श्री राम मंदिर के पुनर्निर्माण में ‘73 वर्ष की प्रतीक्षा क्यों’

punjabkesari.in Saturday, Aug 08, 2020 - 03:07 AM (IST)

यह ठीक है कि बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों अयोध्या में राम मंदिर पुर्निर्माण का काम शुरू हो गया, जो निकट भविष्य में बनकर तैयार भी हो जाएगा। स्वाभाविक है कि इतनी प्रतीक्षा, और संवैधानिक-न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद अब करोड़ों रामभक्त प्रसन्न भी होंगे और कहीं न कहीं उनमें विजय का भाव भी होगा। किंतु यह समय आत्मचिंतन का भी है। आखिर स्वतंत्र भारत, जहां 80 प्रतिशत आबादी हिंदुओं की है, प्रधानमंत्री पद पर (2004-14 में सिख प्रधानमंत्री-डा. मनमोहन सिंह) एक हिंदू विराजित रहा और उत्तर प्रदेश में भी सदैव हिंदू समाज से मुख्यमंत्री बना है-वहां करोड़ों हिंदुओं को अपने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के लिए कुछ एकड़ भूमि वापस लेने में 73 वर्षों का समय क्यों लग गया? 

इस्लाम का जन्म 1400 वर्ष पहले अरब में हुआ। भारतीय उपमहाद्वीप में आज हम जिस जनसांख्किीय को देख रहे हैं, उसमें 95' आबादी के पूर्वज हिंदू और बौद्ध थे, जो 8वीं शताब्दी के बाद कालांतर में इस्लामी तलवार के डर से या लालच में आकर मतांतरित हो गए। रक्तरंजित विभाजन से पहले पाकिस्तान की मांग करने वाले सभी मुसलमान क्या पाकिस्तान चले गए थे? नहीं। स्वाधीनता से पहले भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम समाज का लगभग 95 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान के लिए आंदोलित था। किंतु जब 14 अगस्त, 1947 को यह इस्लामी देश अस्तित्व में आया, तब कुछ मुस्लिम नेता भारत में ही रह गए, जिनमें से अधिकतर कालांतर में कांग्रेस से जुड़ गए। 

सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी, जो अन्य रजाकरों की भांति स्वतंत्रता के समय हैदराबाद के भारत में विलय का विरोध कर रहे थे-वे भी भारत में रुके रहे, सांसद बने और आज उनके वंशज असदुद्दीन ओवैसी वर्तमान मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं और राम मंदिर के सबसे बड़े विरोधियों में से एक हैं। यह ‘सैकुलर’ भारत की असली तस्वीर है, जो ‘सैकुलरिज्म’ के नाम पर अयोध्या में राम मंदिर के विरुद्ध झंडा बुलंद किए हुए हैं। क्या इनके कांग्रेस में घुसपैठ के कारण राम मंदिर का मामला दशकों तक लटका रहा? स्वतंत्रता मिलने के बाद असंख्य रामभक्तों को अपेक्षा थी कि जैसे सरदार पटेल के नेतृत्व में सोमनाथ मंदिर का पुनॢनर्माण हुआ, वैसे ही अयोध्या, काशी, मथुरा सहित अन्य ऐतिहासिक अन्यायपूर्ण कृत्य का परिमार्जन भी राजनीतिक रूप से होगा। 

एक अनुमान के अनुसार, खंडित भारत में 3,000 ऐसे ऐतिहासिक मंदिर हैं, जिन्हें इस्लामी आक्रमणकारियों ने ‘काफिर-कुफ्र’ दर्शन से प्रभावित होकर जमींदोज कर दिया था और उसके स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी थीं। यह सभी ढांचे इबादत के लिए नहीं, अपितु आक्रांताओं के इस्लामी विजय स्तंभ थे, जो विजितों को नीचा दिखाने के लिए खड़े किए गए थे। सच तो यह है कि यदि सरदार पटेल नहीं होते, तो सोमनाथ मंदिर का विषय भी राम मंदिर की भांति विवादित बना होता। पं. नेहरू की सुपुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा नीतिगत रूप से वामपंथी ङ्क्षचतन को आत्मसात करने के बाद कांग्रेस का दृष्टिकोण अयोध्या मामले में और अधिक विकृत हो गया। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र, जीवन मूल्यों और विरासत को क्षत-विक्षत किया जाने लगा। 1976-77 में विवादित ढांचे के नीचे विशाल राम मंदिर के अवशेष होने संबंधी भारतीय पुरातात्विक उत्खनन रिपोर्ट सामने आई, तब उसे छिपाकर मुस्लिम समाज को भ्रम से बाहर नहीं आने दिया। परिणामस्वरूप, कांग्रेस नीत संप्रगकाल के दौरान सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा देकर राम को काल्पनिक चरित्र बता दिया गया। यह हास्यास्पद है कि आज वही कांग्रेस श्रीराम का नाम जप रही है। 

राम मंदिर का विरोध करने वाले अक्सर श्रीराम के अयोध्या में जन्म लेने का साक्ष्य मांगते हैं। यह उस सनातन संस्कृति विरोधी मानसिकता का विस्तृत रूप है, जिसमें श्रीराम के सहयोगी श्री हनुमान की उडऩे की क्षमता और हिंदुओं की गौसेवा का भी उपहास किया जाता है। यह सभी आस्था के विषय हैं और इस संबंध में किसी भी प्रकार का साक्ष्य मांगना-संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राम मंदिर भूमि पूजन में शामिल होने और उसके दूरदर्शन और आकाशवाणी पर प्रसारण पर भी वामपंथियों और तथाकथित सैकुलरवादियों ने आपत्ति जताई है। यह स्थिति तब है, जब 21 मार्च, 1980 को दारुल-उलूम-देवबंद के शताब्दी समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी न केवल शामिल हुई थीं, साथ ही उस कार्यक्रम का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण भी किया गया था। 

सच तो यह है कि कांग्रेस-वामपंथी कुनबे के लिए देश का सैकुलरिज्म उसी समय सुरक्षित होता है-जब देश का प्रधानमंत्री या अन्य मंत्री विशेष टोपी पहनकर राष्ट्रपति भवन में या फिर किसी अन्य स्थान पर सरकार द्वारा वित्तपोषित इफ्तार की दावत में शामिल हो। हज यात्रियों को सरकारी सबसिडी मिले। मौलवियों-मुअज्जिनों को मासिक वेतन और ननों को सरकार पैंशन दे। अर्थात-एक हिंदू प्रधानमंत्री का इस्लाम-ईसाइयत संबंधित मजहबी कार्यक्रमों में शामिल होना और उन्हें सुविधा देना, सैकुलरवाद का प्रतीक है, किंतु उसी प्रधानमंत्री का किसी भी ङ्क्षहदू कार्यक्रमों में शामिल होना-साम्प्रदायिक है। क्यों?  क्या अयोध्या में राम मंदिर के पुर्निर्माण के साथ रामभक्तों के सतत संघर्ष पर विराम लग जाएगा? नहीं। (क्रमश:)-बलबीर पुंज     
 


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