राज्यसभा को क्यों न खत्म कर दिया जाए

Tuesday, Jun 07, 2016 - 01:23 AM (IST)

(पूनम आई. कौशिश): आजकल कोई अपनी नाक-भौंह सिकोड़ता है तो आपको पता नहीं होता है कि इसका कारण प्रदूषण है या राजनीति। किन्तु दोनों ही स्थितियों में परिणाम एक जैसा होता है। बढ़ता राजनीतिक प्रदूषण बढ़ते पर्यावरणीय प्रदूषण की तरह ही है जिसमें धुआं विषैले अपशिष्ट और रिश्वत की लपटें स्पष्टत: दिखाई देती हैं और इस संबंध में हाल ही में राज्यसभा के द्विवाॢषक चुनावों में राजनीतिक प्रदूषण सार्वजनिक रूप से देखने को मिला। यह केवल पैसा और पैसे का खेल है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि राज्यसभा चुनाव केवल रिश्वत और पैसे के प्रतीक बन गए हैं लेकिन किसे परवाह है? हमारे सम्माननीय नेता इस पर खुश होते हैं किन्तु हमारे युवा लोकतंत्र का एक और गढ़ ढहता जा रहा है। 

 
एक टी.वी. चैनल द्वारा एक सिंटग आप्रेशन में कर्नाटक के जद (एस) और कांग्रेस के विधायकों को राज्यसभा के द्विवाॢषक चुनावों में अपने मत के बदले करोड़ों में पैसे का लेन-देन सामने आया है। यही नहीं एक अन्य चैनल पर एक कांग्रेसी उम्मीदवार और एक निर्दलीय विधायक को राज्य सरकार द्वारा उसके निर्वाचन क्षेत्र के विकास के लिए अधिक पैसा देने की बातें भी सामने आईं। बस उसे सिर्फ अपना वोट देना था। इस सब पर हमारे नेतागणों की प्रतिक्रिया प्रत्याशित रही है। 
 
मुख्यमंत्री सिद्धरमैया का कहना है कि कांग्रेस ने ऐसा कभी भी नहीं किया। क्या वास्तव में ऐसा है? भाजपा ने सत्तारूढ़ कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि वह उसके उम्मीदवारों को समर्थन देने वालों को 100 करोड़ रुपए तथा अन्य लाभ दे रही है, जबकि पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने वोट के बदले नकदी घोटाले में अपने दामाद की भूमिका से इंकार किया है। इसमें बड़ी बात कौन-सी है? सभी लोग जानते हैं कि राज्यसभा आज एक खरीदा हुआ सदन है। लोकसभा के चुनावों की तरह राज्यसभा का चुनाव भी एक बड़ा व्यापार बन गया है। 
 
अपेक्षित मत खरीदने के लिए 20 से 30 करोड़ रुपए तक दिए जाते हैं और प्रति मत 5 से 10 करोड़ तक दिए जाते हैं किन्तु कुछ लोग इसे एक अच्छा निवेश मानते हैं क्योंकि एक बार सांसद बनने के बाद उसे प्रति वर्ष एम.पी. लैड के अधीन 5 करोड़ रुपए मिलेंगे अर्थात 6 वर्ष के कार्यकाल में 30 करोड़ रुपए मिल जाएंगे और इस पैसे को वह अपनी मर्जी से खर्च कर सकता है क्योंकि उसका कोई स्पष्ट निर्वाचन क्षेत्र नहीं होता है। 
 
इस संबंध में बसपा अध्यक्षा मायावती द्वारा कुछ वर्ष पूर्व सबसे अधिक पैसे देने वाले को राज्यसभा का टिकट देने का मामला उल्लेखनीय है। उन्होंने अपनी पार्टी के उम्मीदवारों से स्पष्टत: कहा था कि यदि वे राज्यसभा का सदस्य बनना चाहते हैं तो उन्हें अपने एम.पी. लैड के पैसे को चंदे के रूप में देना पड़ेगा इसीलिए राज्यसभा के चरित्र और गुणवत्ता में निरंतर गिरावट आ रही है। नेता के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा, पैसा और राजनीतिक संपर्क को क्षमता और अनुभव से अधिक महत्व दिया जाता है। इसके अलावा राज्यसभा अपने लिए राज्यों की ङ्क्षचता को उठाने वाले निकाय के रूप में एक अलग भूमिका नहीं बना पाई है और वह आज राजनीतिक सदन लोकसभा के समानान्तर कार्य कर रही है। 
 
यदि आप सोचते हैं कि उच्चतम न्यायालय इस स्थिति में सुधार लाएगा तो आप गलत हैं। न्यायालय ने निर्णय दिया है कि राज्यसभा का उम्मीदवार बनने के लिए व्यक्ति को उस राज्य का मूल निवासी होने की आवश्यकता नहीं जहां से वह चुनाव लड़ रहा हो। इसके चलते सत्ता के दलालों और लोकसभा के चुनावों में हारे नेताओं के लिए राज्यसभा एक सुरक्षित सदन बन गया है। राज्यसभा में राज्यों की आवाज गत वर्षों में सत्ता के दलालों और पैसे के बीच दब गई है। 
 
