‘आर्थिक आतंकवादियों’ को फांसी क्यों न दी जाए

Thursday, Feb 22, 2018 - 02:59 AM (IST)

नीरव मोदी हो या मेहुल चोकसी, विजय माल्या अथवा कोई और। एक ऐसे समय में जब देश किसान, मजदूर, महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की बात कर रहा है और सीमाओं पर हमारे बेटे-सैनिक हर दिन खून की होली खेलते हुए मातृभूमि की रक्षा कर रहे हैं, उस समय देश से छल कर हजारों करोड़ के घोटाले करने वाले वस्तुत: आर्थिक अपराधी नहीं, आर्थिक आतंकवादी हैं जिन्हें वही सजा मिलनी चाहिए जो देशद्रोही आतंकवादियों को दी जाती है। 

संतोष की बात यह होनी चाहिए कि केन्द्र सरकार ने इन घोटालेबाजों के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई की, उनके संस्थान बंद किए, सम्पत्ति जब्त की, बड़े कारकुनों को गिरफ्तार किया और उम्मीद है कि पैसा भी वापस आएगा तथा गुनाह की कड़ी सजा भी मिलेगी। पर सामान्य व्यक्ति को यह भरोसा दिलाना कठिन है कि ऐसे लोगों को वापस कानून के शिकंजे में कसा जा सकेगा। बाजार में लोग कहते हैं, ‘‘अरे साहब, ये लोग बड़े माहिर हैं-कोई तो रास्ता निकाल ही लेंगे। या कौन-सा कानून? कैसा कानून? 40 साल लगा देंगे फैसला देने में-यह न्याय प्रणाली गरीब को तुरन्त सजा देती है, अमीरों को बहुत रास्ते मालूम हैं।’’ 

जिस देश में बैंक के छोटे-छोटे कर्ज न चुका पाने वाला किसान आत्महत्या पर मजबूर हो जाता है, जहां किसान का बेटा खुश होकर किसान बनने की बजाय शहर में कोई मामूली नौकरी करना ज्यादा बेहतर मानता हो, वहां इन व्यापारी घोटालेबाजों का यह विलास नौजवानों में क्रोध एवं बंदूक उठाकर सजा देने की कसक पैदा करेगा ही। दुर्भाग्य से हमारे राजनेताओं तथा अफसरों का व्यवहार गरीब तथा इंसाफ के प्रति संवेदना वाला आमतौर पर नहीं दिखता। 

राजनीति में सफलता का रास्ता धन और जाति से गुजरता है, योग्यता और सादगी से नहीं। क्या आपने कभी अपने क्षेत्र के बड़े राजनेता को परिवार के साथ बाजार में खरीदारी करते हुए, सब्जी खरीदते हुए, आम आदमी के साथ बिना सिक्योरिटी के बतियाते हुए देखा है? ऐसे कुछ लोग होंगे अवश्य, पर वे अपवाद हैं। ज्यादातर राजनेता अति-धनी, अहंकारी, तुनक मिजाज, गुस्सैल तथा जाति के आधार पर सहायता करने या न करने वाले दिखते हैं। क्या वे कभी इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने का साहस दिखा सकते हैं जिस व्यवस्था में धन का अतिशय प्रभाव अनिवार्यत: अंतर्निहित है? 

हम माओवादी-नक्सलवादी तत्वों की बात करते हैं-उनके हिंसावार की निंदा करते हैं, उनके विरुद्ध सुरक्षा कर्मियों की कार्रवाई का समर्थन करते हैं, पर ये नक्सलवादी अपने क्षेत्र में पैदा क्यों होते हैं? क्या सबके सब देशद्रोही और उन्मादी पागल होते हैं? जब कानून समाज को न्याय न दे, गरीब जाति और भ्रष्टाचार में डूबे अफसरों तथा नेताओं के अहंकार का शिकार हो तो दिशाभ्रम होगा ही। अभी हाल ही की बात है। मोदी सरकार ने विमुद्रीकरण योजना लागू की। विपक्ष लाख चिल्लाया कि यह ठीक योजना नहीं है, पर आम आदमी ने कष्ट तथा असुविधा झेल कर भी इसके खिलाफ गुस्सा नहीं किया। क्यों? क्योंकि उसे लगा कि मोदी सरकार ने यह कदम अमीरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाया है। यह एक साहसिक कदम है जिनको ‘‘बड़े लोग कहा जाता है’’-ऐसे लोगों को हाथ लगाने की किसी में हिम्मत नहीं थी, पर मोदी ने यह हिम्मत दिखाई। इस भावना के साथ लोगों ने विमुद्रीकरण झेला ही नहीं बल्कि उसके बाद जहां भी चुनाव हुए, भाजपा जीती। 

