आखिर क्यों ‘विवादों’ में रहता है जे.एन.यू.

Friday, Jan 10, 2020 - 01:32 AM (IST)

देश के सबसे विवादित विश्वविद्यालयों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू.) पुन: गलत कारणों से चर्चा में है। यह स्थिति तब है, जब भारतीय करदाताओं की गाढ़ी कमाई पर शत-प्रतिशत आश्रित और 8,500 छात्रों से सुसज्जित जे.एन.यू. पर औसतन वार्षिक 556 करोड़ रुपए, अर्थात प्रति एक छात्र 6.5 लाख रुपए का व्यय होता है। इससे भी बढ़कर, यह संस्था दक्षिण दिल्ली स्थित एक हजार एकड़ की बहुमूल्य भूमि पर निर्मित है और सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त है। 

इस घटनाक्रम पर कांग्रेस, तृणमूल सहित अधिकांश स्वयंभू सैकुलरिस्ट दल यह स्थापित करना चाह रहे हैं कि जे.एन.यू. का संकट मोदी सरकार की देन है। क्या वाकई ऐसा है? इस विश्वविद्यालय की स्थापना 1969-70 में हुई थी, उसके बाद से ही यह कई विवादों, शिक्षकों/कुलपति से अभद्र व्यवहार और हिंसक आंदोलन का साक्ष्य बन चुका है। इस विश्वविद्यालय में छात्रों का सबसे उग्र प्रदर्शन वर्ष 1980-81 के कालखंड में तब हुआ, जब छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे राजन जी. जेम्स को तत्कालीन कार्यकारी कुलपति के.जे. महाले को अपशब्द कहने पर निलंबित कर दिया गया था। उस समय स्थिति इतनी बिगड़ गई कि तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को 16 नवम्बर, 1980 से 3 जनवरी,1981 के बीच इस विश्वविद्यालय को 46 दिनों तक लगातार बंद करना पड़ा था। इस दौरान आंदोलित छात्रों (निष्कासित और निलंबित छात्र सहित) से छात्रावास खाली कराने हेतु पुलिसबल की सहायता लेनी पड़ी थी, जिसमें जेम्स सहित कई छात्रों के कमरों के दरवाजे तोड़ते हुए पुलिस को अंदर घुसना पड़ा। इस संबंध में विस्तृत रिपोर्ट अंग्रेजी पत्रिका इंडिया टुडे के 15 फरवरी 1981 को प्रकाशित अंक में उपलब्ध है, जिसे पाठक इंटरनैट पर आसानी से खोज भी सकते हैं। 

इंदिरा ने 1974 में जे.एन.यू. से नाता तोड़ लिया था
ऐसा नहीं कि यह विश्वविद्यालय इस घटना से पहले और बाद में फिर अशांत ही नहीं हुआ। वर्ष 1974 में यह संस्था अपने अस्तित्व में आने के 6 वर्ष के भीतर ही इतिहास विषय में छात्र प्रवेश को लेकर हुए विवाद के कारण कुछ समय के लिए बंद हो गई थी। उस समय इसकी कुलाधिपति देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी थीं। इस घटना से वह इतनी क्षुब्ध हुईं कि उन्होंने इस विश्वविद्यालय से नाता ही तोड़ लिया और कुलाधिपति पद से इस्तीफा दे दिया।

देश का सबसे विवादित विश्वविद्यालय बना
वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के समय जे.एन.यू. छात्रों द्वारा भारतीय सुरक्षाबलों को अपशब्द कहना, 2010 के दंतेवाड़ा नक्सली हमले में 76 सी.आर.पी.एफ. जवानों के नरसंहार का जश्न मनाना. 2016 को ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे...इंशा अल्लाह...इंशा अल्लाह...’’ जैसे नारे लगाना, गत वर्ष नवम्बर में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अयोध्या स्थित रामजन्मभूमि पर आए निर्णय के खिलाफ  प्रदर्शन करना और अब शेष जे.एन.यू. छात्रों से परीक्षा का जबरन बहिष्कार करवाने हेतु विश्वविद्यालय के सर्वर रूम को क्षति पहुंचाना- ये सब इसे देश का सबसे विवादित विश्वविद्यालय बना देते हैं। 

यह विश्वविद्यालय कालांतर में राष्ट्र-हिंदू विरोधी गढ़ बन गया
अब नुरुल हसन के कार्यकाल में चूंकि विश्वविद्यालय में छात्रों के प्रवेश और कालांतर में सभी संस्थागत नियुक्तियों पर अंतिम निर्णय लेने का अधिकार वामपंथी कुनबे के हाथों में था, तब यहां छात्रों सहित उन लोगों की संख्या लगातार बढ़ती गई, जो विशुद्ध वामपंथी थे या फिर जिनसे वैचारिक समायोजन करना स्वाभाविक था। इसी कारण यह विश्वविद्यालय कालांतर में न केवल राष्ट्र-हिंदू विरोधी का गढ़ बन गया, साथ ही पाश्चात्य संस्कृति से ग्रस्त होकर और विदेशी शक्तियों के बल पर सत्ता विरोधी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र भी बन गया। 

वामपंथ का चरित्र कैसा है? यदि इसे सरल भाषा में समझा जाए, तो वह भारतीय वांग्मय में उस साधु (छद्म-सैकुलरवाद) के भेष में आए रावण की तरह है, जो बहलाने-फुसलाने के बाद सीता (जनता) का अपहरण कर लेता है और बाद में जनता, सीता की भांति उसकी कैद में असहाय हो जाती है। इसी तरह पश्चिमी काल्पनिक साहित्य ‘‘सिंदबाद जहाजी’’ की कहानी में वामपंथी उस दुष्ट व्यक्ति की भांति है, जो शारीरिक रूप से अक्षम होने का स्वांग रचता है और समुद्र में तहस-नहस हुई अपनी नाव से जान बचाकर एक टापू पर पहुंचे नाविक सिंदबाद से नदी पार करवाने हेतु मदद मांगता है। उसके जाल में फंसने के बाद सिंदबाद उसकी सहायता तो करता है, किंतु वह दुष्ट व्यक्ति बाद में उसका शोषण करते हुए न केवल नीचे उतरने से मना कर देता है, साथ ही उसका निर्देश नहीं मानने पर सिंदबाद का गला भी दबाने लगता है। यही वामपंथ का वास्तविक चेहरा है।-बलबीर पुंज

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