‘नोटबंदी’ से किसे फायदा हुआ और किसे नुक्सान

Tuesday, May 09, 2017 - 12:01 AM (IST)

नोटबंदी का मूल्यांकन राजनीतिक, आर्थिक, संवैधानिक एवं विधिक इत्यादि बहुआयामी ढंगों से किया गया है। इसके साथ ही संबंधित संस्थानों की भूमिका का भी मूल्यांकन किया गया है। फिर भी ‘कई दशकों दौरान दुनिया भर में हुए सबसे दूरगामी और बड़े करंसी नीति बदलाव’ के दार्शनिक प्रेरणास्रोत क्या थे? 

जिस प्रकार ‘दीर्घकालिक कल्याण के लिए अल्पकालिक बलिदान’ को लेकर शोर मचाया गया था, उसके मद्देनजर कोई व्यक्ति यह सोच सकता है कि यह उपयोगतावादी विद्वानों के दिमाग की उपज थी या यह सोचा जा सकता है कि यह नीति जॉहन राल्स के न्याय सिद्धांत से प्रेरित थी, जो कि स्वयं रूसो के ‘सोशल कांट्रैक्ट’ की फिलासफी से अभिप्रेरित था और घटिया से घटिया परिस्थिति का भी बेहतर से बेहतर लाभ उठाने की नीति को रेखांकित करता है अथवा क्या यह कदम सम्पत्ति के अधिकार और जिन परिस्थितियों में सत्तातंत्र इस अधिकार का हनन कर सकता है, दोनों पर बल देने वाली स्वतंत्रतावादी परम्परा से प्रेरित था?

जैरेमी वैंथम द्वारा परिकल्पित और जे.एस. मिल तथा अन्यों द्वारा विकसित किया गया उपयोगतावादी सिद्धांत यह मानकर चलता है कि अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक कल्याण होना चाहिए, बेशक ऐसा करने के लिए अल्पकालिक रूप में बलिदान ही क्यों न करना पड़े या किसी को बलि का बकरा ही क्यों न बनाना पड़े? लेकिन नोटबंदी जैसे निर्णय के लिए उपयोगतावादी परिकल्पना कोई न्यायसंगत आधार नहीं बन सकती क्योंकि ‘कल्याण’ को तर्कसंगत ढंग से परिभाषित नहीं किया जा सकता। उपयोगतावादी फिलासफी में ‘कल्याण’ का क्या अर्थ है, इसकी परिभाषा खुशी और आनंद से लेकर ‘चरित्र की पवित्रता’, कुछ विशेष तरह की क्षमताओं के स्वामी होने तक फैली हुई है। यानी कि उपयोगतावादियों के पास इस सवाल का कोई सटीक उत्तर नहीं कि उनकी नजरों में कल्याण का तात्पर्य क्या है। 

जैसे उपयोगतावादियों द्वारा कथित कल्याणकारी आदर्शों के आयाम लगातार बदले जाते हैं बिल्कुल उसी तरह नोटबंदी के लक्ष्य भी लगातार बदलते रहे हैं। सर्वप्रथम तो यह कहा गया है कि इसका लक्ष्य कालेधन का मुकाबला करना है और बाद में इसे बदल कर ‘जाली करंसी’  के विरुद्ध लड़ाई का नाम दे दिया गया है। इतने से भी जब समस्या हल न हुई तो यह कहना शुरू कर दिया गया कि नोटबंदी का उद्देश्य ‘कैशलैस और डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देना है।’ भाषाई कलाबाजियों के अलावा नीतिगत प्रतिक्रियाएं गत कुछ सप्ताह दौरान उपरोक्त दावों के गिर्द ही घूमती रही हैं और इस तरह की घोषणाएं हुई हैं कि डिजिटल भुगतान के लिए प्रोत्साहन के बाद जिन राशियों का खुलासा किया गया उन पर दंड भी लगाया जाएगा।

यह दलील दी जा सकती है कि किसी नीति के अनेक उद्देश्य हो सकते हैं। लेकिन इन्हें हर हालत में स्पष्ट रूप में परिभाषित किया जाना तो पहली जरूरत है और बार-बार इनमें बदलाव नहीं होना चाहिए। विडम्बना यह है कि परिभाषा में किसी भी प्रकार की अनिश्चितता नीति को इसके सृजनकत्र्ता की खुशफहमियों का गुलाम बनाकर रख देती है, जबकि वैंथम ने बिल्कुल ऐसी ही स्थिति को रोकने के लिए लम्बी-चौड़ी सैद्धांतिक व्यवस्था की थी। उपयोगतावाद की नवीनतम अवधारणाएं ऐसे नियम गढऩे पर लक्षित हैं जिनको अपनाना या हृदयंगम करना ही इनकी उपादेयता को बढ़ावा देता है। सरकार के प्रतिनिधियों ने मीडिया में लिखते हुए यह दावा किया है कि नोटबंदी का उद्देश्य सरकार के नैतिक लक्ष्यों के अनुरूप जनता के व्यवहार में बदलाव लाना था।

