षण खाली पड़े रहते हैं और उन्हें भरने का प्रयास नहीं किया जाता तथा दूसरा कारण यह है कि उदारवाद के युग में आरक्षित नौकरियां सिकुड़ रही हैं लेकिन जो आरक्षण मिलता है वह भी अनुसूचित जातियों के कुछ वर्गों द्वारा ही हथिया लिया जाता है जिन्हें ‘मलाईदार परत’ के नाम से जाना जाता है। 

खेद की बात तो यह है कि आरक्षण के दौर में ‘विजयी’ रहने वाले लोग भी सामाजिक भेदभाव या कलंक से मुक्त नहीं हो पाते और नौकरियों में भी उन्हें बिल्कुल उसी तरह एक अलग-थलग समुदाय के रूप में रहना पड़ता है जैसे व्यावहारिक जीवन में उनकी अलग बस्तियां होती हैं। लेकिन सामाजिक संरचना से संबंधित ये समस्याएं गत 3 वर्षों दौरान के घटनाक्रमों से और भी गंभीर रूप धारण कर गई हैं। पहली घटना थी रोहित वेमुला की आत्महत्या और तदोपरान्त जातिगत पहचान को लेकर उठा विवाद जिसने देश भर में दलितों को झकझोर दिया था। दूसरी घटना थी गुजरात के ऊना कस्बे में दलितों की पिटाई-जिसका काफी व्यापक प्रभाव पड़ा था और न सिर्फ गुजरात बल्कि अन्य राज्यों में भी इसके विरुद्ध व्यापक आंदोलन चला था। 

तीसरी घटना है गौ-रक्षा आंदोलन और इससे संबंधित कानून जिनके चलते चमड़ा उद्योग में काम करने वाले करोड़ों दलित बुरी तरह प्रभावित हुए। चौथी घटना यह है कि दलितों के उत्पीडऩ से संबंधित घटनाएं मीडिया की सुर्खियां बनती रहती हैं जैसा कि 2017 की कुछ रिपोर्टों से स्पष्ट होता है: ‘‘मध्यप्रदेश: शादी पर बैंड-बाजा बजाने वाले दलितों के कुएं में कैरोसिन डाल दिया’’,‘‘यू.पी. में मंदिर में प्रवेश का प्रयास करने वाले 90 वर्षीय दलित को जिंदा जलाया’’, इत्यादि। पांचवीं घटना यह है कि सरकार ने सामाजिक बहिष्कार तथा समावेषण नीति के अध्ययन में जुटे संस्थानों का वित्त पोषण रोक कर दलित बुद्धिजीवियों के एक पूरे वर्ग को बेगाना कर दिया है। ऐसे अध्ययन केंद्र की 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजनाओं दौरान 35 यूनिवॢसटियों में स्थापित किए गए थे। 

इस कड़ी में अंतिम और किसी भी तरह कम महत्व न रखने वाला घटनाक्रम था यू.पी. के चुनाव जोकि अनेक दलितों के लिए किसी सदमे से कम नहीं। यू.पी. में बसपा न केवल पराजित हो गई बल्कि यू.पी. की नई विधानसभा में उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़कर 44 प्रतिशत से भी अधिक हो गया है, जोकि 2012 की तुलना में 12 प्रतिशत अधिक तथा 1980 के बाद उच्चतम है। ऐसा आभास होता है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार उच्च जातीय संस्कृति का ही प्रतिनिधित्व करती है। सत्ता में आते ही योगी ने लखनऊ स्थित मुख्यमंत्री कार्यालय के शुद्धिकरण का आदेश जारी किया था। इस घटना के बाद दलितों ने उन्हें रोषस्वरूप साबुन भेंट करना शुरू कर दिया। योगी ने गौ-रक्षकों की पीठ थपथपा कर और अवैध बूचडख़ानों को बंद करके गौ-रक्षा प्रावधानों को काफी कठोर बना दिया है। 

मई में जब सहारनपुर में हिंसा भड़की तो दलितों ने महाराणा प्रताप की याद में निकाले जा रहे जलूस के रविदास मंदिर में से गुजरने पर आपत्ति उठाई तो जलूस निकाल रहे राजपूतों ने कथित तौर पर दलितों पर हमला किया। मई में दोनों ओर के 3 लोग मारे गए। लगभग 5 हजार दलितों ने इस हिंसा के विरुद्ध प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए दिल्ली के जंतर-मंतर पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया और उनमें से कुछेक ने हिंदू मत छोड़ बुद्ध मत अपना लिया। दलित आंदोलन का आयोजन करने वाली भीम सेना 2015 में सहारनपुर के एक दलित वकील चंद्रशेखर आजाद द्वारा गठित की गई थी, जिस पर यू.पी. पुलिस ने सहारनपुर ङ्क्षहसा भड़काने का आरोप लगाया है। 

