गणित के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या कम क्यों

Saturday, Jul 29, 2017 - 12:05 AM (IST)

2014 में सियोल (दक्षिण कोरिया) में हुई अंतर्राष्ट्रीय गणित कांग्रेस को भारत में काफी महत्व की दृष्टि से देखा गया। गणित के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के समकक्ष माने जाने वाले ‘फील्ड्ज मैडल’ के चार विजेताओं में से एक थी मंजुल भार्गव जोकि यह उपलब्धि दर्ज करने वाली प्रथम भारतीय मूल गणितज्ञ थीं। 

वैसे उन्हीं के साथ-साथ एक अन्य महिला ने भी पुरुष वर्चस्व वाले गणित क्षेत्र का दुर्ग-भेदन करने में सफलता अर्जित की थी। 1936 में इस पुरस्कार की स्थापना के बाद अमरीका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की मरियम मिर्जाखानी यह पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला गणितज्ञ थीं। बहुत दुख की बात है कि इस होनहार गणितज्ञ की इसी जुलाई के प्रारम्भ में मात्र 40 वर्ष की आयु में कैंसर से मौत हो गई। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक पै्रस विज्ञप्ति के अनुसार ईरान में पैदा हुई मिर्जाखानी मॉड्यूली स्पेसिज, ताइखम्युलर सिद्धांत, हाईपरबोलिक ज्यामिती, एर्गोडिक सिद्धांत एवं सिम्पलैक्टिक ज्यामिती जैसे विषयों की विशेषज्ञ थीं। उनकी अभिरुचि का मुख्य क्षेत्र वृत्ताकार आकृतियां थीं। 

मिर्जाखानी ने अनेक अर्थों में नए मार्गों का सृजन किया। 1994 में मिर्जाखानी और उनकी सहेली रोया बहिश्ती अंतर्राष्ट्रीय गणित ओलिम्पियाड में हिस्सा लेने वाली ईरान की दो प्रथम महिला गणित शास्त्री थीं। उस वर्ष मिर्जाखानी ने इस कांग्रेस में स्वर्ण पदक हासिल किया था और तब तो बिल्कुल कमाल ही हो गया जब उन्होंने इससे अगले वर्ष भी स्वर्ण पदक हासिल कर लिया। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में उनके शोध पत्र ने लम्बे समय से अटकी हुई गणित की दो समस्याएं हल कर दी थीं। ऐसी गणितज्ञ का अपेक्षाकृत युवावस्था में मृत्यु का शिकार हो जाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन इसके साथ ही यह एक ऐसा अवसर है जब हमारा ध्यान इस बात की ओर जा रहा है कि गणित के क्षेत्र में दुनिया भर में महिलाओं की संख्या दयनीय हद तक कम क्यों है। मिर्जाखानी का जीवन अपने आप में केवल एक प्रेरणामात्र ही नहीं बल्कि गणित में महिलाओं की संख्या में बढ़ौतरी करने का मार्ग भी प्रशस्त करता है। 

संख्या की दृष्टि से महिला गणितज्ञों की स्थिति सचमुच भयावह है। अमरीकन मैथेमैटीकल सोसायटी द्वारा 2015 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार पी.एच.डी. स्तर के गणित विभाग के पूर्णकालिक पदों पर महिलाओं की संख्या मात्र 14 प्रतिशत है। दुनिया के अन्य भागों में तो उनकी स्थिति इससे भी बदतर है। चाड टोपाज तथा शिलाद सेन ने दुनिया भर में गणित की 435 पत्रिकाओं के सम्पादकीय मंडलों का विश्लेषण करके अकादमिक नेतृत्व में महिलाओं की स्थिति आंकने का प्रयास किया था। जो परिणाम सामने आए वे किसी भी तरह उत्साहजनक नहीं थे। कुल 13000 सम्पादकीय पदों में केवल 9 प्रतिशत पर ही महिलाएं तैनात थीं। वास्तव में हर 10 में से एक गणित पत्रिका के सम्पादकीय बोर्ड में कोई भी महिला शामिल नहीं थी। 

इस स्थिति के लिए काफी हद तक यह अवधारणा जिम्मेदार है कि महिलाएं गणित के मामले में प्रतिभाशाली नहीं होतीं। दुख की बात तो यह है कि पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं खुद भी इस अवधारणा की शिकार हैं। कई अध्ययनों से पता चला है कि गणित से संंबंधित किसी भी परीक्षण के प्रारम्भ में यदि परीक्षार्थी का लिंग पूछ लिया जाए तो उपरोक्त घिसी-पिटी धारणा एकदम उस पर हावी हो जाती है और इसके फलस्वरूप महिला परीक्षार्थी अपनी स्वाभाविक क्षमता की तुलना में काफी कमजोर कारगुजारी प्रदर्शित करती है। 2008 में प्रकाशित एक शोध पत्र में कैली डैनाहेर तथा क्रिस्तियान एस. क्रैमडल ने इस तथ्य का खुलासा किया कि जब परीक्षार्थियों को परीक्षण के बाद लिंग का खुलासा करने को कहा गया तो महिलाओं के टैस्ट स्कोर में सुधार दर्ज किया गया। उसी वर्ष एक अन्य शोध पत्र में एनीक्रैडल, जैनीफर रिचेसन, विलियम कैली तथा टॉड हीथरटन ने शोध से इस तथ्य की पुष्टि की कि यदि महिलाओं को इस घिसी-पिटी अवधारणा की याद मात्र भी दिला दी जाए तो गणित परीक्षण में उनकी कारगुजारी बुरी तरह प्रभावित होती है। 

