भारत अपना ‘सोशल मीडिया’ क्यों नहीं बनाता

Wednesday, Feb 13, 2019 - 04:58 AM (IST)

हमारी एक खासियत है। कोई भी बाहर का हो। अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी बोलता हो और फिर अगर वह सोशल मीडिया के एक हिस्से का मालिक है तो फिर बात ही क्या? हमारे मुल्क में आ जाए तो हम इस तरह से उसकी आवभगत करते हैं मानो वह किसी सर्वप्रभुत्ता सम्पन्न देश का मालिक हो। तनिक हमारी हल्की-फुल्की कुछ तारीफ कर दी तो बस हम यूं खुश होते हैं मानो उस सर्टीफिकेट के लिए बरसों से हम तरस रहे थे।

ट्विटर, फेसबुक, जीमेल का ऐसा ही मामला  है। इन दिनों ट्विटर से झगड़ा चल रहा है। ट्विटर के भारतीय समन्वयक भारतीय बाबू ही हैं। जहां से वेतन मिलता है उसके प्रति निष्ठा रखते हैं। उनकी दुनिया अंग्रेजी वाली है। उनका भारत, भारतीयता, हमारी संवेदनाओं, धार्मिकता अथवा सामाजिक चादर से उतना ही लेना-देना हो सकता है जितना ट्विटर के केन्द्रीय कार्यालय सान फ्रांसिस्को में बैठे कम्पनी मालिकों का हो सकता है। उसे पैसा कमाना है और अपने देश के कानून के अंतर्गत हम सबकी सूचना सम्पदा अमरीका में जमा करनी है। हम भले, सज्जन, सभ्य, सब पर विश्वास करने वाले और सदियों से सबसे विश्वासघात सहने वाले थोड़ा-बहुत शोर मचाएंगे ही। डी.पी. वगैरह बदल कर ऐसे विरोध प्रकट करेंगे मानो जंतर-मंतर पर खड़े हों। 

ट्विटर के मुख्य कार्यकारी जैक डोरसी ने संसदीय समिति के पहले बुलावे को तो टाल दिया और असभ्यतापूर्वक उनकी कम्पनी के भारतीय संचालकों ने एक भारतीय महिला कर्मचारी को समिति के सामने भेजा जिन्हें विशेष आराम और चिकित्सकीय संरक्षण की आवश्यकता थी। हम समझते हैं ट्विटर वाले भले लोग हैं लेकिन उन्होंने उन भारतीय महिला को समिति के सामने भेजा जाना भी खबर में तबदील कर संसदीय समिति पर ही दोषारोपण करने की कोशिश की। मानो इसका इल्जाम भी समिति पर हो। 

बहरहाल देखते हैं कि जैक डोरसी संसदीय समिति द्वारा दी गई अंतिम तिथि पर आते हैं या नहीं। और अगर आ भी गए तो अपने व्यवहार या ट्विटर के भारतीय चलन में कोई परिवर्तन करेंगे, इसकी कोई गुंजाइश किसी को दिखती नहीं बल्कि यह हमारे वामपंथी एवं भाजपा विरोधी सैकुलरों के हाथ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन का एक और ऐसा उदाहरण बनेगा जिसे अमरीकी अखबार और उनमें लिखने वाले भारतीय स्तम्भकार मसाले के साथ इस्तेमाल करेंगे। 

