फसलों की उत्पादकता बढऩे के बावजूद मध्य प्रदेश के किसान दुखी क्यों

Wednesday, Jun 28, 2017 - 12:24 AM (IST)

मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले से संबंधित किसान घनश्याम सिंह पिपावत  की उज्जैन से मंदसौर जाने वाली सड़क पर प्याजों से भरी ट्रैक्टर-ट्राली 13 जून से रुकी हुई थी। कतार में उनसे आगे 200 से अधिक ट्रालियां खड़ी थीं। ये सभी लोग अपना प्याज बेचने के लिए कृषि उत्पाद विपणन समिति (ए.पी.एम. सी.) की मंडी में जा रहे थे लेकिन 3 दिन बाद भी कतार यथावत थी और इसमें ट्रैक्टर-ट्रालियों व किसानों की संख्या काफी बढ़ गई थी। 

वे सड़क के किनारे लगे स्टालों से जो भी मिलता वही खरीद कर ट्रालियों की छाया में बैठ कर खा रहे थे। जो पैसे वे घर से साथ लेकर चले थे वे समाप्त होने पर आ गए थे लेकिन 8 रुपए किलो के भाव पर भी वे अपना प्याज नहीं बेच पा रहे थे। ऊपर से परेशानी की बात यह कि जिन लोगों ने प्याज बेचा था उनको भी पैसे की अदायगी नकदी के रूप में नहीं हो रही थी बल्कि सीधे बैंक खातों में पैसा भेजा जा रहा था। 3 दिन से लगातार कतार में लगे हुए घनश्याम सिंह दुखी होकर कह रहे थे : ‘‘जब मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की तो कहा था कि किसानों को अब भविष्य में कतार में खड़े नहीं होना पड़ेगा लेकिन मैं 3 दिन से ट्रैक्टर-ट्राली लिए कतार में खड़ा हूं। आखिर क्यों?’’ 

अन्य राज्यों के समक्ष कृषि के मॉडल के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे मध्य प्रदेश के किसान आखिर दुखी क्यों हैं? इसकी वास्तविकता यह है कि फसलों की उत्पादकता बढऩे से किसानों को लाभ नहीं हुआ है। उन्हें लाभदायक मूल्य नहीं मिल रहे। यहां तक कि 3 साल पहले अपनी जिंस  के लिए जो भाव मिलता था अब वह भी नहीं मिल रहा। प्रदेश के पूर्व कृषि सचिव तथा इंडियन कौंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनैशनल इकोनामिक रिलेशंस के सीनियर फैलो प्रवेश शर्मा का कहना है कि किसानों का वर्तमान आंदोलन कुछ हद तक तो मध्य प्रदेश द्वारा गत कई वर्षों दौरान सिंचाई में हुए निवेश, उत्पादकता में वृद्धि तथा किसानों द्वारा अच्छी कमाई करने का ही नतीजा है। वर्तमान संकट मंडीकरण एवं नीति निर्धारण की विफलताओं का मिला-जुला नतीजा है। कृषि के सम्पूर्ण ढांचे में सुधारों की जरूरत है और साथ ही बढ़ी हुई उत्पादकता के अनुरूप कुछ अनुपूरक बदलाव भी होने चाहिएं। 

प्रवेश शर्मा कहते हैं: ‘‘दीर्घकालिक  नीतियां और मंडीकरण के संबंध में उठाए गए कदम ही कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर को बनाए रखने में सहायक होंगे। उदाहरण के तौर पर ऐसे कानून बनने चाहिएं जिनकी सहायता से किसान ‘लैंड पुलिंग’ कर सकें। उत्पादन की लागत घटाने के लिए केन्द्र सरकार के साथ-साथ सभी राज्य सरकारों को भी बहुत दूरगामी मंडीकरण सुधार करने होंगे। किसानों को ए.पी.एम.सी. की मंडियों से मुक्ति दिलाए जाने की जरूरत है। इसके अलावा मछलीपालन, मुर्गीपालन इत्यादि जैसे गैर फसली कृषि धंधों की ओर विविधीकरण की प्रक्रिया चलाई जानी चाहिए ताकि किसान  फसलों के मूल्यों में आने वाले भारी उतार-चढ़ाव की स्थिति में भी आर्थिक रूप में सुरक्षित रह सकें।’’ 

