इन सवालों के जवाब कौन देगा?

punjabkesari.in Sunday, Jul 14, 2024 - 06:34 AM (IST)

विपक्ष द्वारा संसद के दोनों सदनों में (अच्छे कारणों से) बहिष्कार की गई बहस के बाद, भारतीय दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम,1872 को बदलने (और फिर से लागू करने) के लिए 3 विधेयक पारित किए गए। नए विधेयकों के नाम हिंदी (या संस्कृत) में थे, यहां तक कि विधेयकों के अंग्रेजी संस्करणों में भी। राष्ट्रपति ने विधेयकों को अपनी स्वीकृति दे दी और नए कानून 1 जुलाई, 2024 को लागू हो चुके हैं। कई क्षेत्रों से नए कानूनों का कड़ा विरोध हो रहा है। सरकार ने विरोध के आधारों को अप्रासंगिक और प्रेरित बताकर खारिज कर दिया है। सरकार के अडिय़ल रवैये ने कानूनों के विरोध को नहीं रोका है। इसके विपरीत, 2 राज्य सरकारों ने घोषणा की है कि वे संबंधित राज्य विधानसभाओं में कुछ संशोधन लाएंगी। 

तमिलनाडु ने एक महीने के भीतर बदलावों का सुझाव देने के लिए एक-व्यक्ति समिति नियुक्त की है। कर्नाटक और अन्य राज्य सरकारें भी यही रास्ता अपना सकती हैं। इसलिए यह जरूरी है कि तथ्यों और मुद्दों को जनता के सामने रखा जाए और नागरिकों से अपने निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए कहा जाए। ‘आपराधिक कानून’ संविधान की समवर्ती सूची का विषय है। संसद और राज्य विधानमंडल दोनों ही इस विषय पर कानून बनाने के लिए सक्षम हैं। नि:संदेह, यदि संसद द्वारा बनाया गया कानून और राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं, तो संविधान का अनुच्छेद 254 लागू होगा। हालांकि, यह एक ऐसा मुद्दा है जो राज्य विधानमंडल द्वारा कानून बनाए जाने, उसके प्रतिकूल होने और राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानून को अपनी मंजूरी न दिए जाने के बाद उठेगा। इस बीच, नए कानूनों का विरोध करने वालों द्वारा उठाए गए सवालों को सुना जाना चाहिए और उनका जवाब दिया जाना चाहिए। दुर्भाग्य से, केंद्र सरकार ने संसद में या बाहर जवाब देने से इंकार कर दिया है। 

ये हैं सवाल 
1. क्या यह सही है कि 3 नए कानूनों के अधिकांश प्रावधान प्रतिस्थापित किए गए 3 कानूनों से ‘कॉपी और पेस्ट’ किए गए हैं? क्या यह सही है कि नए कानूनों में आई.पी.सी. और सी.आर.पी.सी. की 90-95 प्रतिशत धाराएं और साक्ष्य अधिनियम की 95-99 प्रतिशत धाराएं बरकरार रखी गई हैं और हर धारा को फिर से क्रमांकित किया गया है? यदि मौजूदा कानूनों में कुछ जोडऩे, हटाने और बदलाव करने की आवश्यकता थी, तो क्या संशोधनों के माध्यम से वही परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सकते थे? क्या यह दावा खोखला नहीं है कि सरकार ने ‘औपनिवेशिक विरासत’ को खत्म कर दिया है?
2. यदि इरादा आपराधिक कानूनों में व्यापक संशोधन और बदलाव का था, तो विधि आयोग को संदर्भ देने की पुरानी प्रथा का पालन क्यों नहीं किया गया? क्या विधि आयोग सभी हितधारकों से परामर्श करने और मसौदा विधेयकों के साथ अपनी सिफारिशें सरकार और संसद के विचार के लिए प्रस्तुत करने के लिए सबसे उपयुक्त निकाय नहीं था? विधि आयोग को क्यों दर-किनार किया गया और कार्य एक समिति को क्यों सौंपा गया, जिसमें अंशकालिक सदस्य शामिल थे, जो एक को छोड़कर, विभिन्न विश्वविद्यालयों में पूर्णकालिक प्रोफैसर के रूप में कार्यरत थे? 