आखिर जून में पुलिस ने इसे गिरफ्तार कर लिया। उसने जंतर-मंतर प्रदर्शन में अचानक प्रकट होकर हर किसी को आश्चर्यचकित कर दिया था। उसने प्रदर्शनकारियों को संबोधित करते हुए कहा : ‘‘इस भ्रम में न रहें कि हम कमजोर हैं और इसलिए चुपचाप बैठे हैं। हम चुप इसलिए हैं क्योंकि हम संविधान का अनुपालन करते हैं।’’ संविधान के निर्माण में बाबा साहिब अम्बेदकर ने जो भूमिका अदा की थी उसके मद्देनजर दलितों के लिए संविधान बहुत पवित्र दर्जा रखता है। दलितों ने एक सेना गठित कर ली है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अवैध तरीके अपनाएंगे। डा. अम्बेदकर ने स्वयं भी 1927 में महाड़ सत्याग्रह के मौके पर एक आत्म रक्षा दल गठित किया था जिसका नाम था ‘समता सैनिक दल।’ लेकिन आज दलित गहरे आक्रोश की भावना की अभिव्यक्ति कर रहे हैं जिसकी पुष्टि केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्री ने खुद की है। 

अप्रैल माह में थावर चंद गहलोत ने घोषणा की थी: ‘‘आप लोगों (यानी उच्च जातियों) के लिए कुआं हमारे लोग खोदते हैं लेकिन जब आप इसके स्वामी बन जाते हैं तो हमारे लिए वहां पानी पीने की भी अनुमति नहीं होती। जब तालाब खोदना होता है तो हमीं से मजदूरी करवाई जाती है। उस मौके पर हम वहां थूक भी देते हैं और हमारा पसीना भी बहता है तथा यहां तक कि खुदाई करने वाले हमारे लोग वहीं पेशाब भी कर देते हैं लेकिन जब तालाब तैयार होने के बाद पानी पीने का समय आता है तो हमारे लोगों को यह कह कर इंकार कर दिया जाता है कि तुम्हें देने से पानी अपवित्र हो जाएगा। तुम लोग मंत्रोच्चार करते हुए मंदिरों में मूर्तियों की प्रतिष्ठा करते हो उसके बाद हम लोगों के लिए मंदिरों के दरवाजे बंद हो जाते हैं। इस स्थिति को कौन दुरुस्त करेगा? ये मूर्तियां हमारे ही दलित लोगों द्वारा बनाई जाती हैं। 

बेशक आप लोग इसके लिए हमें पैसे देते हैं लेकिन इन मूर्तियों के दर्शन करने या इन्हें स्पर्श करने से हमें वंचित क्यों रखा जाता है?’’ इस दृष्टिकोण का वास्तव में शुद्धिकरण की फिलास्फी से कोई तारतम्य नहीं। सच्चाई तो यह है कि दलितों द्वारा अपने अधिकारों की दावेदारी के फलस्वरूप संघ परिवार को शायद एक नई विडम्बना का सामना करना पड़ सकता है। शायद यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि सरकार को तनाव दूर करने के लिए उनकी ओर हाथ बढ़ाना होगा। अभी हाल ही तक दलित इसलिए उग्र रास्ता नहीं अपनाते थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि बसपा सत्तासीन हो जाएगी और उन्हें संवैधानिक विकल्प उपलब्ध होंगे। 

लेकिन चुनावी नतीजों ने इस विकल्प की उम्मीद समाप्त कर दी है और दलितों में आक्रोश भी बढ़ गया है। क्या राष्ट्रपति पद के लिए राजग के उम्मीदवार का चुनाव दलितों के लिए पर्याप्त होगा? शायद दलित नव मध्यवर्ग इस स्थिति से प्रसन्न होगा लेकिन अन्य दलित किसी अलग क्षितिज की ओर नजरें दौड़ा सकते हैं। अभी भी उनके लिए अन्य संभावनाओं के द्वार समाप्त नहीं हुए। देश के अन्य दलित भी महाराष्ट्र के दलित पैंथर आंदोलन की कार्यशैली का अनुसरण कर सकते हैं। आखिर बाबा साहिब अम्बेदकर ने भी 1950 के प्रारंभ में स्वयं घोषणा की थी कि वह भारतीय संविधान को अग्रि भेंट करना पसंद करेंगे।     

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