किसान नेता केदार सिरोही ने बताया  कि 2007-08 में शिवराज सिंह चौहान ने किसानों को गेहूं के 850 रुपए प्रति क्विंटल मूल्य के अलावा 150 रुपए प्रति क्विंटल बोनस देने की शुरूआत की थी जिसके फलस्वरूप बहुत से किसानों ने सोयाबीन की खेती छोड़ कर गेहूं की खेती अपना ली लेकिन 2015 में यह बोनस बंद कर दिया गया। बेशक अब गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1625 रुपए है लेकिन सरकार की ओर से न ही बोनस मिलता है और न ही सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेहूं की खरीद करती है। हताश होकर किसान व्यापारियों के पास 1400 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर गेहूं बेचने को मजबूर हुए हैं। 

सिरोही का कहना है कि इस नाइंसाफी और सरकारी संवेदनहीनता के विरुद्ध किसानों में पहले भी आक्रोश था लेकिन वह स्थानीय स्तर तक सीमित रहता था। लेकिन अब की बार किसान सड़कों पर उतर आए और साथ ही राजनीतिक दल सम्प्रदाय या जातिगत आधार पर उन्हें विभाजित करने में भी असफल रहे। राजस्थान से सटी सीमा से लेकर महाराष्ट्र तक की पट्टी के किसान खाद्यान्नों के साथ-साथ तिलहन, औषधीय जड़ी-बूटियों, फलों, सब्जियों और मसालों की खेती करते हैं लेकिन सभी की व्यथा मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रचारित कृषि क्षेत्र की उपलब्धियों को झुठलाती है। उदाहरण के तौर पर कृषि उत्पादों की ग्रेडिंग की नीति त्रुटिपूर्ण है क्योंकि इसमें यह कहीं भी स्पष्ट तौर पर नहीं बताया गया कि अन्य राज्यों के व्यापारी मध्य प्रदेश सरकार की वैबसाइट की सहायता से उनके उत्पादों की खरीद किस प्रकार करेंगे और इन उत्पादों की ढुलाई की क्या व्यवस्था होगी? 

आम किसान यूनियन के एक अन्य नेता अमृत पटेल ने बताया कि मंडियों में बेशक ई-नीलामी प्लेटफार्म स्थापित किए गए हैं तो भी व्यावहारिक रूप में इनकी शुरूआत नहीं हुई है। यहां तक कि मूंग की दाल से भरी हुई 1000 ट्रालियां 17 जून को इंतजार कर रही थीं कि सामान्य नीलामी के माध्यम से उनके उत्पाद की बिक्री करवा दी जाए। किसान अपना मूंग बेचने की हड़बड़ी में इसलिए थे क्योंकि सरकार ने यह घोषणा कर दी थी कि वह केवल चालू महीने की अंतिम तारीख तक ही 5225 रुपए न्यूनतम समर्थन मूल्य की दर से खरीद करेगी, इसके बाद उन्हें केवल 3500 रुपए प्रति किं्वटल के हिसाब से ही यह फसल बेचनी पड़ेगी। किसान परेशान इस बात से हैं कि इस समय उन्होंने खेतों में खरीफ की फसलों की बुवाई करनी होती है लेकिन उन्हें  लाइन में लगना पड़ा है। 

केदार सिरोही का कहना है कि किसानों की ओर से ऋण माफी की मांग इसलिए बलवती होती जा रही है कि उनकी फसलों के उचित खरीद दाम नहीं मिल रहे। इसके अलावा नोटबंदी के कारण उन्हें नकद भुगतान नहीं हो रहा और जो नकदी उनके पास पहले से थी वह समाप्त हो चुकी है। यदि मध्य प्रदेश सरकार सभी किसानों के लिए ऋण माफी की घोषणा करती है तो इस पर 83,000 करोड़ रुपया खर्च आएगा और इससे 58 लाख किसान लाभान्वित होंगे। लेकिन कुछ अन्य किसानों का कहना है कि यदि किसानों को उनके उत्पाद का सही दाम मिलता रहे तो  मध्य प्रदेश के 82 लाख किसानों में से 70 प्रतिशत को किसी भी ऋण माफी की जरूरत नहीं पड़ेगी।

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