सर्दियों में भी सब्जियां महंगी क्यों

Saturday, Nov 25, 2017 - 03:21 AM (IST)

सर्दियों का मौसम सामान्यत: ऐसा समय होता है जब सब्जियों के भाव हमारी पहुंच में आ जाते हैं क्योंकि टमाटर, गाजर, फूलगोभी, मूली, पालक, चुकंदर, शिमला मिर्च से लेकर शलगम, नींबू एवं फलीदार सब्जियां तक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं।

यह सत्य है कि भिंडी, खीरा, लौकी, टिंडा, काली तोरी इत्यादि जैसी कुछ सब्जियां खास तौर पर गर्मियों के मौसम से संबंधित होती हैं लेकिन कुछ अपवाद भी होते हैं। सामान्य नियम यह है कि सर्दियों में आपको गर्मियों की तुलना में सब्जियों के लिए कम दाम चुकाने पड़ते हैं लेकिन गत कुछ समय से यह नियम उलटा-पुलटा हो गया है। 

इन गर्मियों में अधिकतर सब्जियों के दाम धराशायी हो गए थे। एक अग्रणी ऑनलाइन सब्जी फरोश द्वारा उपलब्ध करवाए गए आंकड़ों के अनुसार बीते जून में 20 में से 12 सब्जियों के दाम नवम्बर 2016 की तुलना में या तो नीचे आ गए थे या फिर लगभग बराबरी पर बने रहे थे। ये आंकड़े सरकारी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सी.पी.आई.) से भी पूरी तरह मेल खाते हैं। यदि 2012 के मूल्यों को आधार यानि 100 माना जाए तो मई व जून 2017 में सी.पी.आई. क्रमश: 125.6 और 133.3 था जबकि नवम्बर 2016 में यह आंकड़ा 141.9 के उच्च स्तर पर था। पिछले दिसम्बर में सी.पी.आई. 125.3 के स्तर पर था जोकि वर्तमान स्तर से कोई बहुत अधिक नीचे नहीं है। 

इसी ऑनलाइन बाजार की चालू महीने की 21 तारीख तक की खुदरा कीमतों से खुलासा होता है कि 20 में से 15 मामलों में सब्जियों के औसत मूल्य जून के औसत मू्ल्यों की तुलना में ऊंचे हैं। यह आंकड़ा भी सब्जियों के लिए सी.पी.आई. के आंकड़ों से भिन्न नहीं है जोकि अक्तूबर में 162.5 था जोकि जून के 133.3 के आंकड़े से काफी ऊंचा है। यह घटनाक्रम बहुत असामान्य है जब मई-जून में सामान्य की तरह कीमतें ऊपर जानी चाहिए थीं तो इनमें व्यापक रूप में गिरावट आई और अब जब ये दाम आम आदमी की जेब के लिए आसान होने चाहिए थे तो लगभग हर सब्जी के लिए उसे 50 रुपए से अधिक देने पड़ रहे हैं। 

सब कुछ उलटा-पुलटा होने और सब्जियों की कीमतों में वृद्धि का एक कारण शायद यह हो सकता है कि सितम्बर और अक्तूबर में महाराष्ट्र तथा कर्नाटक के साथ-साथ आंध्र प्रदेश के रायलसीमा क्षेत्र में बहुत भारी बारिश हुई थी। महाराष्ट्र की निफाड़-जुन्नार- अंबेगांव पट्टी तथा कर्नाटक की कोलार एवं चिकबल्लापुर पट्टी और पड़ोसी रायलसीमा की मदनपल्ली व अनंतपुर पट्टी सब्जी की खेती और बागवानी वाले प्रमुख इलाके हैं। देर से हुई बारिशों ने फसल को कुछ नुक्सान पहुंचाया और साथ ही खेतों में खड़ी टमाटर, खरीफ के प्याज, मिर्च व पालक जैसी सब्जियों की कटाई व तोड़ाई में विलम्ब हो गया जिससे मंडियों में इनकी आमद पर बुरा असर पड़ा। 

लेकिन सब्जियों की कीमतों में वर्तमान उछाल के पीछे शायद यही एकमात्र कारण नहीं है। टमाटर के मामले में जून के आखिरी सप्ताह से चली आ रही उच्च कीमतों से पहले नवम्बर 2016 से लगातार सब्जियों के कम उत्पादन की स्थिति दरपेश थी और इसका स्पष्ट संबंध नोटबंदी से था। नोटबंदी से कीमतों पर जो बुरा प्रभाव पड़ा उसके चलते किसानों ने मई-जून की प्रारम्भिक तुड़ाई के बाद गर्मियों के टमाटर की फसल को ही समाप्त कर दिया था। ताजा खरीफ मौसम में भी उन्होंने पहले की तुलना में टमाटर का रकबा कम कर दिया है और इसी की कीमत अब उपभोक्ताओं को चुकानी पड़ रही है। अन्य कई सब्जियों के मामले में यही कहानी दोहराई गई है और यहां तक कि अंडे जैसे उत्पादों के मामले में ऐसा ही घटनाक्रम देखने को मिल रहा है।

