क्या मोदी ‘महिला आरक्षण विधेयक’ पारित करवाएंगे

Tuesday, Sep 26, 2017 - 10:42 PM (IST)

कुछ कारणों, मुख्य रूप में पुरुष-सत्तावाद से महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पारित नहीं किया जा सका है। इसे पहली बार 1996 में लोकसभा में पेश किया गया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री देवेगौड़ा पद पर थे। 2010 में एक ऐतिहासिक कदम के जरिए कानून बनने के रास्ते में इसकी पहली बाधा दूर होने तक, अतीत की तरह संसद की हर यात्रा में इस विधेयक को जबरदस्त नाटक और बाधा का सामना करना पड़ा। 

विधेयक लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं की 33 प्रतिशत सीटों पर औरतों को आरक्षण देने का प्रावधान करता है। विधेयक के मसौदे के मुताबिक, लाटरी निकाल कर सीटों को बारी-बारी से इस तरह आरक्षित किया जाएगा कि कोई भी सीट लगातार आने वाले 3 आम चुनावों के दौरान सिर्फ एक बार आरक्षित हो। मसौदे के मुताबिक, महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण संशोधन विधेयक लागू होने के 15 साल बाद खत्म हो जाएगा। वास्तव में, 108वां संशोधन विधेयक या जो महिला आरक्षण विधेयक के नाम से लोकप्रिय है, ने पिछले सप्ताह 12 सितम्बर को अपनी मौजूदगी के 21 साल पूरे किए हैं। इतने सालों में इसे सिर्फ राज्यसभा की सहमति मिली है। 

पिछले 2 दशकों में विधेयक ने संसद के दोनों सदनों में काफी नाटक देखा है, जिसका साफ उद्देश्य इस कदम को रोकना था। कुछ सदस्यों ने विधेयक को पेश होने से रोकने के लिए राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी पर शारीरिक रूप से हमले की कोशिश भी की। विभिन्न सरकारें अलग-अलग कारणों से विधेयक को पारित कराने हेतु बहस के लिए लाती रहीं लेकिन उन्हें विफलता ही हाथ लगी क्योंकि गुस्सा दिखाने की सांसदों की मानसिकता और आपसी वाक्युद्ध, जो कभी-कभी शारीरिक स्तर पर भी चला आता है, के कारण लोकसभा में औरतों को अधिक प्रतिनिधित्व दिलाने की लड़ाई पर लगातार विराम लगता रहा। 

लेकिन विधेयक को सदन की स्वीकृति नहीं मिली और इसके बदले उसे संयुक्त संसदीय समिति में भेज दिया गया। समिति ने जल्द ही अपनी रिपोर्ट दे दी और 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी, जो पहली नैशनल डैमोक्रेटिक अलायंस सरकार के मुखिया थे, ने विधेयक को लोकसभा में फिर से पेश किया। कानून मंत्री थंबीदुरई ने विधेयक को पेश किया तो राष्ट्रीय जनता दल के एक सदस्य ने लोकसभा अध्यक्ष से इसे छीनकर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। इसके बाद 1999, 2002 तथा 2003 में हर बार लोकसभा का सत्र खत्म होने के साथ ही विधेयक सदन के सामने से हट गया और इसे दोबारा पेश करना पड़ा।

दुर्भाग्य से इन सालों में कई पुरुष सांसदों ने विधेयक के पारित होने का विरोध किया है, जिस कारण यह मौजूदा स्थिति में ही पड़ा है। इसके बावजूद कि कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां तथा भाजपा इसे खुला समर्थन देती रही हैं, यह लोकसभा में पारित नहीं हो पाया। बेशक, जैसा कि राजनीतिक जानकारों का अक्सर मानना है कि 1998 में वाजपेयी सरकार टिके रहने के लिए कई पाॢटयों के समर्थन पर निर्भर थी और इसी वजह से वह जोर लगाने की स्थिति में नहीं थी। हालांकि,1999 के मध्यावधि चुनाव के बाद नैशनल डैमोक्रेटिक अलायंस (एन.डी.ए.) 544 में से 303 सीटें लेकर बहुमत पा गया और वाजपेयी सत्ता में आ गए। 

