भारत के बच्चों को अंग्रेजी कौन पढ़ाएगा

Monday, Sep 05, 2016 - 01:32 AM (IST)

(आकार पटेल): भारत के बच्चों को स्कूलों में किस भाषा में पढ़ाया जाए? इस प्रश्न का कोई सीधा और आसान उत्तर नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने मुझे बताया कि इस समस्या के लिए उनके पास क्या हल है और जो कुछ उन्होंने कहा मैं आपको बताने जा रहा हूं। 

 
हाल ही के दिनों में अवघटित 4 प्रकरणों के कारण मैं ये शब्द लिख रहा हूं। एक प्रकरण है गोवा का, जहां राष्ट्रीय स्वयं संघ के प्रदेश प्रमुख को  गोवा की भाजपा सरकार का विरोध करने के कारण बर्खास्त कर दिया गया है। 
 
स्थानीय आर.एस.एस. इकाई ने गोवा के अंग्रेजी माध्यम प्राइमरी स्कूलों को सरकारी समर्थन दिए जाने का विरोध किया था। खास तौर पर तो यह एक चर्च संगठन द्वारा चलाए जा रहे 127 अंग्रेजी माध्यम स्कूलों को दिया जा रहा अनुदान रुकवाना चाहता था। गोवा के चुनावों से पूर्व भाजपा ने यह अनुरोध किया था कि राज्य में कोंकणी और मराठी को भी स्कूली भाषा बनाया जाए लेकिन चुनाव जीतने के बाद इसने अपना रुख काफी नरम कर लिया क्योंकि इसे लग रहा था कि ऐसा करना व्यावहारिक नहीं है।
 
भाजपा को महसूस हुआ कि यह बहुत जटित मुद्दा है और इसका कोई एक और स्पष्ट हल नहीं हो सकता। स्कूली पढ़ाई के माध्यम का विषय स्वतंत्रता पूर्व काल में भी चॢचत होता रहा है। रबीन्द्रनाथ टैगोर और गांधी जी की राय थी कि स्कूली पढ़ाई मातृ भाषा में ही होनी चाहिए। टैगोर तो खास तौर पर महसूस करते थे कि यदि भारतीय बच्चों को विदेशी भाषा में पढ़ाया गया तो वे अपनी कलात्मक प्रतिभा और संवेदनाओं को विकसित नहीं कर पाएंगे।
 
मेरा मानना है कि गांधी जी ने भी यही नीति कुछ अधिक राष्ट्रवादी कारणों के चलते अपनाई थी। इस बहस के दूसरे छोर पर थे जवाहर लाल नेहरू और गुजरात के विद्वान राजनीतिज्ञ के.एम. मुंशी। वे दोनों टैगोर और गांधी के विचारों को तो रद्द नहीं करते थे लेकिन अंग्रेजी भाषा ने भारत को जो लाभ पहुंचाए थे उनके छिन जाने को लेकर वे काफी ङ्क्षचतित थे। बाहरी दुनिया के ज्ञान तक पहुंच एवं आधुनिक कानूनी चौखटा दो ऐसे प्रमुख लाभ हैं जो अंग्रेजी भाषा के कारण ही भारत को हासिल हुए थे।
 
ये चारों महानुभाव द्विभाषी थे इसलिए वे इस समस्या को दोनों छोरों से देख और समझ सकते थे। अंतिम रूप में वे कहां खड़े थे यह उनकी वरीयताओं पर आधारित था। दूसरा प्रकरण भोपाल स्थित ‘अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय’ से संबंधित है। केवल हिन्दी भाषा में पढ़ाई करवाने वाली यह यूनिवर्सिटी अपने कोर्सों की ओर विद्यार्थियों को आकॢषत करने के लिए संघर्षरत है। एक रिपोर्ट में बताया गया कि खास तौर पर इंजीनियरिंग कोर्स के बारे में  इसकी परेशानी बहुत रौंगटे खड़े करने वाली है। 
 
छात्रों को डर है कि इस प्रकार का हिंदी भाषी कोर्स करके वे नौकरियां हासिल नहीं कर सकेंगे। इसके अलावा वे इस बात से भी ङ्क्षचतित थे  कि हिंदी भाषी कोर्स में इंजीनियरिंग की भाषा के नए शब्द गढ़े गए हैं जोकि पहले से प्रचलित शब्दों से भिन्न हैं। इसी के कारण यूनिवर्सिटी में उपलब्ध 90 इंजीनियरिंग सीटों के लिए मात्र एक दर्जन छात्रों ने आवेदन दिए थे। ये सीटें नागर (सिविल), विद्युत (इलैक्ट्रिकल) एवं यांत्रिक (मैकेनिकल) कोर्सों में उपलब्ध थीं। ये कोर्स इसी वर्ष शुरू हुए हैं।
 
