‘गैर-हिन्दुओं’ को मंदिरों में क्यों नहीं जाने दिया जाता

Monday, Sep 25, 2017 - 12:14 AM (IST)

ओडिशा में दुर्योधन और दु:शासन दोनों नाम ही बहुत आम हैं। मैं यह बात तब तक नहीं जानता था जब तक मैंने भुवनेश्वर और पुरी की यात्रा नहीं की। इस सप्ताह मैं वहां महान जगन्नाथ मंदिर के दर्शनार्थ गया। मैं सामान्यत: इन स्थलों पर इसलिए जाता हूं कि इनका इतिहास और वास्तुकला मुझे बहुत आकॢषत करती है। ऐसे स्थलों पर जाकर ही इस बात का बोध होता है कि भारत सांस्कृतिक दृष्टि से एक रूप नहीं है, बेशक बाहरी तौर पर ऐसा कितना भी आभास क्यों न होता हो।

जैसा कि हमें पढ़ाया जाता है, दु:शासन को महाभारत युद्ध का खलनायक माना जाता है। ऐसे में गुजरात तो क्या भारत के किसी भी स्थान पर कोई माता-पिता अपने बेटे का नाम दु:शासन रखते हैं तो यह सचमुच ही आश्चर्यजनक बात होगी। स्पष्ट है कि ओडिशा वासी बहुत दिलचस्प किस्म के लोग हैं। उनमें इतनी सांस्कृतिक गहराई है कि उन्हें बहुत कठोर परिश्रम वाले ‘ब्ल्यू कालर’ काम-धंधे करते हुए अनेक वर्षों तक देखने के बाद भी हम में से अधिकतर लोग इसकी थाह नहीं पा सकते। अपनी ताजा यात्रा के दौरान मैं अपनी सासु मां के परिवार को साथ लेकर गया था जो कि बंगाली ब्राह्मण है और वह मेरी तुलना में पूजा-अर्चना में अधिक दिलचस्पी लेते हैं। मुझे भगवान के साथ कोई खास समस्या नहीं है परंतु मुझ पर पहले ही इतनी प्रभु कृपा है कि और अधिक चीजें मांगना मेरे लिए परेशानी का सबब है। 

यही कारण है कि मैं धर्म स्थलों पर जाकर वरदानों की मांग नहीं करता। जगन्नाथ मंदिर के बाहर अनेक भाषाओं में एक पट्टिका लगी हुई है जिस पर लिखा है कि केवल हिंदुओं को ही प्रवेश करने की अनुमति है। मैं यह मानता हूं कि इसके पीछे जो विवेक काम करता है वह मेरी समझ से परे है। गिरजाघरों में ऐसा कोई नियम नहीं है। यहां तक कि सबसे प्रसिद्ध वैटिकन में भी इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं। वास्तव में मैंने वहां देखा है कि ईसाई धर्म से संबंधित प्राचीन कला वस्तुएं वहां बहुत गर्व से प्रदर्शित की जाती हैं। सऊदी अरब वाले मक्का में गैर मुस्लिमों को प्रवेश नहीं करने देते। हालांकि हमें यह बताया गया है कि गुरु नानक ने एक बार वहां की यात्रा की थी। 

कुछ वर्ष पूर्व लाहौर में मैं गुरु अर्जुन देव जी का गुरुद्वारा अपने कुछ स्थानीय दोस्तों के साथ देखने गया था। वहां गुरुद्वारा के बाहर एक बोर्ड लगा हुआ था जो शायद पाकिस्तान की सरकार द्वारा लगाया गया था कि मुस्लिमों का वहां प्रवेश वर्जित है। हमने बोर्ड पर लिखी हुई जानकारी की परवाह नहीं की और जब गुरुद्वारा के सिख सेवादारों ने हमसे पूछा कि हम किस मजहब से संबंधित हैं तो मेरे साथियों ने झूठ नहीं बोला। मेरे स्थानीय दोस्तों के एक बच्चे का नाम अर्जुन था। जब सिख सेवादारों को यह पता चला तो उन्होंने आग्रह किया कि हम बच्चा उन्हीं के पास खेलने के लिए छोड़ जाएं। बच्चे को छोड़कर हम सभी गुरुद्वारा साहिब में घूमने निकल गए। भारत में मस्जिदों, गिरजाघरों और गुरुद्वारों में किसी का भी प्रवेश वॢजत नहीं है और मैं तो ङ्क्षहदू भाइयों को प्रोत्साहित करूंगा कि अपनी किसी स्थानीय मस्जिद के अंदर जाकर देखें। उनका स्वागत होगा और वह इससे बहुत अभिभूत होंगे, बेशक वह इस्लाम में रुचि लेते हों या न। 

