क्या ऐसे भारत में लोकतंत्र बचा रह पाएगा

Sunday, Dec 30, 2018 - 03:51 AM (IST)

लोकतंत्र का अर्थ संतुलन है। जब संतुलन को खतरा उत्पन्न होता है अथवा यह प्रभावित होता है तो लोकतंत्र के अस्तित्व पर प्रश्र उठ खड़ा होता है। भारत खुद को एक ऐसी स्थिति में पाता है जहां यह प्रश्र बड़े पैमाने पर उठाया जा रहा है कि क्या लोकतंत्र भारत में बचा रहेगा? 

इस लेख में आज मैं जिन मुद्दों की समीक्षा करूंगा उनमें से प्रत्येक खुद सम्भवत: लोकतंत्र के लिए खतरा दिखाई नहीं देता और उपचार योग्य नजर आता है। हालांकि यदि उपचार नहीं खोजा जाता तो एक मुद्दा भी लोकतंत्र को पटरी से उतार सकता है। यदि बहुत से मुद्दे सुलझाए बिना रह जाएं तो मुझे विश्वास है कि लोकतंत्र, जैसे कि इसे स्वतंत्र, उदार तथा परिपक्व देशों में समझा जाता है, नष्ट हो जाएगा। 

चुनाव : तेलंगाना में जिस दिन चुनाव परिणामों की घोषणा हुई, राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी (केन्द्रीय चुनाव आयोग द्वारा नामांकित) ने मतदाता सूची से 22 लाख मतदाताओं के नाम ‘कटने’ के लिए माफी मांगी (283 लाख मतदाताओं की आधिकारिक संख्या का 8 प्रतिशत)। महज एक माफी तथा कहानी का अंत। एक चौकस लोकतंत्र में सभी राजनीतिक दल एक साथ हो लेते तथा लाखों की संख्या में लोगों को सड़कों पर घोटाले के खिलाफ प्रदर्शन के लिए ले आते। मुख्य चुनाव आयुक्त इस्तीफा दे देता अथवा हटा दिया जाता। मुख्य चुनाव आयोग के अधिकारी, जिन्होंने तेलंगाना में मतदाता सूचियों के नवीनीकरण का पर्यवेक्षण किया था, निलंबित कर दिए जाते। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ तथा किसी ने भी आक्रोश नहीं दिखाया। तेलंगाना में एक लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए मुख्यमंत्री के अंतर्गत  जीवन यूं ही चलता रहा। 

विधायिकाएं : तालिका पर एक नजर डालें तो ङ्क्षलग भेद मुखर रूप से नजर आता है और ऐसा दिखाई देता है कि कोई भी ङ्क्षलग बराबरी वाला समाज बनाने के प्रति गम्भीर नहीं है। प्रत्येक दल को यह दोष सांझा करना चाहिए। वे कुछ महिलाओं को ही उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतारते हैं तथा ‘जीत’ के आधार पर पुरुषों को अधिमान देते हैं अथवा महिलाओं को उन निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवार के तौर पर नामांकित करते हैं जहां पार्टी के जीतने के अवसर बहुत कम हों। कुछ महिला विधायकों का अर्थ है कुछ महिला मंत्री, मिजोरम में एक भी नहीं है क्योंकि विजेता एम.एन.एफ. ने किसी भी महिला उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा। समाधान साधारण है: विधायकों में कम से कम 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित रखें। यह एक क्रांतिकारी विचार नहीं है क्योंकि यह पहले ही नगर निगम तथा पंचायतों के चुनावों में एक कानून है। 

अदालतें : अदालती प्रणाली टूट चुकी है और इस बात में संदेह है कि इसे उचित समय में फिर से एक साथ रखा जा सकेगा। समस्या खाली पदों को लेकर नहीं है, यह इससे कहीं बड़ी है। टूटी हुई प्रणाली के अन्य पहलू हैं अप्रचलित तथा अकार्यशील प्रक्रियाएं, मूलभूत ढांचे का अभाव, आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल न होना, वकीलों का अभिनय करते अयोग्य पुरुष तथा महिलाएं, ढोंगियों को बाहर का रास्ता दिखाने में बार काऊंसिल की अनिच्छा या अक्षमता तथा सभी स्तरों पर व्यापक रूप से प्रचलित भ्रष्टाचार। यदि इसके बावजूद कई मामलों में न्याय प्रदान किया जाता है तो यह प्रणाली के विपरीत अच्छे तथा ईमानदार जजों के कारण है। चिंताजनक तथ्य यह है कि ऐसे कुनबे में वृद्धि नहीं हो रही। 

