‘बुजुर्गों की आवाज’ क्यों वृद्धाश्रमों में कैद होने लगी

Friday, Nov 06, 2020 - 02:46 AM (IST)

बुजुर्गों के बिना समाज की कल्पना करना नामुमकिन-सा प्रतीत होता है। किंतु आज के बदलते समय व समाज की यह एक कड़वी सच्चाई है कि आज परिवारों से अनुभवी बुजुर्ग लोग गायब से हो गए हैं। इस सच्चाई से कोई मुकर नहीं सकता, आज जिन हाथों को थामकर मासूम झूलाघर में पहुंचते हैं वही मासूम हाथ युवावस्था की देहरी पार करते ही उन कांपते हाथों को वृद्धाश्रम पहुंचाएंगे, इसमें कोई दो मत नहीं। 

भारतीय समाज में बुजुर्गों का हमेशा एक सम्मानीय स्थान रहा है। एक मार्गदर्शक और पारिवारिक मुखिया होने के नाते जो सम्मान बुजुर्गों को मिलता था, उसमें धीरे-धीरे कमी आ रही है। उनके अनुभव को अमूल्य पूंजी समझने वाला समाज अब इनके प्रति बुरा बर्ताव भी करने लगा है। वर्तमान समाज में युवा पीढ़ी जहां आज अपने संस्कारों से विमुख होती जा रही है वहीं परिवार में बुजुर्गों का सम्मान भी कम होता जा रहा है। 

पहले संयुक्त परिवार होते थे, जिसमें दादा-दादी ताया-ताई, चाचा-चाची करीबी थे, लेकिन अब ये सब रिश्ते दूर के बनते जा रहे हैं। युवा पीढ़ी द्वारा बुजुर्गों का सम्मान करने की बजाय उनका अपमान किया जा रहा है। देश भर में देखें तो कितने ही वृद्ध आश्रम खुल गए हैं। यह सब वर्तमान युवा पीढ़ी की देन है। आए दिन समाचार पत्रों में पढऩे को मिलता है कि मां-बाप ने किसी मांग को पूरा न किया तो बेटे ने मां-बाप को मौत के घाट उतार दिया। अगर समाज में ऐसा ही होता रहा तो बुजुर्गों का जो अनुभव परिवार को मिलता था वह समाप्त हो जाएगा। 

जिस तरह किसी बाग की हरियाली वहां के पेड़-पौधों से होती है, उसी तरह परिवार की हरियाली बुजुर्गों से होती है। अगर बीते समय को याद करें तो गांव में बुजुर्गों के अनुभव से ही कई न्याय किए जाते थे और उस समय की पीढ़ी मानती थी लेकिन वर्तमान की युवा पीढ़ी समाज से इस कदर दूर हो गई है कि उसमें संस्कारों की कमी नजर आती है। आज की युवा पीढ़ी अपने माता-पिता के साथ जो व्यवहार  करती है उनके बच्चे भी उसे देखते हैं और कल को उनके साथ भी ऐसा ही होगा जैसे वे अपने माता-पिता से करते थे। यहां मुझे अमिताभ बच्चन की ‘बागवान’ फिल्म की याद आ गई जिसमें चार बेटों के होते हुए भी मां-बाप का बंटवारा कर दिया गया था और जब उनकी पुस्तक ‘बागवान’ बिकने से धन आने लगा, खुदगर्ज बेटे आगे-पीछे मंडराने लग गए। 

आज युवा पीढ़ी ऐसा ही करती है, जब बुजुर्गों के पास धन होता है तो उसके ऊपर नजर होती है, जबकि सेवा भाव से मां-बाप तो जमीन-जायदाद गिरवी रखकर भी अपने बच्चों को पढ़ाते हैं, अच्छी शिक्षा देते हैं ताकि वे किसी अच्छे पद पर  पहुंचें लेकिन जब उनकी बारी आती है तो मां-बाप को आंखें दिखाने लगते हैं। आखिर घर के बुजुर्गों का अपमान कब तक होता रहेगा? 

