सचिन पायलट ने नई पार्टी क्यों नहीं बनाई

punjabkesari.in Tuesday, Jun 13, 2023 - 05:47 AM (IST)

तो 11 जून आई और आकर चली गई लेकिन सचिन पायलट की नई पार्टी का ऐलान नहीं हो सका। सचिन ने नई पार्टी अपने पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर नहीं बनाई, इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस में उनका झगड़ा खत्म हो गया है या वह आगे भी कभी नई पार्टी नहीं बनाएंगे और कांग्रेस में ही टिके रहेंगे। मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए लोकसभा में एक बार विपक्ष के भाजपा नेताओं के हो-हल्ले के बाद एक शे’र पढ़ा था-

‘‘न खंजर उठेगा , न तलवार इन से, 
यह बाजू मेरा आजमाए हुए हैं।’’


तो क्या सचिन पायलट के लिए भी कहा जाए कि अशोक गहलोत से लेकर आलाकमान को इस बात का पूरा एहसास था और सचिन के बाजुओं की ताकत भी आजमा ली गई थी। ऐसा कहना सचिन के साथ ज्यादती होगा लिहाजा यूं कहा जा सकता है कि युवा योद्धा की भुजाएं फड़क रही थीं। हाथ खंजर उठाने को मचल रहे थे, बाजू तलवार चलाने के लिए कसक रहे थे लेकिन सचिन पायलट ने सब्र किया और राजनीतिक खुदकुशी से खुद को बचा लिया।

जानकारों का कहना है कि सचिन पायलट को सियासी आत्महत्या करनी है तो इसके 3 विकल्प हैं : 1. नई पार्टी बनाना , 2. भाजपा के साथ जाना और 3. अरविंद केजरीवाल की पार्टी में जा मुख्यमंत्री का चेहरा बनना, लेकिन सचिन ने चौथा विकल्प चुना जो उनके राजनीतिक वजूद को बचाने के साथ-साथ विस्तार देने की क्षमता रखता है। यह बात भी सच है कि सचिन पायलट नई पार्टी बना लेते तो यह अशोक गहलोत की बड़ी जीत होती लेकिन यह बात भी सच है कि सचिन पायलट ने नई पार्टी नहीं बनाकर भी अशोक गहलोत के हिस्से में जीत डाल दी है। कहा जा सकता है कि सचिन पायलट और कांग्रेस के संगठन महासचिव  के.सी. वेणुगोपाल की पिछले दिनों दिल्ली में लंबी बैठक के बाद तय हुआ है कि राहुल गांधी के अमरीका से लौटने का इंतजार किया जाए।

राहुल 18 जून को वापस आ रहे हैं। तब तक आलाकमान एक नए फार्मूले पर काम कर रहा है जिसका ड्राफ्ट अगले 2-3 दिनों में दोनों को थमाया जा सकता है। ऐसे में सचिन के पास इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। वैसे सचिन अढ़ाई साल से इंतजार ही कर रहे हैं लेकिन हो सकता है कि इस बार उन्हें लगा हो कि इंतजार का फल मीठा होगा। अब यह फार्मूला क्या होगा इसे लेकर कयास लगाए जा रहे हैं। राज्य प्रभारी ने कुछ दिन पहले कहा था कि 90 फीसदी सुलह हो चुकी है और फार्मूला या तो गहलोत को पता है या फिर सचिन को। लेकिन अब कहा जा रहा है कि नया फार्मूला बनाया जा रहा है।

उधर गहलोत को अभी तक तो सचिन की किसी मांग से मतलब नहीं है और सचिन की किसी भी ख्वाहिश को पूरा करने के इच्छुक भी वह नहीं हैं। ऐसे में बीच का रास्ता ही समाधान हो सकता है। यहां कहा जा रहा है कि सचिन की 3 मांगों में से एक यानी वसुंधरा राजे के समय के भ्रष्टाचार की जांच के लिए अशोक गहलोत राजी हो सकते हैं। यहां आयोग या कमेटी बनाने के फेर में वह नहीं पडऩा चाहते। एक चैनल को दिए इंटरव्यू में गहलोत इशारा कर चुके हैं कि कोई नया सबूत सामने आता है तो देखा जा सकता है।

यानी सचिन या कोई अन्य नागरिक वसुंधरा राजे के शासन काल में घपले का कोई नया सबूत सामने लाए तो राज्य सरकार उसे लोकायुक्त के पास भेज सकती है। जांच की मांग भी पूरी हो जाएगी और गहलोत को भी दोस्ती निभाने के आरोप से मुक्ति मिल जाएगी। उलटे भाजपा में आधा दर्जन खेमे  खुश होंगे जो मुख्यमंत्री बनने की कतार में हैं। जानकारों का कहना है कि चूंकि वसुंधरा पर लोकायुक्त की जांच चल रही होगी लिहाजा वसुंधरा मुख्यमंत्री की रेस से अलग हो जाएंगी लेकिन यह थ्योरी कर्नाटक चुनाव से पहले तो ठीक थी लेकिन अब भाजपा आलाकमान येद्दियुरप्पा कांड के बाद वसुंधरा राजे को नाराज नहीं करना चाहता।

खैर, भाजपा खेमे में जो हो सो हो कांग्रेस खेमे में तो शांति आ सकती है। आर.पी.एस.सी. ( राजस्थान लोक सेवा आयोग) को भंग करने की मांग साफ तौर पर वाजिब तर्कों के साथ ठुकराई जा चुकी है और सचिन भी आयोग में खाली पड़े पद भरने पर जोर देने लगे हैं। अफसरों की भर्ती के नियम बदलने की मांग करने लगे हैं। परीक्षा लीक से युवा वर्ग को हुए आॢथक नुक्सान की भरपाई की मांग गहलोत की नजर में मानसिक दिवालिएपन का प्रतीक है लेकिन इस पर सचिन अड़े हुए हैं।

यहां भी मकसद अगर युवा वर्ग की आर्थिक मदद करने का है तो इसका कोई दूसरा रास्ता तलाशा जा सकता है। पता चला है कि सचिन पायलट को आलाकमान ने फिर से महासचिव बनाने का प्रस्ताव किया है। लेकिन सचिन राजस्थान किसी भी कीमत पर छोडऩा नहीं चाहते । आलाकमान उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने पर सहमत है लेकिन सुना है कि खुद सचिन ऐसा नहीं चाहते और गहलोत ऐसा कुछ होने देना नहीं चाहते।

आखिर गहलोत को अगर उस राजस्थान में फिर से कांग्रेस को जीत दिलानी है जहां 30 सालों से हर 5 साल में सरकार बदल जाती है तो सचिन का साथ चाहिए। गहलोत पहली बार 156 सीटों के साथ 1998 में मुख्यमंत्री बने थे। 2003 में हटे तो सीटें घटकर 56 रह गईं। गहलोत दूसरी बार 2008 में 96 सीटों के साथ मुख्यमंत्री बने थे। 2013 में हटे तो सीटें घटकर 21 रह गईं। अब तीसरी बार तीसरी चोट नहीं सहना चाहते। कह भी चुके हैं कि वह इस दाग को धोना चाहते हैं। इस काम में सचिन पायलट मदद कर सकते हैं खासतौर से पूर्वी राजस्थान की उन 26 गुर्जर बाहुल्य सीटों पर जहां पायलट के कारण पिछले चुनाव में कांग्रेस को 24 सीटेें हासिल हुई थीं। गहलोत भी इस आंकड़े को समझ रहे हैं  तो क्या सचिन ने नई पार्टी का ऐलान नहीं करके समझौते की गुंजाइश रखी है। -विजय विद्रोही


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