प्रश्र यह है कि अगर ईस्ट इंडिया कम्पनी हमारे लिए इसलिए खराब थी कि वह भारत की सम्पदा को लूट कर ब्रिटेन ले जा रही थी तो किस कसौटी पर हमें ट्विटर, फेसबुक और गूगल इतने प्रिय लगते हैं कि न केवल हम उनके द्वारा प्रत्येक भारतीय की सूचना सम्पदा लूटे जाने पर खामोश हैं बल्कि उन्हें बांहें फैलाकर, अतिरिक्त सुविधाएं देकर रेलवे स्टेशनों से लेकर हवाई अड्डों और आम बाजारों तक सूचना एकत्र करने का काम इस प्रकार सौंपते हैं मानो हम बेबस हों और उनके सिवाय हमारी कोई मदद करने वाला हो ही न। भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी एवं इंटरनैट से जुड़े कानून इतने कमजोर और अभी तक अनेक प्रावधानों के असंशोधित रूप में स्थापित हैं कि जिनके अंतर्गत ट्विटर, फेसबुक, गूगल द्वारा भारत की सूचना सम्पदा की लूट एवं प्रत्येक भारतीय के व्यवहार, स्वभाव, वित्तीय आचरण, पसंद-नापसंद की समस्त जानकारी अमरीका में एकत्र करने की कार्रवाई का हम न विरोध कर सकते हैं, न ऐसा करने की इच्छा रखते हैं। 

संभवत: हम भारत के महान और विश्वविख्यात सूचना प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों को अमरीकी कुली बनते देख खुश होते हैं। हम उनसे यह पूछने की कोशिश नहीं करते कि भाई आप पढ़े तो अपने आंध्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश के साधारण स्कूलों में हो। आपको अमरीका में करोड़ों रुपए महीने की तनख्वाह मिलने लगी। गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, ट्विटर जैसे बड़े नामधारी निगमों में बड़े कारोबार और संचालक जब भारतीय बन जाते हैं तो हम भारत में बैंड बाजा बारात लेकर उनकी तारीफ करते हैं और दन-दनादन उन्हें पुरस्कारों से लाद देते हैं। वे अमरीकी माता और ब्रिटिश माता की सेवा करते हैं। सुंदर पिचई और सत्या नाडेला बड़े नाम हैं। ऐसे पचासों और दूसरे बड़े नाम हम ढूंढ सकते हैं। क्या वे भारत में भारतीयों के लिए कोई सोशल मीडिया मंच नहीं बना सकते जिसके माध्यम से एकत्र की जाने वाली समस्त सूचना सम्पदा भारत में ही रहे? 

2014 में मैंने राज्यसभा में मांग उठाई थी कि जीमेल, याहू तथा ट्विटर जैसे अमरीकी सोशल मीडिया मंचों पर जाने वाली भारतीय सूचनाएं अमरीकी कानून के अंतर्गत वहां के रक्षा सलाहकार के पास जाती ही हैं और उनका राजनीतिक, आर्थिक एवं रणनीतिक उपयोग हम रोक नहीं पाते। इसलिए आवश्यक है कि भारत अपने सामाजिक व्यवहार के मंच एवं संवाद की इलैक्ट्रॉनिक डाक स्थापित करे। करोड़ों, अरबों रुपए हम आई.टी. विभागों और मंत्रालयों पर खर्च करते हैं। 

भारत का एक केन्द्रीय और सूचना प्रौद्योगिकी एवं साइबर सचिव भी है। एन.आई.सी. में जितना निवेश होना चाहिए उतना क्यों नहीं करते ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा की यह चौथी भुजा मजबूत बने और सामान्य नागरिक जीमेल और याहू की बजाय ए न.आई.सी. इस्तेमाल करने के लिए उत्साहित हो? सांसदों को एन.आई.सी. की ईमेल सुविधा दी जाती है पर क्या कारण है कि अधिकारियों और सांसदों में शायद ही कोई इसका इस्तेमाल करना चाहता हो? अपने उपकरण मजबूत नहीं करेंगे, विदेशी कम्पनियों को भारतीय सूचना सम्पदा एकत्र करने की पूरी सुविधा देंगे और उसके बाद शिकायत करेंगे कि ये लोग बेईमानी कर रहे हैं और हमारी सुनते नहीं। विदेशी कम्पनियां सूचना क्षेत्र में ईस्ट इंडिया कम्पनी ही है पर हम भोले-भाले भारतीय इतिहास दोहराना बहुत पसंद करते हैं।-तरुण विजय

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