यानी कि यह भी एक प्रकार का उपयोगतावादी नियम ही था। फिर भी इस कवायद से जो झटका लगा वह सरकार की ओर से धकियाने मात्र से कहीं अधिक था। इसके अलावा नियमों को संस्थागत रूप देने की जहां अतिरिक्त कीमत चुकानी पड़ी वहीं इनके कुछ ऐसे परिणाम भी हुए जिनकी पहले परिकल्पना नहीं की गई थी। इनकी प्रतिक्रिया में कुछ ऐसे कदम भी उठे जो न केवल इन नियमों को ठेंगा दिखाने जैसे थे बल्कि इस सेंध लगाने की प्रक्रिया को गोपनीय रूप देना भी इनका उद्देश्य था। 

उदाहरण के तौर पर नोटबंदी ने बंद किए जा चुके पुराने नोटों के लिए एक वैकल्पिक बाजार की परिस्थितियां पैदा कर दीं जहां न केवल पुराने नोट महंगे भाव पर बिकते थे बल्कि भ्रष्टाचार के भी नए-नए रूप सामने आ गए। यहां तक कि नोटबंदी के पक्षधर भी यह मानते हैं कि नई व्यवस्था में भी किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार जारी रहेगा। नोटबंदी की नीति में अनेक तरह के बदलाव शासन तंत्र के सामथ्र्य पर बहुत बड़ा दबाव है। ऊपर से ऐन समय पर कदम न उठाने की अलग से भारी कीमत अदा करनी पड़ती है। 

कई लोग यह भ्रम पालने की ओर रुचित होते हैं कि समृद्ध लोगों की बजाय वंचित लोगों को नोटबंदी का अधिक लाभ हुआ है। लेकिन प्रत्यक्षत: निष्पक्ष मुद्रा धारण करते हुए भी यह कहा जा सकता है कि नोटबंदी की नीति ने जनता के विभिन्न वर्गों के बीच न्यायोचित विभिन्नताओं का संज्ञान नहीं लिया था बल्कि इसने ऐन उस वर्ग को सबसे अधिक आहत किया जो मौजूदा सरकार का सबसे बड़ा समर्थक था और जिसको यह लाभान्वित करना चाहती थी। विपदा को बर्दाश्त करने की अलग-अलग वर्गों की क्षमता भी अलग-अलग है। लेकिन नोटबंदी ने सभी को सिरे से ही एक जैसी तकलीफों में झोंक दिया। 

नोटबंदी दौरान बेशक यह दावा किया गया कि यह अमीर लोगों को उनके भ्रष्ट व्यवहार का दंड  देने का इरादा रखती है तो भी इसने जनता के किसी विशेष वर्ग को अपना लक्ष्य नहीं बनाया था। इसने एक समरस नीति का सृजन किया जिसने हर प्रकार की करंसी का विमुद्रीकरण कर दिया और हाशिए पर जीने वाले, बैंक में किसी प्रकार का खाता न रखने वाले और गरीब लोगों को अपेक्षाकृत बहुत अधिक आहत किया। नोटबंदी ने अपनी स्वेच्छा से नकदी हासिल करने वाले लोगों (यानी टैक्स विभाग की नजरों से बचने वाले कारोबारियों) तथा परिस्थितिवश नकदी स्वीकार करने वाले लोगों (दिहाड़ीदार मजदूरों इत्यादि) में किसी प्रकार का विभेद नहीं किया। 

अंतिम अर्थों में नोटबंदी ने सम्पत्ति के अधिकार को भी आहत किया क्योंकि इसने नागरिकों को बहुत ही प्रभावी ढंग से नकदी से वंचित कर दिया और अपने ही खातों में से धन की निकासी की उनकी क्षमता को सीमित करके रख दिया। यह इंगित करना महत्वपूर्ण है कि सम्पत्ति की आजादी के सिद्धांत की उपयोगतावादी परिभाषा उस स्थिति में मूल सम्पति धारक को सत्ता द्वारा वंचित करने की अनुमति देती है जब  इस प्रकार की सम्पति गलत ढंगों से अर्जित की गई हो। यह दलील दी जा सकती है कि भ्रष्टाचार के माध्यम से कमाई गई दौलत का विमुद्रीकरण करके नोटबंदी में बिल्कुल यही काम करने का प्रयास किया गया था। लेकिन उपयोगतावाद की ‘निष्पक्ष’ विमुद्रीकरण नीति ने भिन्न-भिन्न ढंगों से कमाई गई दौलत में कोई विभेद नहीं किया और एक सिरे से सभी को नकदी विहीन कर दिया। 

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