बुजुर्ग शोषण करने के लिए नहीं हैं, उनसे कभी कहानियों का पिटारा खोलने को कहकर तो देखें, फिर देखें, किस तरह से निकलती हैं उनके पिटारे से शिक्षाप्रद ज्ञानमयी और रहस्यमयी कहानियां। कभी सुनी हैं उनके पोपले मुंह से मीठी लोरियां? हाथ चाट जाएं अचार की ऐसी रैसिपी आखिर किसके पास मिलेगी? और तो और घर में कभी किसी को कोई छोटी-सी बीमारी हुई तो उसका घरेलू उपचार बताने के लिए किसे ढूंढा जाएगा भला? घर में अचानक फोन आता है कि गांव में रहने वाले ताऊ या फिर कोई सगे-संबंधी की मौत हो गई है, तो उस समय क्या करना चाहिए, यह कौन बताएगा? अपने घर की परंपरा किसी पड़ोसी से तो नहीं पूछी जा सकती। उसे तो हमारे घर के बुजुर्ग ही बता पाएंगे। 

बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, यदि समाज या घर में आयोजित धार्मिक कार्यक्रम में कुछ गलत हो रहा है  तो इसे बताने के लिए इन बुजुर्गों के अलावा कौन है? शादी के ऐन मौके पर जब वर या वधू पक्ष के गौत्र बताने की बात आती है, तो घर के सबसे बुजुर्ग की ही खोज होती है। आज की युवा पीढ़ी भले ही इसे अनदेखा करती हो, पर यह भी एक सच है, जो बुजुर्गों के माध्यम से सही साबित होता है। 

घर में यदि कम्प्यूटर है, तो अपने पोते के साथ गेम खेलते हुए कई बुजुर्ग भी मिल जाएंगे, या फिर आज के फैशन पर युवा बेटी से बात करती हुई कई बुजुर्ग महिलाएं भी मिल जाएंगी। यदि आज के बुजुर्ग यह सब कर रहे हैं तो फिर उन पर यह आरोप तो बिल्कुल ही बेबुनियाद है कि वे आज की पीढ़ी के साथ कदमताल नहीं करते। बुजुर्ग हमारे साथ बोलना, बतियाना चाहते हैं, वे अपनी कहना चाहते हैं और दूसरों की सुनना भी चाहते हैं। पर हमारे पास उनकी सुनने का समय नहीं है, उनकी सुनने की बजाय हम अपनी सुनाना चाहते हैं। याद करो, अपनेपन से भरा कोई पल आपने अपने घर के बुजुर्ग को कब दिया है? शायद आपको याद ही नहीं होगा क्योंकि अर्सा बीत गया, इस बात को। 

इसे ही दूसरी दृष्टि से देखा जाए कि ऐसा कौन-सा पल है, जिसे घर के बुजुर्ग ने आपसे बांटना नहीं चाहा? बुजुर्ग तो हमें देना चाहते हैं, पर हम ही हैं जो उनसे कुछ भी लेना नहीं चाहते। हमारा तो एक ही सिद्धांत है कि बुजुर्ग यदि घर पर हैं, तो शांत रहें, या फिर बच्चों और घर की सही देखभाल करें। इससे अधिक हमें कुछ भी नहीं चाहिए। आज यह धरोहर हमसे दूर होती जा रही है। वैसे तो सरकार किसी भी पुरानी इमारत को हैरीटेज बनाकर उसे नवजीवन दे देती है। लोग आते हैं और बुजुर्गों के उस पराक्रम की महिमा गाते हैं, पर घर के आंगन में ठकठक की गूंजती आवाज जो हमारे कानों को बेधती है, आज वह आवाज वृद्धाश्रमों में कैद होने लगी है। झुर्रियों के बीच अटकी हुई उनके आंसुओं की गर्म बूंदें हमारी भावनाओं को जगाने में विफल साबित हो रही हैं, हमारी उपेक्षित दृष्टि में उनके लिए कोई दयाभाव नहीं रहा है।-प्रो. मनोज डोगरा
 

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