जनवरी से लेकर जुलाई तक पोल्ट्री किसानों को भी अपने उत्पाद के काफी कम दाम मिले थे जिसके चलते उन्होंने अंडे देने वाली मुर्गियों की गर्दन पर समय से पहले ही छुरी चला दी। नोटबंदी के फलस्वरूप नए चूजे तैयार करने की प्रक्रिया में जो व्यवधान पैदा हुआ उसका परिणाम अब सर्दियों में सामने आ रहा है। पिछले वर्ष की सॢदयां पोल्ट्री किसानों के लिए बहुत भयावह रही थीं और अब की बार भी स्थिति कोई बहुत सुखद नहीं है- कम से कम फिलहाल तो नहीं। लेकिन दामों में आसमान छूती वृद्धि मुख्य तौर पर उन उत्पादों तक सीमित है जो बहुत जल्दी खराब हो जाते हैं। जल्दी खराब न होने वाले खाद्यान्नों, तिलहनों, दलहनों, बिनौला अथवा यहां तक कि आलू के दाम उच्च कीमतों के रुझान के विपरीत चल रहे हैं। 

जयपुर की चोमू मंडी में बाजरा इस समय 1140-1150 रुपए प्रति क्विंटल के भाव बिक रहा है जबकि गत वर्ष इन्हीं दिनों में यह आंकड़ा 1400-1410 रुपए था। दावणगेरे (कर्नाटक) में मक्की (1150 बनाम 1450 रुपए) और मध्य प्रदेश के अशोक नगर में उड़द (2300-2350 बनाम 5100-5200 रुपए) के भाव पर बिकते हुए ऐसी कहानी बयां कर रहे हैं। कर्नाटक के गुलबर्गा में अरहर 5800 रुपए के स्थान पर 3800 रुपए तथा राजस्थान के जोधपुर में मूंग 3800 की बजाय 3600 रुपए, मध्य प्रदेश की उज्जैन मंडी में सोयाबीन 2950 की बजाय 2650 रुपए के भाव बिक रही है। गुजरात की राजकोट मंडी में कच्ची कपास (यानी बिनौला युक्त) गत वर्ष के 5350-5400 रुपए के भाव तथा यू.पी. के आगरा में आलू गत वर्ष के 970-980 की तुलना में 400-410 रुपए के भाव बिक रहे हैं। इन सभी जिंसों के मामले में थोक बाजार कीमतें भी न्यूनतम सरकारी समर्थन मूल्यों की तुलना से काफी नीचे चल रही हैं। 

खराब होने योग्य और न खराब होने योग्य जिंसों की कीमतों के रुझानों में इस विचलन की क्या व्याख्या की जाए? प्रथम मामले में ये कीमतें आसमान छू रही हैं जबकि दूसरे मामले में धराशायी हो रही हैं। इसका उत्तर शायद इस बात से मिलता है कि नोटबंदी और जी.एस.टी. ने उत्पादों के व्यापार को कितनी बुरी तरह प्रभावित किया है। परम्परागत रूप में भारत में यह व्यापार नकदी पर आधारित रहा है और इसका वित्त पोषण मंडियों के खुदरा विक्रेताओं, बिचौलियों व दलालों इत्यादि के माध्यम से होता रहा है। करंसी तो बेशक नोटबंदी के एक साल बाद तक अर्थव्यवस्था में लौट आई है लेकिन मंडियों में यह नकदी पहले की तरह चक्कर नहीं काटती। पुराने व्यापारी और आढ़ती अब पहले की तरह निश्चिंत भाव से कृषि जिंसों का क्रय-विक्रय और भंडारण नहीं करते। जहां इसका एक कारण नकद लेन-देन पर लगी हुई पाबंदियां हैं, वहीं यह भी डर बना रहता है कि पता नहीं आयकर विभाग के अधिकारी कब छापामारी करने आ जाएं। 

इसका अंतिम रूप में परिणाम यह हुआ है कि जल्दी खराब होने वाले उत्पादों में जहां घोर मुद्रास्फीति की स्थिति देखने को मिल रही है, वहीं देर तक खराब न होने वाले उत्पादों के मामले में कीमतें वास्तविक मूल्यों से भी नीचे गिर रही हैं। मंडियों में अचानक तरल पूंजी की किल्लत आ गई है और कोई खरीदार वायदा बाजारों में लंबे समय का लक्ष्य बनाकर सट्टेबाजी नहीं करना चाहता।-हरीश दामोदरण

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