‘पुलिस पर आखिर किसका नियंत्रण हो’

Wednesday, Mar 17, 2021 - 04:05 AM (IST)

सदैव आपके साथ, आपके लिए, इस नारे को पिछले सप्ताह तार-तार होते हुए देखा है क्योंकि जिन लोगों को आम आदमी की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई, उन्होंने ही आम आदमी पर अत्याचार किया और उसमें सक्रिय भागीदार बने। यह प्रश्न लोगों को झकझोर ही रहा था कि मुंबई पुलिस के असिस्टैंट इंस्पैक्टर सचिन वाजे की गिरफ्तारी की खबर आई। सचिन वाजे को राष्ट्रीय जांच एजैंसी ने उद्योगपति मुकेश अंबानी के घर के बाहर विस्फोटक से भरी स्कोॢपयो कार की जांच तथा इस संबंध में कथित संदिग्ध ठाणे स्थित व्यवसायी मनसुख हिरेन की हत्या के सिलसिले में गिरफ्तार किया है। 

प्रश्न उठता है कि क्या पुलिस जनता की रक्षक है या भक्षक है। इससे पूर्व उत्तर प्रदेश में तीन पुलिस अधिकारियों को निलंबित किया गया क्योंकि उन्होंने एक 13 वर्षीय बालिका के सामूहिक बलात्कार और एक पुलिसकर्मी के दो पुत्रों द्वारा उसके पिता की हत्या के मामले में लापरवाही बरती। पुलिस के अत्याचारों की सूची समाप्त नहीं होती है। वे किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं तथा निर्भय होकर यह अत्याचार करते हैं। किसी भी मोहल्ला, जिला या राज्य में चले जाआे यही स्थिति देखने को मिलती है। 

महाराष्ट्र के पुलिसकर्मी दया नायक और उनके सहयोगी से लेकर जो समाज की सेवा करने के बजाय अपने हितों को देखते थे और उत्तर प्रदेश में जहां पर पुलिस पर ज्यादतियां करने का आरोप लगता रहता है। कर्नाटक में अति सक्रिय पुलिस बल राज्य में धारा 144 लागू कर विरोध प्रदर्शन का दमन करता है। उपद्रवग्रस्त राज्यों में पुलिसकर्मी सरकार के सशस्त्र विंग की तरह कार्य करते हैं तथा आतंकरोधी गतिविधियों की आड़ में न्यायेत्तर हत्याआें में संलिप्त पाए जाते हैं। 

पुलिस कमीशन की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां अनावश्यक हैं। 30 प्रतिशत मौतें अनुचित हैं तथा पुलिस की कार्रवाई के कारण 43$2 प्रतिशत जेल का खर्चा आता है। वे मानते हैं कि वर्दी उन्हें किसी के साथ भी ज्यादती करने का लाइसैंस और शक्ति दे देती है और वे स्वयं में कानून हैं। परिणामस्वरूप पुलिसकर्मी अधिकाधिक शक्तिशाली बनते जा रहे हैं और उनकी जवाबदेही समाप्त होती जा रही है। 

यदि आप किसी से मुक्ति पाना चाहते हैं तो आप अत्याचारी पुलिस को बुला सकते हैं। बलात्कार से लेकर अदालत के बाहर किसी मुद्दे के समाधान, फर्जी मुठभेड़, हिरासत में मौतें, उत्पीडऩ के कारण मौतें, पुलिस वाले इन सब कामों को बखूबी करते हैं और उनकी कार्यशैली को देखकर ही आदमी सिहर जाता है फिर भी हम अपने समाज को एक सभ्य समाज कहते हैं। यही नहीं पुलिस अधिकारी एेसे मामलों में कभी भी दोषी सिद्ध नहीं होते हैं। वर्ष 2005 और 2010 के बीच पुलिस हिरासत में 600 मौतों के बावजूद केवल 21 पुलिसकर्मियों के विरुद्ध दोष सिद्ध हो पाए हैं। 