इस बार वह ऐसी परिस्थिति में धकेल दिए गए थे कि उन्हें सभी पार्टियों को इकट्ठा रखना था लेकिन कांग्रेस तथा वामपंथी पाॢटयों के समर्थन से सदन में इसे पारित कराया जा सकता था, अगर विधेयक पर औपचारिक रूप से वोट कराया जाता लेकिन ऐसा नहीं होना था। 2004 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले, वाजपेयी ने कांग्रेस पर विधेयक को रोकने का आरोप लगाया और कहा कि अगर चुनावों में भाजपा तथा उसकी सहयोगी पार्टियों को जनमत मिल गया तो वे इसे पारित कर देंगी। 2004 में यू.पी.ए. सरकार ने इसे सांझा न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल कर लिया था जिसमें कहा गया, ‘‘ विधानसभाओं तथा लोकसभा में औरतों को एक-तिहाई आरक्षण देने के लिए विधेयक पेश करने में यू.पी.ए. सरकार अगुवाई करेगी।’’ 2005 में भाजपा ने विधेयक को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा की। 

2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने राज्यसभा में विधेयक पेश किया। 2 साल बाद 9 मार्च, 2010 को उस समय एक बड़ी राजनीतिक बाधा दूर हो गई जब काफी नाटक और सदस्यों के बीच झगड़े के बावजूद सदन ने इसे पारित कर दिया। भाजपा, वामपंथी दल और कुछ अन्य पाॢटयां ऊपरी सदन में विधेयक को पास करने के लिए सत्ताधारी कांग्रेस के साथ आ गईं। उस क्षण को 7 साल बीत गए जब 3 प्रमुख राजनीतिक पाॢटयों की शीर्ष महिला नेताओं-सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज तथा वृंदा कारत ने इस ऐतिहासिक क्षण पर स्वत: स्फूर्त जश्न मनाने के लिए एक-दूसरे के हाथ में हाथ डालकर मीडिया फोटोग्राफरों को एक दुर्लभ अवसर प्रदान किया लेकिन, 2017 में यह अभी तक अस्तित्व में नहीं आ पाया है, सिर्फ  इसलिए कि इसे कानून बनाने के लिए नीचे के सदन में राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है।

यू.पी.ए.-दो सरकार लोकसभा में 262 सीटों के बावजूद इसे संभव नहीं कर पाई और उसने गठबंधन में होने का वही बहाना बनाया। सौभाग्य से भाजपा को यह लाचारी नहीं है। पार्टी के पास विधेयक पारित करने की ताकत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी संकल्प कर रखा है कि विधेयक उनके पास पहुंचे लेकिन अगर विधेयक कानून बन जाता है तो मुझे अचरज ही होगा। किसी भी पार्टी के पुरुष सांसद औरतों के साथ सत्ता सांझा नहीं करना चाहते हैं। जब वे घर में ही उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते तो वे यही मानते हैं कि औरतों को एक सीमा से ज्यादा ताकत नहीं मिलनी चाहिए। सच है, मोदी ने औरत को पहली बार रक्षा मंत्री बनाया है।

यह पहले के मुकाबले काफी हट कर है। यहां तक कि अत्यंत शक्तिशाली इंदिरा गांधी भी केवल विदेश मंत्रालय रखती थीं लेकिन विदेश और रक्षा दोनों को औरतों के पास देना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से उठाया गया एक साहसिक कदम है। यह मोदी की सकारात्मक सोच के संकेत हैं। मेरी एक ही उम्मीद है कि विधेयक को संसद में पास कराने के लिए मोदी वैसे ही संकल्पवान बने रहेंगे जैसे वह आज हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह कदम 2019 के आम चुनावों में सिर्फ  महिलाओं का वोट लेने के लिए है। कोई भी कारण हो, अगर लोकसभा में वे पर्याप्त संख्या में होती हैं तो वे भारत के प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाएंगी।

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