आखिरकार इस सभा में ऐसा है क्या कि पैसे वाले, शक्तिशाली उद्योगपति और सत्ता के दलाल उसका सदस्य बनना चाहते हैं? यह सब सत्ता का खेल है। राज्यसभा को पूर्व सांसद और बैंकों के उधार न चुकाने वाले विजय माल्या ने पहले ही बदनाम कर दिया है कि उन्होंने किस प्रकार कर्नाटक के विधायकों को पैसे के बल पर खरीदा था और इसका श्रेय देवेगौड़ा के जद (एस) और भाजपा को जाता है। 
 
एक बार विजय माल्या ने मुझसे कहा था,‘‘मेरे पास हर चीज को खरीदने के लिए पैसा है किन्तु सत्ता के लिए नहीं। एक सांसद के रूप में मैं किसी भी मंत्री या बाबू के कमरे में जा सकता हूूं और उसे मेरी बात सुननी होगी। मैं कोई भी मुद्दा उठा और अपनी बात कहने पर बल दे सकता हूं तथा अपनी मांगें रख सकता हूं और चीजों को अपने पक्ष में प्रभावित कर सकता हूं।’’
 
सांसद उन स्थायी समितियों के सदस्य बन जाते हैं जिनसे उनके व्यावसायिक हित जुड़े होते हैं। इस संबंध में महाराष्ट्र के समाचार पत्र मालिक विजय दरडा और रिलायंस पैट्रोलियम के निदेशक वाई.पी. त्रिवेदी दोनों ही वित्त संबंधी स्थायी समिति और वाणिज्य तथा उद्योग संबंधी परामर्शदात्री समिति के सदस्य हैं। 
 
यही स्थिति बिहार के फार्मा टाइकून महेन्द्र प्रसाद, आंध्र प्रदेश के तंबाकू निर्यातक और शराब वितरक सांबा शिवा राव, उद्योगपति श्रीनिवासुलु रैड्डी, झारखंड के रिलायंस उद्योग के कार्पोरेट मामलों के प्रमुख पेरामल नाथवानी, कर्नाटक के खनन व्यवसायी अनिल लाड की है जो विभिन्न स्थायी समितियों के सदस्य हैं। वस्तुत: वित्त, वाणिज्य और उद्योग संबंधी स्थायी समितियां तथा लोक लेखा समिति और सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति का सदस्य बनना सभी सांसदों की प्राथमिकता होती है क्योंकि इन समितियों का सदस्य बनने से वे सीधे मंत्रियों या मंत्रालय से बात कर सकते हैं। अधिकारियों को बुला और उन्हें प्रभावित कर सकते हैं। 
 
राष्ट्रीय इलैक्शन वॉच के अनुसार 98 सांसदों की सम्पत्ति करोड़ों में है जिनमें से कांगे्रस के 33, भाजपा के 21, समाजवादी पार्टी के 7 सदस्य हैं। 37 सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले लंबित हैं। विजय माल्या, राजकुमार  धूत, चन्द्रशेखर, पेरामल नाथवानी, महेन्द्र प्रसाद आदि बताते हैं कि किस प्रकार संसद में अब व्यावसायिक हितों पर काम हो रहा है। दुर्भाग्यवश आज राज्यसभा वैसा सदन नहीं रह गया है जिसके लिए यह बनाया गया था। हमारे संविधान निर्माता चाहते थे कि राज्यसभा में ऐसे सदस्य हों जो लोकसभा के सदस्यों की तुलना में अधिक अनुभवी और प्रतिष्ठित हों। राज्यसभा का गठन कुशल नेताओं को अवसर देने के लिए बनाया गया था जो हो सकता है चुनाव न लड़ सकते हों किन्तु जो अपने ज्ञान के कारण चर्चा में भाग लेना चाहते हों। 
 
समय आ गया है कि संसद की सदस्यता को शासित करने वाले नियमों को पुन: निर्धारित किया जाए। कुछ लोगों का मानना है कि राज्यसभा को अभी भी महत्वपूर्ण भूमिका दी जा सकती है। जयप्रकाश नारायण दलविहीन राज्यसभा के पक्ष में थे जिसके सदस्य केवल ऐसे व्यक्ति बनें जो विधानसभा या लोकसभा के सदस्य रह चुके हों और किसी भी सदस्य को 2 कार्यकाल से अधिक न दिया जाए। आज राज्यसभा में अनेक ऐसे सदस्य हैं जो 4-5 कार्यकाल से इसके सदस्य बने हुए हैं और उन्होंने कभी भी लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा है। मेरी व्यक्तिगत राय है कि राज्यसभा को भंग कर दिया जाना चाहिए। ऐसी राय समय-समय पर प्रमुख सांसदों ने भी दी है। 
 
वस्तुत: 1949 में डा. अम्बेदकर ने स्वयं कहा था कि राज्यसभा को पूर्णत: प्रायोगिक आधार पर शुरू किया जा रहा है और उसे भंग करने का प्रावधान भी था। मोरारजी देसाई हेराल्ड लास्की के इस मत से सहमत थे कि आधुनिक राज्यों की आवश्यकता के लिए एक सदन सर्वोत्तम है। उनका मानना था कि ऐसे अनिर्वाचित सदस्यों पर करदाताओं का पैसा क्यों खर्च किया जाए जिनका योगदान केवल अपने हितों को साधना होता है।          
 
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