वर्ष 2011 और 2018 के बीच पुलिसकर्मियों के विरुद्ध 807 मामले दर्ज किए गए किंतु कोई भी दोषी सिद्घ नहीं हो पाया और पिछले दो वर्षों में मानव अधिकार उल्लंघन, अत्याचार, अवैध रूप से हिरासत में रखना, जबरन वसूली आदि में पुलिसकर्मियों के विरुद्ध 500 मामलों के बावजूद केवल तीन लोग ही दोषी सिद्ध हो पाए हैं। पुलिस की ज्यादतियों से नागरिक भयभीत रहते हैं जिसका ङ्क्षहसा के लिए समाज की सहिष्णुता के बीच लोगों की भावनाएं भड़क जाती हैं। 

क्या पुलिस को उससे कहीं अधिक दोषी बताया जाता है जितनी वह होती है? क्या मुख्य आरोपी राजनेता होते हैं? सच्चाई इन दोनों के बीच की है। दोनों एक दूसरे के हित में मिलकर कार्य करते हैं और दोनों अपने-अपने हितों को आगे बढ़ाते हैं। फलत: एक ऐसी व्यवस्था बन गई है जिसमें राजनीति के अपराधीकरण ने अपराध के राजनीतिकरण को स्थान दे दिया है और राजनीतिक अपराधी बढ़ रहे हैं। फलत: पुलिस बदनाम होती जाती है। इसके अलावा विभिन्न राज्यों में मुख्यमंत्री पुलिसकर्मी के स्थानांतरण को उनके विरुद्ध एक डंडे के रूप में प्रयोग करते हैं जो उनकी बातों को मानने से इंकार करते हैं। उन्हें अपमानित किया जाता है, दंडात्मक नीतियां अपनाई जाती हैं। 

उत्तर प्रदेश में उप पुलिस आयुक्त का औसत कार्यकाल लगभग तीन महीने हैं। इस संबंध में पंजाब का रिकार्ड भी अच्छा नहीं है जबकि तमिलनाडु, गुजरात और केरल में पुलिसकर्मियों को स्थिर कार्यकाल दिया जाता है। इसका कारण यह है कि आज भी पुलिस 1961 के पुलिस अधिनियम के द्वारा शासित होती है। जिसके अंतर्गत वर्दी वालों को अपने आकाआें का आज्ञाकारी और आम आदमी के विरुद्ध बना दिया गया है। 

सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि पुलिस पर किसका नियंत्रण हो-राज्य सरकार का या किसी स्वतंत्र निकाय का। हमारे सत्तालोलुप नेताआें के लिए इस प्रश्न का उत्तर देना दुविधापूर्ण है और उनसे इस प्रश्न के ईमानदार उत्तर की अपेक्षा करना बेवकूफी है। हमारे देश में ऐसे अपराधों में गिरफ्तारी 113 प्रतिशत तक है जिनमें जमानत दी जा सकती है। मानव अधिकार आयोग के अनुसार इस मामले में सिक्किम शीर्ष स्थान पर है। उसके बाद गुजरात में 99$.75, अंडेमान निकोबार में 95.8 प्रतिशत, हरियाणा में 94 प्रतिशत, असम में 90 प्रतिशत, मध्य प्रदेश और दमन दीव में 89 प्रतिशत, कर्नाटक में 84.8 प्रतिशत और केरल में 71 प्रतिशत एेसी गिरफ्तारियां की जाती हैं। 

फिर पुलिस व्यवस्था में सुधार का क्या उपाय है? समय आ गया है कि पुलिस व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए, पुलिस का आधुनिकीकरण किया जाए जो अधिक पेशेवर हो, प्रेरित हो, सुसज्जित हो तथा जिसे आधुनिक युक्तियों और प्रौद्योगिकियों का प्रशिक्षण दिया जाए। पुलिस प्रशिक्षण में विश्व की बेहतर पद्धतियों का समावेश किया जाए और पुलिस प्रशासन में आमूल-चूल बदलाव कर उसे अधिक जवाबदेह बनाया जाए तथा राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त किया जाए।-पूनम आई. कौशिश 
 

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