उल्लेखनीय बात यह है कि अवधारणा की स्मृति मात्र से ही महिलाओं में अपनी कारगुजारी को लेकर चिंता पैदा हो जाती है जिससे उनके कामकाज के नतीजों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। काफी सारे शोधकत्र्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि गणित के क्षेत्र में लड़कियों की कारगुजारी काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि उनके जीवन के प्रारम्भिक वर्षों और स्कूली पढ़ाई दौरान उन्हें किस प्रकार का सलाह-मशविरा उपलब्ध होता है। अभिभावकों और अध्यापकों द्वारा मिलने वाली निरंतर हल्लाशेरी इस दकियानूसी चुनौती पर काबू पाने में सहायता देती है। मिर्जाखानी के मामले में उनके स्कूल की प्रिंसिपल की भूमिका अत्यंत निर्णायक थी। वह इस बात पर कटिबद्ध थीं कि बेशक पूरे ईरान में से कभी भी कोई लड़की अंतर्राष्ट्रीय गणित ओलिम्पियाड में हिस्सा लेने के लिए नहीं गई तो भी वह अपनी छात्रा को हर हालत में भेजकर ही दम लेंगी। शोधकत्र्ता यह भी सिफारिश करते हैं कि दकियानूसी कुंठाओं की चुनौती का मुकाबला करने के लिए महिला रोल माडलों को नियमित रूप में प्रमुखता से पेश किया जाना चाहिए। 

‘द मैथेमैटिक्स टीचर’ नामक पत्रिका में लोरेटा कैली अपने एक आलेख में दलील देती हैं कि कक्षा में महिला गणितज्ञों की जीवन कथाएं पढ़ाने से लड़कियों को बहुत अधिक  प्रेरणा मिलेगी। अपने आलेख में कैली ने गत कई शताब्दियों दौरान हो चुकी प्रमुख महिला गणितज्ञों के कामों का संक्षिप्त सर्वेक्षण प्रस्तुत करते हुए उन सभी चुनौतियों का उल्लेख किया है जो उन्हें दरपेश आई थीं। कैली ने बताया कि प्राचीनतम महिला गणितज्ञों में शुमार हिपातिया (370-415 ई.) को ईसाई धर्म प्रचारकों ने एक ईश-ङ्क्षनदक महिला के रूप में प्रचारित किया और ईसाइयों की भीड़ को भड़का कर उसकी हत्या करवा दी। 

फ्रांस की प्रकृतिवादी दार्शनिक तथा गणितज्ञ गैब्रीऐली एमिली शातेली (1706-49 ई.)को गणितज्ञों और वैज्ञानिकों के पसंदीदा कैफे में प्रवेश करने के लिए पुरुषों जैसे कपड़े पहनने पड़ते थे। एक अन्य फ्रांसीसी महिला गणितज्ञ सोफी जर्मे (1776-1831)को पुरुष विद्यार्थियों की कापियों से लैक्चर नोट तैयार करने पड़ते थे क्योंकि 1789 की क्रांति के बाद 1794 में पैरिस में स्थापित किए गए पॉलीटैक्निक कालेज में लड़कियों को दाखिला ही नहीं दिया जाता था। रूसी गणितज्ञ सोन्या कोवालैव्स्की (1850-91) को भी इसी कारण कड़ा संघर्ष करना पड़ा था। रूसी यूनिवर्सिटियों में दाखिला ही नहीं दिया  जाता था। आखिर जब अपनी पढ़ाई किसी तरह पूरी करने के बाद वह स्वीडन की स्टाकहोम यूनिवॢसटी में अध्यापन कार्य हासिल करने में सफल हो गई तो एक स्वीडिश लेखक ने यह कहते हुए एतराज उठाया कि ‘‘गणित जैसे विषय की महिला प्रोफैसर तो एक असुखद और मनहूस बात है।’’ 

आधुनिक बीज गणित की जननी मानी जाने वाली एम्मी नोएथर (1882-1935) को जर्मनी की गोतिंजन यूनिवर्सिटी में केवल इसलिए बिना वेतन के नौकरी करनी पड़ी कि अध्यापन निकाय के एक सदस्य ने यह एतराज उठाया था : ‘‘प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने के बाद हमारे सैनिक लौटेंगे तो उन पर क्या बीतेगी जब वे पाएंगे कि उनसे यह अपेक्षा की जा रही है कि वे एक महिला के चरणों में बैठकर शिक्षा हासिल करें।’’ दकियानूसी अवधारणाएं कोई एक दिन में नहीं बन जातीं। फिर भी मिर्जाखानी जैसे गणितज्ञों के उदाहरण पूरे समाज को उत्साह और नई दिशा देने का काम कर सकते हैं। उल्लेखनीय है कि जब मिर्जाखानी का देहावसान हुआ तो कई ईरानी समाचार पत्रों ने राष्ट्रीय परम्परा को तोड़ते हुए उनकी बिना हिजाब के तस्वीरें प्रकाशित की थीं। भारत को भी मिर्जाखानी जैसी कुछ गणितज्ञों की जरूरत है।     

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