जनहित याचिकाएं : जिस चीज को गरीब तथा दबे हुए लोगों, जिनकी अदालतों तक पहुंच नहीं होती, को न्याय दिलाने के एक औजार के तौर पर प्रोत्साहित किया गया था, वह सामान्य कानूनी प्रक्रियाओं में व्यवधान डालने तथा परिणामों को अपने अनुकूल निर्धारित करने के लिए एक द्वेषपूर्ण उपकरण में बदल गया है। कुछ पी.आई.एल. याचिकाकत्र्ताओं के उद्देश्य संदेहपूर्ण हैं। पी.आई.एल. पर निर्णय देते समय अदालतों द्वारा एक प्रश्र सूचक ताॢककता की अनूठी प्रक्रिया अपनाई जाती है। इस प्रक्रिया में उच्च अदालतों की अधिकार क्षेत्र पर पकड़ होती है, कार्यकारी सरकारों की शक्तियों को छीन लिया जाता है और यहां तक कि विधायिकाओं/संसद के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण किया जाता है। चाहे ऐसा दिखाई देता हो कि ‘न्याय प्रदान कर दिया गया है’ मगर वास्तव में कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को बहुत क्षति पहुंचा दी गई होती है। कुछ मामलों में निर्णय स्पष्ट रूप से गलत होते हैं। 

नौकरशाही : हमारे प्रशासनों की सबसे बड़ी असफलता परियोजनाओं तथा कार्यक्रमों को लागू करने तथा वायदे के अनुसार परिणाम अथवा लाभ प्रदान करने में अक्षमता होती है। दुर्लभ मामलों में प्रशासन चुनौती को पूरा कर पाता है (जैसे कि आपदा के मामले में राहत) लेकिन अधिकतर मामलों में लोग पूरी तरह से असंतुष्ट होते हैं। जहां चुने हुए प्रतिनिधि रचनात्मक रूप से जिम्मेदार होते हैं, वहीं सीधी जिम्मेदारी नौकरशाही की होती है। नौकरशाह परियोजनाओं तथा कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते हैं, उनकी लागत तथा समय का आकलन करते हैं और वे सीधे रूप से उन्हें लागू करने के लिए जिम्मेदार होते हैं, फिर भी बहुत से कार्यक्रम पूरी तरह से असफल हो जाते हैं तथा अन्य से असंतोषजनक परिणाम मिलते हैं। देश में प्रचुर प्रतिभा है लेकिन ऐसी प्रतिभा निजी क्षेत्र में अथवा विदेशों में अपनी सेवाएं दे रही है। हमने इस समस्या का कोई उत्तर नहीं ढूंढा है जो वर्ष-दर-वर्ष और भी अधिक गम्भीर होती जा रही है। 

संस्थाएं, संगठन : पहले कभी भी इतने कम समय में इतने अधिक निकायों को बुरी तरह से क्षतिग्रस्त होते नहीं देखा गया जितना कि गत 4 वर्षों में। सी.ई.सी., सी.आई.सी. तथा आर.बी.आई. को कम आंका गया और उनके मामलों में समझौते किए गए। सी.बी.आई. में विस्फोट हो गया तथा सरकार में बदलाव होने से और अधिक जांच एजैंसियां फट पड़ेंगी। 

कराधान : सामान्य समय में कर दरें सहज होनी चाहिएं तथा कर प्रशासन एक सेवा। इन नियमों को अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा गया है। अब कर दरें जबरन वसूली जैसी तथा भेदभावपूर्ण हैं (उदाहरण के लिए जी.एस.टी.) तथा कर प्रशासन अब कर आतंकवाद है। 

प्रधानमंत्री : वर्तमान प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया नहीं है, वह सरकार है। बिना संवैधानिक संशोधन के एक संसदीय लोकतंत्र को लगभग एक राष्ट्रपति सरकार में बदल दिया गया है। सभी नियंत्रणों तथा संतुलनों को हटा दिया गया है। एक अकार्यशील लोकतंत्र नष्ट हो जाएगा। भारत में लोकतंत्र तभी कायम रह सकेगा यदि हम संतुलन को बनाए रखें। मैं इस वर्ष का समापन एक आशावादी वाक्य के साथ करना चाहूंगा : ‘यदि सर्दी आई है तो क्या बसंत अधिक पीछे रह सकती है?’-पी. चिदम्बरम

Pardeep

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