3. क्या नए कानून आपराधिक न्यायशास्त्र के आधुनिक सिद्धांतों के अनुरूप हैं? क्या नए कानूनों में पिछले 10 वर्षों में दिए गए ऐतिहासिक निर्णयों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित प्रगतिशील सिद्धांतों को मान्यता दी गई है और उन्हें शामिल किया गया है? क्या नए कानूनों के कई प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्या किए गए भारतीय संविधान के विपरीत हैं? 

4. नए कानून में ‘मृत्यु दंड’ क्यों बरकरार रखा गया है, जिसे कई लोकतांत्रिक देशों में समाप्त कर दिया गया है? ‘एकांत कारावास’ जैसी क्रूर और अमानवीय सजा क्यों शुरू की गई है? ‘व्यभिचार’ के अपराध को आपराधिक कानून में वापस क्यों लाया गया है? क्या ‘मानहानि’ को आपराधिक अपराध के रूप में बनाए रखना आवश्यक था? क्या ‘मानहानि’ की आपराधिक शिकायत दर्ज करने के लिए समय-सीमा निर्धारित करना आवश्यक नहीं था? दूसरे व्यक्ति की सहमति के बिना समलैंगिक संबंध अब अपराध क्यों नहीं है? क्या ‘सामुदायिक सेवा’ की सजा को परिभाषित करना या कम से कम सामुदायिक सेवा के उदाहरण देना आवश्यक नहीं था? 

5. ‘राजद्रोह’ के अपराध को क्यों बढ़ाया गया और बरकरार रखा गया? ‘आतंकवाद’ के अपराध को सामान्य आपराधिक कानून में क्यों लाया गया है, जबकि गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम नामक एक विशेष अधिनियम मौजूद है? नए कानून में ‘चुनावी अपराध’ क्यों शामिल किए गए हैं, जबकि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 जैसे विशेष कानून पहले से ही मौजूद हैं?
6. क्या नए कानूनों ने पुलिस को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और उस व्यक्ति की पुलिस हिरासत की मांग करने के लिए अधिक छूट दी है? क्या नए कानूनों ने सुप्रीम कोर्ट के इस कथन की अनदेखी की है कि गिरफ्तार करने की शक्ति का मतलब गिरफ्तारी की आवश्यकता नहीं है? क्या कानून में यह स्पष्ट रूप से प्रावधान करना आवश्यक नहीं था कि ‘जमानत नियम है, जेल अपवाद है’? क्या गिरफ्तारी की वैधता और गिरफ्तारी की आवश्यकता की जांच करने के लिए मैजिस्ट्रेट को बाध्य करना आवश्यक नहीं था? क्या जमानत के प्रावधानों के अनुसार मैजिस्ट्रेट को गिरफ्तारी के बाद 40/60 दिनों तक जमानत देने से इंकार करना चाहिए? 

7. क्या वह प्रावधान संवैधानिक है जिसके तहत देश के किसी भी पुलिस स्टेशन में, अपराध के स्थान की परवाह किए बिना, एफ.आई.आर. दर्ज की जा सकती है? क्या वह प्रावधान जो उस राज्य की पुलिस को अभियुक्त को गिरफ्तार करने और अपराध की जांच करने का अधिकार देता है, असंवैधानिक है, क्योंकि ‘पुलिस’ राज्य सूची का विषय है? क्या उक्त प्रावधान ‘संघवाद’ के सिद्धांत के विपरीत हैं, जो संविधान की एक बुनियादी विशेषता है? और भी कई सवाल हैं। सवाल पूछने और जवाब पाने का मंच कौन-सा है? सरकार में किसी ने भी अब तक सवालों का जवाब नहीं दिया है, लेकिन सवाल खत्म नहीं होंगे। फिर भी देश में आपराधिक न्याय के प्रशासन के लिए सबसे बुनियादी कानून ‘लागू हो गए हैं’ कुछ लोगों द्वारा और कुछ लोगों के लिए सरकार का एक उदाहरण है।-पी. चिदम्बरम 


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