‘जनमत संग्रह का राग’ ही क्यों अलाप रहे हैं केजरीवाल

Friday, Jul 01, 2016 - 12:25 AM (IST)

दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य के दर्जे को लेकर जनमत संग्रह की मांग करते क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल अपने चिरलंबित सपने का पीछा कर रहे हैं? क्या दिल्ली में इस मामले को लेकर जनमत संग्रह होना चाहिए और क्या इससे भिड़ का छत्ता खुल जाएगा? चाहे सफल हों अथवा नहीं, केजरीवाल ने निश्चित रूप से एक चर्चा शुरू कर दी, जब उन्होंने गत सप्ताह यूरोपीय संघ (ई.यू.) से ब्रिटेन के निष्कासन के बाद ट्वीट किया कि ब्रिटेन के जनमत संग्रह के बाद अब दिल्ली में शीघ्र पूर्ण राज्य के दर्जे को लेकर जनमत संग्रह करवाया जाएगा। 

दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा एक चिरलंबित मांग है। रोचक बात यह है कि केजरीवाल के पूर्ववर्ती भी यह चाहते थे क्योंकि वर्तमान सीमित शक्तियों के चलते वे अपने हाथ बंधे हुए महसूस करते थे। केजरीवाल की पूर्ववर्ती शीला दीक्षित ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि पुलिस के अभाव में, जो उनके हाथ में नहीं थी, वह उस समय कुछ अधिक नहीं कर सकती थीं, जब निर्भया बलात्कार मामले ने राजधानी को झकझोर कर रख दिया। वह इस बात के विरुद्ध थीं कि बहुत सारी एजैंसियां दिल्ली का शासन चलाएं। ‘आप’ से पहले सत्ता में आई भाजपा ने भी ऐसी ही मांग की थी।

गत वर्ष विधानसभा चुनावों में अप्रत्याशित जीत ने ‘आप’ को पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। गत माह केजरीवाल ने पूर्ण राज्य के दर्जे को लेकर दिल्ली सरकार का मसौदा विधेयक ऑनलाइन जारी किया। इसमें एन.डी.एम.सी. के अन्तर्गत आने वाले उन क्षेत्रों का नियंत्रण लेने की बात कही गई, जो केन्द्र के पास थे तथा इसमें पुलिस, कानून व्यवस्था, भूमि व सेवाएं जैसे विषय शामिल करने को कहा गया, जो वर्तमान में दिल्ली सरकार के अन्तर्गत नहीं आते। जनता की राय जानने के लिए आधिकारिक समय सीमा 30 जून को समाप्त हो गई। 

ऐतिहासिक रूप से, 1975-77 के आपातकाल के ठीक बाद जनता पार्टी सरकार ने संवैधानिक (44वां संशोधन) विधेयक 1978 के माध्यम से जनमत संग्रहों की व्यवस्था लागू करने का प्रयास किया मगर यह सिरे नहीं चढ़ पाया। राज्य द्वारा प्रदत्त सीधे लोकतंत्र का एकमात्र उदाहरण गोवा में था। इस उद्देश्य के लिए बनाए गए एक कानून के अन्तर्गत प्रदत्त इसे गोवा ओपिनियन पोल 1967 कहा गया था। इसका उद्देश्य भारतीय संघ के भीतर केन्द्र शासित क्षेत्र गोवा, दमन तथा दीव का भविष्य निर्धारित करना था।  गोवा विधानसभा में 1976 में पूर्ण राज्य के दर्जे के लिए एक प्रस्ताव सहित निरंतर मांगों के पश्चात अंतत: 1987 में राजीव गांधी काल के दौरान गोवा एक राज्य बन गया। 

इस विचार का समर्थन करने वालों में पूर्व ‘आप’ नेता योगेन्द्र यादव भी शामिल हैं। उनका तर्क है कि केवल संविधान द्वारा प्रदत्त न होने के कारण राज्यों को इन विषयों से वंचित नहीं रखा जा सकता। उनका यह भी कहना है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने से संप्रभुता लोगों के हाथ में रहेगी और दिल्ली के लोगों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि ही दिल्ली के नागरिकों को प्रभावित करने वाले विषयों से निपट सकेंगे।

जो लोग इसके विरोध में तर्क देते हैं, उनका कहना है कि दिल्ली का एक विशेष चरित्र है क्योंकि संसद, सुप्रीम कोर्ट तथा विदेशी दूतावासों जैसी महत्वपूर्ण संस्थाएं राजधानी में स्थित हैं। दूसरे, विश्व भर में अधिकतर नई राजधानियों का प्रशासन संघीय क्षेत्र के रूप में राज्यों से अलग हटकर चलाया जाता है। पेइङ्क्षचग, केनबरा, वाशिंगटन डी.सी., ओट्टावा तथा अन्य बहुत सी प्रमुख राजधानियां इस पद्धति का उदाहरण हैं।