फिर भी विश्वविद्यालय हतोत्साहित नहीं है। यूनिवर्सिटी के उपकुलपति प्रो. मोहन लाल छीपा के हवाले से इंडियन एक्सप्रैस की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘‘बेशक हमें किसी कोर्स में एक ही विद्यार्थी मिले तो भी हम इसी वर्ष से कोर्स शुरू करने पर प्रतिबद्ध हैं। हम तूफान के रुख के विरुद्ध अपनी नाव ठेल रहे हैं। अंग्रेजी ने इस देश में 250 वर्ष पूर्व जड़ें जमाई थीं। हिन्दी को उस स्तर तक आने के लिए कुछ वर्ष तो लगेंगे ही।’’
 
तीसरी रिपोर्ट है हिंदी में बहुत कम कानून प्रकाशित होने के बारे में। हर प्रकार के कानून अंग्रेजी में पास किए जाते हैं और माना जाता है कि उनका हिंदी में अनुवाद उपलब्ध होगा। अंग्रेजी दैनिक हिंदू के अनुसार केवल पर्यावरण की रक्षा के संबंध में ही भारत में लगभग 200 कानून हैं। ये सभी नियम और कानून ऑनलाइन उपलब्ध होने के साथ-साथ हाल ही में डिजिटीकृत किए गए गजट आफ इंडिया की वैबसाइट पर भी उपलब्ध हैं, जहां आप आसानी से किसी भी कानून की ‘सर्च’ कर सकते हैं लेकिन यह सब कुछ है केवल अंग्रेजी भाषा में ही। 
 
इसका भी एक कारण सम्भव: वही है जो इंजीनियरिंग कोर्सों के मामले में दरपेश आया है। लोग अंग्रेजी भाषी तकनीकी शब्दावली से परिचित हैं और जिससे वह पहले ही परिचित हैं तथा जो चीज उन्हें आसानी से सुलभ है उसमें बदलाव किए जाने से केवल उलझनें ही बढ़ेंगी। एक अन्य कारण शायद है कि हिंदी अनुवाद की मांग भी अधिक नहीं है। 
 
चौथी कहानी बिहार के एक लड़के की है, जिसने अपने राज्य के सरकारी स्कूलों की दयनीय स्थिति के बारे में नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा है और अनुरोध किया है कि स्कूलों में अंग्रेजी विषय अनिवार्य किया जाए। लड़के  ने लिखा : ‘‘मेरे पिता जी की कमाई अधिक नहीं है इसलिए हमें बिहार में प्राइमरी शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में जाना पड़ता है। मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि बिहार सरकार पहली कक्षा से अंग्रेजी अनिवार्य बनाने के बारे में कहे, क्योंकि इसके बिना विद्यार्थियों को उच्च कक्षाओं में ढेर सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा?’’
 
यह एक ऐसा मुद्दा है जिसके हर पहलू को नरेन्द्र मोदी समझते हैं। गुजरात में 5वीं कक्षा से पहले सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाए जाने का रास्ता आर.एस.एस. ने रोक दिया था, जबकि इतनी देर से अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू करने का काफी नुक्सान होता है। तब मोदी ने इसका जो हल प्रस्तुत किया था उसकी व्याख्या करते हुए मुझे बताया था कि कुछ विषय गुजराती भाषा में पढ़ाए जाने चाहिएं और कुछ अंग्रेजी में। जहां तक मेरा सही-सही अनुमान है वह चाहते थे कि गणित और विज्ञान के विषय अंग्रेजी में पढ़ाए जाएं जबकि इतिहास और भूगोल जैसे विषय गुजराती में पढ़ाए जाएं। 
 
तब मेरा मानना था कि यह बहुत ही उम्दा हल है। हालांकि मैं नहीं जानता कि वह अंततोगत्वा इसे लागू करने में सफल हुए या नहीं, क्योंकि आर.एस.एस. की ओर से भारी दबाव था। लेकिन इस मामले में भी एक सवाल हमारा मुंह चिढ़ा रहा है कि बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाएगा कौन? आखिर इस भाषा को अच्छी तरह जानने वाले भारतीयों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। एक बात तो तय है कि हमें अंग्रेजी पढ़ाने के लिए लाखों योग्यता प्राप्त व्यक्तियों की जरूरत है, जो कि फिलहाल हमें उपलब्ध नहीं है। जैसे कि मैं पहले कह चुका है कि यह एक ऐसा प्रश्र है जिसका उत्तर देना बहुत कठिन है। यह समस्या बहुत लम्बे समय तक हमारा पीछा छोडऩे वाली नहीं, क्योंकि हम दुनिया का एकमात्र ऐसा बड़ा राष्ट्र है जिसका अभिजात्य वर्ग वह भाषा बोलता है जो कि विदेशी है।    
 
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