यह है भारत का मन जो धनपतियों के दुराचार के खिलाफ सख्त कदम उठाया जाना पसंद करता है। गरीब भारतीय स्वाभिमानी है। वह भी चाहता है कि उसे दो जून अच्छा भोजन मिले, अच्छा घर हो, उसके बच्चे बेहतर भविष्य बनाएं, पर वह हर दिन देखता है कि कलैक्टर, एस.पी.  अमीर आदमी को देखते ही उसे कुर्सी पर बिठाता है। गरीब ग्रामीण को देखता भी नहीं बल्कि हिकारत से उसका काम लटकाए रखता है। नेता के घर रात 10 बजे भी अमीर दोस्त की गाड़ी जा घुसती है, बाकी लोगों के फोन नेता जी का पी.एस. भी उठाता नहीं। ऐसे माहौल में नीरव मोदी जैसे लोगों के घोटाले सामूहिक हताशा, क्रोध तथा शासन प्रशासन-राजनीति के प्रति अविश्वास पैदा करते हैं। हो सकता है नीरव मोदी पैसा लौटा दें, हो सकता है कभी हमारी अदालतें उसे निर्दोष भी साबित कर दें। 2जी-मामले में क्या हुआ? लेकि न वर्तमान बहस उस व्यक्ति के मन को व्यथित कर गई है जो एकनिष्ठ, ईमानदार, न्यायपूर्ण भारत का सपना संजोए चल रहा है। 

यह देश तड़प रहा है भले, सज्जन नेताओं के लिए, जो कठोर निर्णय लें तथा किसी अपराधी को बख्शें नहीं। हम वर्षों  से अच्छी पुलिस, संवेदनशील ईमानदार अधिकारी, नियमित कक्षाओं में छात्रों को पढ़ाने वाले अध्यापक तथा बिना रिश्वत दिए सरकारी कामकाज वाली व्यवस्था की प्रतीक्षा करते आ रहे हैं। क्या यह अपेक्षा बहुत ज्यादा और अकरणीय है? जो माता-पिता अपने बच्चों को सेना में भर्ती होने भेजते हैं और अपनी आंखों से जवान बेटे की शहादत को देख बूढ़ा पिता अपने बच्चे की चिता को अग्रि देने के बाद भी शिकायत नहीं करता, उससे पूछ कर देखिए कि वह इन घोटालों के समाचार पढ़कर क्या सोचता है? 

बड़े-बड़े बंगलों तथा कई-कई एकड़ों में फैले फार्म हाऊसों में रहने वाले वे नेता क्या यह दुख महसूस कर पाएंगे, जिन्हें कभी स्वयं बिजली का बिल नहीं भरना पड़ता, रेल के टिकट हेतु लाइन में नहीं खड़ा होना पड़ता, फसल या बच्चे की पढ़ाई के लिए बैंक से कर्ज नहीं लेना पड़ता? नि:संदेह देश में अच्छे लोग ज्यादा हैं, भले नेता एवं प्रशासक भी हैं, पर इतना होना भर पर्याप्त नहीं। यदि ऐसे अच्छे, भले नेता और प्रशासक सक्रियता से कठोर कदम उठाकर जनता को विश्वास न दिला सकें कि व्यवस्था को सुधारा जाएगा, शासन तंत्र को बदला जाएगा जो सज्जन को बल देगा एवं दुर्जन को क्षमा नहीं करेगा।-तरुण विजय

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