इसके साथ ही जनमत संग्रह कराना भिड़ के छत्ते में हाथ डालने की तरह हो सकता है। चूंकि संविधान में इस संबंध में कोई व्यवस्था नहीं है कि कौन सी कानूनी धारा किस प्रक्रिया को संचालित करेगी, केजरीवाल स्पष्ट नहीं हैं कि कैसे इसे संचालित किया जा सकेगा। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या यह चुनाव आयोग होगा अथवा कोई अन्य राज्य या केन्द्रीय एजैंसी। विशेषज्ञों का कहना है कि कानूनी धारा के अभाव में इस विषय पर एक सूचित चर्चा होनी चाहिए तथा केजरीवाल बिना सोचे-विचारे दिल्ली के लोगों पर यूं ही जनमत संग्रह नहीं थोप सकते। इस बात की गारंटी कहां है कि इस तरह के भावनात्मक मुद्दे का परिणाम कानून तथा व्यवस्था की समस्या के रूप में नहीं निकलेगा?

दूसरे, इससे अन्य केन्द्र शासित क्षेत्र भी ऐसी ही मांग उठाने लगेंगे। संविधान के अनुच्छेद 1 में दर्ज सात केन्द्र शासित क्षेत्रों (यू.टी.) में से दिल्ली केवल एक है। उपराज्यपाल के माध्यम से केन्द्रीय गृह मंत्रालय इनका प्रशासन चलाता है। दिल्ली चूंकि देश की राजधानी है, इसलिए केन्द्र सरकार पुलिस तथा भूमि से संबंधित शक्तियां राज्य सरकार को नहीं सौंपना चाहती। इसके पीछे एक ऐतिहासिक कारण है। 1911 में जब भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली हस्तांतरित हुई, ब्रिटिश सरकार दिल्ली को किसी भी राज्य के अन्तर्गत नहीं लाई मगर इसे ब्रिटिश इंडिया की राजधानी का दर्जा दिया गया।

भारतीय संविधान के जनक डा. बी.आर. अम्बेदकर, जिन्होंने संविधान मसौदा समिति के चेयरमैन होने के नाते अमरीका, आस्ट्रेलिया, कनाडा आदि की सरकारों के संघीय ढांचे का अध्ययन करने के बाद यह व्यवस्था दी कि राष्ट्रीय राजधानी किसी राज्य अथवा एक स्थानीय सरकार के अन्तर्गत नहीं हो सकती। राज्यों के पुनर्गठन के अधिनियम, 1956 ने दिल्ली का किसी भी अन्य राज्य में विलय नहीं किया और इसे राष्ट्रीय राजधानी के तौर पर छोड़ दिया। 1989 में संसद ने ‘द गवर्नमैंट ऑफ नैशनल कैपिटल टैरिटरी एक्ट 1991’ पारित किया मगर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने पर राजी नहीं हुई। दिल्ली विधानसभा को जन व्यवस्था, पुलिस तथा भूमि के अतिरिक्त सभी विषयों पर कानून बनाने तथा प्रशासन चलाने की शक्तियां दी गईं।

तीसरे, जहां कुछ यूरोपीय सहित बहुत से देश महत्वपूर्ण विषयों पर जनमत संग्रह का मार्ग अपनाते हैं मगर भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद ऐसा करने के लिए अभी इतना परिपक्व नहीं हुआ तथा इस प्रक्रिया में बहुत अधिक लागत आती है। तो क्यों, केजरीवाल जनमत संग्रह के विचार का राग अलाप रहे हैं? क्या इसलिए कि वह लोगों का ध्यान अपनी सरकार तथा पार्टी को घेरे विवादों से हटाना चाहते हैं? या फिर वह अपने 21 विधायकों पर लटक रही तलवार से ध्यान हटाना चाहते हैं, जो लाभ का पद के मुद्दे पर अपनी सदस्यता खो सकते हैं? वह इतने सुनिश्चित कैसे हैं कि संसद संविधान में संशोधन के पक्ष में मतदान देगी कि दिल्ली में जनमत संग्रह के लिए दो-तिहाई बहुमत हो। उनके केवल तीन सांसद हैं। साधारण उत्तर यह है कि वह विवादों की राजनीति में विश्वास करते हैं और मुद्दों से निपटने का उनका यह तरीका है।  
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