आखिर जो लोग हमारे धर्म और आस्था के बारे में जिज्ञासा रखते हैं लेकिन पैदा किसी अन्य धर्म में हुए हैं, उन्हें मंदिरों में जाने से वर्जित क्यों किया जाए? इस वर्जना का आधार यह तो हो नहीं सकता कि हिंदू धर्म ग्रंथों में ऐसा विधान है। यदि धर्म ग्रंथों में ऐसा कहा गया होता तो समस्त मंदिरों में नियमित परम्परा होती कि गैर हिंदुओं के प्रवेश का निषेध है। फिर भी हमें अधिक से अधिक स्थानों से ऐसी जानकारी मिलती रहती है कि प्रमुख मंदिरों द्वारा विदेशी पर्यटकों और गैर हिंदुओं के प्रवेश पर मनाही लागू की जाती है। मैंने ऐसा ही एक निषेधादेश मदुरै के प्रसिद्ध मीनाक्षीपुरम मंदिर तथा नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर में देखा था। 

महान गायक येशुदास ईसाई परिवार में पैदा हुए थे लेकिन उन्हें गुरुवायुर जैसे मंदिरों में भजन गाने से लगातार  रोका जाता है। 30 सितम्बर को उन्हें पद्मनाभ स्वामी मंदिर में भजन गाने की अनुमति मिल गई है। मेरा मानना है कि उन्हें यह अनुमति तभी मिली जब उन्होंने शपथ पत्र देकर कहा कि वह हिंदू मान्यताओं में विश्वास रखते हैं। अन्य मजहबों के लोगों को खुद से दूर रखने का कारण सम्भवत: यह है कि हिंदू धर्मान्तरण नहीं करते इसलिए उन्हें धर्मान्तरण करने वाले समुदायों को अपने दायरे से बाहर रखने का अधिकार है। लेकिन इस बात को प्रमाणित करना कठिन है। तथ्य यह है कि मंदिरों ने हमेशा ही कुछ लोगों के लिए प्रवेश वर्जित रखा है, खास तौर पर जबकि वह हिंदू ही है। 

उल्लेखनीय है कि 1930 में गांधी जी को तब अनशन पर बैठना पड़ा था जब मेेरे ही पाटीदार समुदाय द्वारा संचालित स्वामी नारायण सम्प्रदाय के मंदिरों ने निम्न जातियों के मंदिर प्रवेश की मनाही कर दी थी। वास्तव में स्वामी नारायण सम्प्रदाय ने तो अदालत में खुद को एक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। वे अपने ही धर्म की कथित अछूत जातियों को मंदिर प्रवेश देने पर राजी होने की बजाय खुद को गैर हिंदू समुदाय बताने को तैयार थे। ऐसे में क्या यह माना जाए कि जाति की पवित्रता बनाए रखने का पूर्वाग्रह ही वह कारण है जिसके चलते मंदिरों में अन्य लोगों का प्रवेश वर्जित है? मैं उम्मीद करता है कि यह कारण नहीं होना चाहिए। 

