जम्मू-कश्मीर में आतंक का जिम्मेदार कौन?

punjabkesari.in Saturday, Aug 31, 2024 - 05:11 AM (IST)

कारगिल विजय दिवस की 25वीं वर्षगांठ के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने द्रास स्थित कारगिल वार मैमोरियल में शहीदों को श्रद्धांजलि देते हुए पाकिस्तान को सख्त चेतावनी देते हुए कहा, ‘‘उन्होंने इतिहास से कुछ नहीं सीखा। हमारे सैनिक आतंकवाद को खत्म कर मुंहतोड़ जवाब देंगे।’’ 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से भी प्रधानमंत्री ने सर्जीकल स्ट्राइक 2016 और बालाकोट एयर स्ट्राइक 2019 की याद ताजा करवाई। अग्रिपथ योजना के बारे में उन्होंने द्रास में कहा कि इस स्कीम का मुख्य उद्देश्य सेना को सदैव ही युद्ध के लिए तैयार-बर-तैयार रखना है और यह स्कीम सेना की ओर से किए गए सुधारों की एक मिसाल है। इसके अतिरिक्त प्रधानमंत्री ने कुछ और मुद्दे भी उजागर किए।

भीतर से खतरा : पाकिस्तान की वर्ष 1947-48 की लड़ाई में हुई शर्मनाक हार का बदला लेने की भावना के साथ पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल आयूब खान ने पाक अधिकृत कश्मीर (पी.ओ.के.) के अंदर वर्ष 1965 के शुरू में ‘4 गुरिल्ला ट्रेङ्क्षनग कैंप’ स्थापित कर करीब 9000 प्रशिक्षण प्राप्त घुसपैठियों को अगस्त के पहले सप्ताह इस्लाम के नारे के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर के इलाके कारगिल से लेकर जम्मू के पश्चिम की ओर पहाडिय़ों तक धकेल दिया जो अभी भी विशेष तौर पर जम्मू के 9 जिलों में सरगर्म हैं। 

मई से लेकर अब तक आतंकियों के साथ मुठभेड़ के दौरान घाटी में 18 सुरक्षा कर्मचारी अपना बलिदान दे चुके हैं। इनमें से 14 तो जम्मू क्षेत्र में ही शहीद हुए जिनमें 2 कैप्टन, 1 सी.आर.पी.एफ. इंस्पैक्टर तथा बाकी जवान शामिल थे। वास्तव में आतंकवाद का जन्मदाता तो आयूब खान ही है। जम्मूृ-कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा ने अगस्त के प्रथम सप्ताह में 5 पुलिस कर्मियों और एक अध्यापक को देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के दोष में संविधान की धारा 311 (2) (सी) का इस्तेमाल करते हुए उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया। ऐसे लोग फिर से पैदा हो जाते हैं मगर किस तरह यह मालूम नहीं। 

घाटी के अंदर हैरानीजनक भेद उस समय खुला जब वर्ष 2012 में एक पुलिस कर्मचारी को हिरासत में लिया गया। खुफिया एजैंसियों को करीब डेढ़ साल तक जांच करने के उपरांत पता चला कि कुछ पुलिस स्टाफ आतंकियों की ओर से सुरक्षा चौकियों और सुरक्षाबलों पर निशाना साध रहे हैं। कश्मीर रेंज के तत्कालीन इंस्पैक्टर जनरल (आई.जी.) शिव मुरारी सहाय के अनुसार जम्मू-कश्मीर के कांस्टेबल अब्दुल रशीद शीगान ने हिजबुल मुजाहिद्दीन के एक रिहा किए गए आतंकी इम्तियाज अहमद उर्फ रशीद के साथ मिलकर 18 महीनों में 13 बार घातक हमले किए जिनमें से एक जानलेवा हमला 11 दिसम्बर 2011 को जम्मू-कश्मीर के कानून एवं विधायी कार्यों बारे मंत्री अली मोहम्मद सागर के ऊपर भी किया गया। आई.जी. सहाय के उस समय के बयान के अनुसार अब्दुल को जब हिरासत में लिया गया तो उस समय वह सशस्त्र पुलिस के सुरक्षा विंग में ड्यूटी निभा रहा था। 

फोर्स में भर्ती होने से पहले उसकी पृष्ठभूमि आतंकी गतिविधियों वाली रही है। उसे एक साल नजरबंद किया गया परन्तु अदालत के फैसले के अनुसार वर्ष 2012 में उसे वापस पुलिस में शामिल कर लिया गया जोकि कई सवाल पैदा करता है। इससे पहले भी वर्ष 2002 में राज्य के गृहमंत्री मुश्ताक अहमद लोन की हत्या के पीछे एक एस.एच.ओ. तथा एक मुंशी का हाथ था। अब सवाल पैदा यह होता है कि जम्मू-कश्मीर की करीब 1.40 लाख गिनती वाली पुलिस फोर्स में कितने इस किस्म के अधिकारी होंगे जिनकी तारें आतंकवादियों और कुछ नेताओं के साथ जुड़ी हो सकती हैं। इसका जवाब तो जम्मू-कश्मीर के प्रशासक ही दे सकते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि वारदातें करने वाले फिर जंगलों व घाटी में ही समा जाते हैं जोकि बिना किसी स्थानीय मदद के संभव नहीं है। शहादतें तो सेना को ही देनी पड़ती हैं।

बाज वाली नजर : पाकिस्तान को केवल बार-बार चेतावनी देने के साथ बात नहीं बनेगी क्योंकि ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’। जरूरत इस बात की है कि आतंकियों के मददगार और कसूरवार राजनीतिक नेता, प्रशासनिक तथा पुलिस अधिकारियों को बख्शा न जाए। जम्मू-कश्मीर के पुलिस विभाग में रद्दोबदल करने से ही आतंकियों का सफाया संभव होगा। कारगिल विजय दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री की ओर से अग्रिपथ योजना या वन रैंक वन पैंशन (ओ.आर.ओ.पी.) जैसे मुद्दों के बारे में राजनीति करना शोभा नहीं देता।

उल्लेखनीय है कि जब दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कारगिल युद्ध के समय यह महसूस किया कि शहीदों के परिवारों बल्कि समस्त सैनिक वर्ग के कल्याण के बारे में कोई नीति नहीं है तो उन्होंने रक्षा मंत्री दिवंगत जॉार्ज फर्नांडीज की अध्यक्षता में कमेटी का गठन किया। मगर अफसोस की बात है कि 25 वर्ष बीतने के बाद भी यह नीति नहीं बनी। प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि उसके बारे में जिक्र करते। इसी तरह ओ.आर.ओ.पी. को लागू करने में सरकार की ओर से बार-बार अड़चनें डाली गईं। आखिकार सुप्रीमकोर्ट की ओर से सख्त फैसले के बाद सरकार को ही झुकना पड़ा। -ब्रिगे. कुलदीप सिंह काहलों (रिटा.)


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