जगन्नाथ मंदिर के पंडों ने जब इंदिरा गांधी के मंदिर प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था तो यह बात दुनिया भर में चर्चित हुई थी, हालांकि इंदिरा गांधी हिंदू परिवार में पैदा हुई थीं और उनका दाह संस्कार भी हिंदू के रूप में हुआ था। 2012 में ऐसी रिपोर्टें आई थीं कि जगन्नाथ के पंडों ने ऐसी पट्टिकाएं लगवाई हैं जिन पर लिखा हुआ है: ‘‘केवल सनातनी हिंदुओं को ही प्रवेश की अनुमति है।’’ मैंने स्वयं ऐसी कोई पट्टिका नहीं देखी लेकिन यह बात बहुत बड़ी पहेली है। सनातनी ङ्क्षहदू तो पूरी तरह वर्ण व्यवस्था पर आस्था रखता है, जिसकी संविधान की धाराओं 14-17 में पूरी तरह मनाही की गई है। केवल वही व्यक्ति सही मायनों में सनातनी है जो वर्ण व्यवस्था का पालन करता है और यह स्वीकार करता है कि शूद्रों को वेद ज्ञान नहीं दिया जाना चाहिए। 

ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि पंडे आखिर मंदिरों में किन लोगों को प्रवेश की अनुमति देने का प्रयास कर रहे हैं? यह पट्टिका केवल तब लगाई गई थी जब ओडिशा की एक महिला से शादी रचाने वाले एक अमरीकी ने जगन्नाथ रथयात्रा में हिस्सा लेने का प्रयास किया और पंडों ने उसकी पिटाई कर दी। उसकी पत्नी शिल्पी बोरल को समाचार रिपोर्टों में यह कहते दिखाया गया : ‘‘यह अन्याय है। जब भगवान जगन्नाथ को सृष्टि का स्वामी माना जाता है तो कोई व्यक्ति मेरे पति को मंदिर प्रवेश से इंकार कैसे कर सकता है?’’ मैं इस महिला का दर्द समझता हूं और कामना करता हूं कि पुरी के साथ-साथ अन्य मंदिर भी स्पष्ट रूप में यह व्याख्या करें कि वह कुछ लोगों को मंदिरों के धार्मिक अनुष्ठानों से बाहर क्यों रखना चाहते हैं? 

जहां तक जगन्नाथ मंदिर का सवाल है, यह वास्तुकला तथा अप्रितम तरह की मूर्तियों के कारण बहुत ही खूबसूरत है। यह मूर्तियां मानवीय आकृतियों से मेल नहीं खातीं बल्कि अपने आप में अद्वितीय हैं। हम मंदिर में तब पहुंचे जब वहां अंतिम आरती चल रही थी और मंदिर के अंदर केवल कुछ ही लोग रह गए थे। भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के दर्शन करने के बाद मैं भीड़ की ओर मुड़ा और यह नजारा भी बहुत अनमोल था। भारतीय लोग प्रार्थना के सिलसिले में बाहरी आडम्बर अधिक करते हैं। कभी वह हाथ ऊपर उठाते हैं, कभी दंडवत झुक जाते हैं और कभी लेटते हुए आगे बढ़ते हैं। इसका एक कारण शायद यह है कि हमारी प्रार्थना गिरजाघर, मस्जिद, गुरुद्वारा की तरह सामुदायिक नहीं बल्कि व्यक्ति केन्द्रित है कि मूर्ति की हम पर विशेष रूप से दृष्टि पड़े। 

इस उद्देश्य से हम ऐसी हरकतें करते हैं या ऐसे इशारे करते हैं जिससे मूर्ति हमें अनेक लोगों में से अलग पहचान ले। (क्या  कुछ लोगों  को बाहर रखने का एक कारण यह भी है कि हम मूर्ति का पूरा ध्यान अपने लिए आरक्षित रखना चाहते हैं?)आरती के लिए आए हुए अधिकतर लोग काफी गरीब थे लेकिन उनके चेहरे सचमुच की श्रद्धा, आवेश और समर्पण का प्रदर्शन कर रहे थे और मैं इस दृश्य से अभिभूत हो गया था। मैं चाहूंगा कि अधिक से अधिक लोग हिंदू श्रद्धा के आवेश और आनंद के पलों की अनुभूति करें और दूसरों की ऐसी अनुभूति के दर्शन करके खुद  भी आनंदित हों। 

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